Diary Ke Panne

शनिवार, 15 जनवरी 2022

सुर्खरू होता है इंसां, ठोकरें खाने के बाद (ग़ज़लनामा भाग -3)


(भाग -2 से आगे .....)

तो मैं इन दिनों लगातार संस्मरण ही लिख रहा हूँ ऐसा इसीलिए कि हाल ही के अनुभव सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देना बड़ी समझदारी नहीं । फिर मैं ऐसी बातें ही यहां पोस्ट करना चाहता हूँ जिसे पढ़कर पाठक गण को भी कुछ अनंदभूति हो... 

वैसे वर्तमान जीवन के अनुभव भी समय समय पर यहाँ आते रहेंगे...

बहरहाल बात 97 -98 की ही है युवा वय का मैं और मेरे साथ मेरा प्रेम संगीत। एक ग़ज़ल कंपेटीशन में मिलना हुआ भाई "भारती" जी से।। लंबा पूरा कद, बड़ी आंखें, घुंघराले लंबे बाल और उर्दू के शब्दों का कमाल उच्चारण, बेहतरीन हारमोनियम वादक और मुझे छोटे भाई की तरह प्रेम करने वाले... मुझे "मनु" कहकर पुकारते थे वो, मुझसे उम्र में काफी बड़े ( वैसे मैंने उनसे कभी उनकी उम्र, वैवाहिक जीवन या कमाई के बारे में कुछ भी नहीं पूछा)।

तो पहली ग़ज़ल जो उनसे सुनी वो पंकज उधास साहब की गाई हुई ग़ज़ल थी... एक-एक मिसरा लाजवाब... एक एक शेर कमाल । बोल थे :

"ला पिला दे साकिया ,पैमाना पैमाने के बाद 
होश की बातें करूँगा , होश में आने के बाद 

दिल मेरा लेने की खातिर मिन्नतें क्या क्या न की 
कैसे नज़रें फेर ली, मतलब निकल जाने के बाद 

वक़्त सारी ज़िन्दगी में, दो ही गुज़रे है कठिन 
एक तेरे आने से पहले , एक तेरे जाने के बाद 

सुर्खरू होता है इंसां, ठोकरें खाने के बाद 
रंग लाती है हीना, पत्थर पे पिस जाने के बाद "

इसके बाद तो बैठकों का सिलसिला चल पड़ा। वो पंकज उधास, चंदन दास और अहमद मोहम्मद हुसैन को ही गाते थे।। उनकी रूहानी आवाज़ में ग़ज़ल सुनना कमाल का सुकून देता था।।

मैंने पंकज उधास और चंदन दास साहब को जितना भी सुना भारती जी के मुख से ही सुना कभी कोई कैसेट या CD नहीं खरीदी।

मुझे लगता था ये आदमी एक दिन बहुत ही बड़ा कलाकार बनेगा।

 लगातार उनका हमारे घर आना जाना कुछ समय तक बना रहा  फिर अचानक से वो एक दिन गायब हो गए... मुझे न तो उनका घर पता था और न ही उनका कोई लैंड लाइन फ़ोन नंबर था। ढूंढता भी तो कहाँ।

फिर कई साल बीतने के बाद  एक रोज़ किसी शादी की बारात में मैंने कीबोर्ड की धुन सूनी और उस धुन में जानी पहचानी खुशबू सूंघ कर मैं पहुंचा उस की बोर्ड बजाने वाले के पास।।

देखता क्या हूँ ये तो वही महान कालाकार है बारात में बैंड का हिस्सा बना हुआ है , शरीर सूख चूका , रंग झुलस गया है और आदमी परेशान दिखाई पड़ रहा है।।

मैंने पास जाकर बात करने की कोशिश की लेकिन बारात की भीड़ में और शायद काम में मशगूल होने के कारण कुछ बात नहीं हो पाई मुझे लगा शायद ये पहचानना नहीं चाह रहे लेकिन मुझे देख कर उनकी आंखों में एक चमक तो आ ही गई थी।

बात हुई तो बताया कि उन्होंने ग़ज़ल गाना छोड़ दिया है। कुछ छोटे मोटे काम करके गुज़ारा कर रहे हैं।। मैन कहा घर आइएगा बैठकर कुछ प्लान करते हैं। और फिर उनसे दोबारा आज तलक मिलना नहीं हुआ।। खुद्दार इंसान की यही पहचान है खुशियां बांटता है और ग़म पी जाता है।।

समय की मार और मुफलिसी इंसान को जो न कराए वो थोड़ा है। एक महान ग़ज़ल गायक पता नहीं आज किस स्थिति में है।। उम्मीद करता हूँ कि जीवन के किसी मोड़ पर उनसे मुलाक़ात होगी।।

मेरे देखे समाज की यह महती ज़िम्मेदारी है कि अपने आस पास के कालाकारों को सहेजें।। ध्यान रहे दुनियां ऐसे लोगों से ही खूबसूरत है।।

फ़िराक़ याद आते हैं:

"माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी

ख़ुदा को पा गया वायज़, मगर है
ज़रूरत आदमी को आदमी की

मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी"


✍️MJ

मंगलवार, 11 जनवरी 2022

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत का भरम रख (ग़ज़लनामा भाग 2)


तो बात है साल 97 की, तब मैं तबला बजाता था और खूब ही बजाता था । संगीत ही मेरी दुनियां थी। पढ़ने लिखने के अलावा दूसरा काम तबला बजाना और क्रिकेट खेलना था।

एक रोज़ निशा देशपांडे जी का फ़ोन आया (तब लैंडलाइन फोन ही हुआ करते थे) कहा कि एक कम्पटीशन में पार्टिसिपेट करना है क्या तुम मेरे साथ संगत करोगे ? मैंने हामी भर दी।

शाम को घर पहुंचा तो पूरी टीम बैठी हुई थी। तबले पर मेरी जगह खाली थी। जहां मैं बिना किसी के कुछ बोले ही जम गया।।

ग़ज़ब के सुरों के साथ जो ग़ज़ल कानों में पड़ी वो अहमद फ़राज़ साहब की ग़ज़ल थी :-

"रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ"


एक एक शब्द सीधे कानों से उतर कर ज़ेहन में पैवस्त हो गए और मैं उत्सुक था मेहदी हसन साहब को जानने के लिए । वो इंटरनेट का ज़माना नहीं था। इंटरनेट धीरे धीरे पैर पसार ही रह था।।

जानने का स्रोत केवल किताबें ही थी या ऑडियो कैसेट या कोई बड़े बुज़ुर्ग। सबसे पहले फ़राज़ साहब की "मेरी ग़ज़लें मेरी नज़्में" खरीद कर पफह डाली और निशा जी से ही मेहदी साहब की ऑडियो कैसेट ले ली।

कुछ दिन इन दोनों के खुमार में ही डूब रहा और फिर दिन आया कंपीटिशन का ।। 

जगदलपुर शहर के रोटरी भवन में कार्यक्रम का आयोजन था जहां मुझे कुछ और ग़ज़ल गायकों को सुनने का मौका मिला जिनमें से एक थे राकेश भारती। जो ग़ज़ल उन्होंने गाई उसके एक शेर पर मेरा दिल अटक गया बोल थे :

"वक्त सारी जिंदगी में दो ही गुजरे हैं कठिन,
इक तेरे आने से पहले, इक तेरे आने के बाद।"

अहा क्या कमाल। कमाल।कमाल.... अब मुझे उत्सुकता थी इस आदमी और उस ग़ज़ल को जानने की.... 

क्रमशः....

PS : बता दूं कि निशा जी विजयी घोषित की गईं और भारती जी उपविजेता रहे।। :)

सोमवार, 10 जनवरी 2022

ग़ज़लनामा (भाग -1)


ग़ज़लों की दुनिया से शुरूआती मुलाक़ात घर पर ही हुई . बड़े भाई साहब जगजीत सिंह को सुनते थे और आते जाते कानों में ग़ज़ल पड़ती रहती थी ।। लेकिन पहले पहल जिस ग़ज़ल  को ठीक से सूना और समझा वो मेंहदी हसन साहब की गाई हुई ग़ज़ल थी जिसे अहमद फ़राज़ साहब ने लिखा था....  बोल थे-

"रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आआ

 फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ

माना के मुहब्बत का छुपाना है मुहब्बत

चुपके से किसी रोज़ जताने के लिये आ

जैसे तुझे आते हैं, न आने के बहाने

ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिये आ "

एक-एक शेर एक-एक मिसरा अद्भुत।।

ग़ज़ल क्या है? इस विषय पर बड़ी चर्चा हो सकती है लेकिन जैसा कि किसी शायर ने कहा है... कही गई बात का सीधे दिल पे असर हो तो ग़ज़ल होती है. यानी ग़ज़ल केवल शिल्प नहीं है इसमें कथ्य का होना भी ज़रूरी है.  तकनीकी रूप से ग़ज़ल काव्य की वह विधा है जिसका हर शे'र अपने आप में पूर्ण होता है । हर शे'र का अपना अलग विषय हो सकता है. लेकिन एक विषय पर भी गज़ल कही जा सकती  है जिसे ग़ज़ले- मुसल्सल कहते हैं।

आज इस आलेख के माध्यम से हम ग़ज़ल की बारीकियों को समझने का प्रयास करते हैं वैसे मैं पहले  ही ये स्पष्ट कर दूं कि मैं न तो अरूज़ी हूं (ग़ज़ल के तमाम असूलों की जानकारी को अरूज़ कहते हैं और जानने वाले अरूज़ी) और न ही ग़ज़लकार हूँ.....हाँ इस बात का दावा ज़रूर कर सकता हूँ कि मै साहित्य की इस विधा का  प्रेमी हूँ... जगजीत सिंह से लेकर महँदी हसन तक और ग़ुलाम अली से लेकर चंदन दास तक को सुना है और गुना है। जगजीत सिंह , पकज उधास और अहमद मोहम्मद हुसैन को सामने बैठकर सुनने का भी अवसर मिला है।  इन दिनों मल्लिका ए  ग़ज़ल, बेगम अख्तर साहिबा की दुनियां में हूँ ।।

बहरहाल ग़ज़ल को समझने के लिये इसके अंगों को जानना ज़रूरी है... अगर आपको कुछ बारीकियों के साथ , राग , ताल और शब्द के अर्थ भी पता हों तो ग़ज़ल सुनने का मज़ा कई गुना हो जाता है ।। कुछ महत्वपूर्ण शब्दावली -

मतला: ग़ज़ल के पहले शे'र को मतला कहते हैं. मतले के दोनो मिसरों मे काफ़िया और रदीफ़ का इस्तेमाल किया जाता है।

मक़्ता : ग़ज़ल का अंतिम शे'र जिसमे शायर अपना उपनाम(तखल्लुस)  लिखता है मक़्ता कहलाता है।

शे'र: दो पंक्तियों से मिलकर एक शे'र बनता है। दो पंक्तियों में ही अगर पूरी बात इस तरह कह दी जाये कि तकनीकी रूप से दोनों पदों के वज्‍़न समान हों तो कहा जाता है कि शेर हुआ।

मिसरा:  शे'र कि पंक्पतियाँ स्वतंत्र  रूप से मिसरा कहलाती हैं. शे'र की पहली  पंक्ति  'मिसरा ऊला' और दूसरी  'मिसरा सानी' कहलाती है ।  मिसरा ऊला पुन: दो भागों मे विभक्त होती है प्रथमार्ध को मुख्य (सदर) और उत्तरार्ध को दिशा (उरूज) कहा जाता है। "मिसरा सानी" के भी दो भाग होते हैं। प्रथम भाग को आरंभिक (इब्तिदा) तथा द्वितीय भाग को अंतिका (ज़र्ब) कहते हैं। अर्थात दो मिसरे ('मिसरा उला' + 'मिसरा सानी') मिल कर एक शे'र बनते हैं। 

कता :  चार मिसरों से मिलकर एक क़ता बनता है जो एक ही विषय पर हों।

रदीफ : रदीफ पूरी ग़ज़ल में स्थिर रहती है। ये एक या दो शब्दों से मिल कर बनती है और मतले मे दो बार मिसरे के अंत मे और शे'र मे दूसरे मिसरे के अंत मे ये पूरी ग़ज़ल मे प्रयुक्त हो कर एक जैसी ही रहती है  बदलती नहीं। ज़रूरूई नहीं की हर ग़ज़ल में रदीफ़ हो बिना रदीफ़ के भी ग़ज़ल हो सकती है जिसे गैर-मरद्दफ़ ग़ज़ल कहा जाता है. एक प्यारी सी रदीफ़ वाली ग़ज़ल देखें जिसे अमजद इस्लाम अमजद साहब ने लिखा है-

"कहाँ आ के रुकने थे रास्ते कहाँ मोड़ था उसे भूल जा 

वो जो मिल गया उसे याद रख जो नहीं मिला उसे भूल जा 

वो तिरे नसीब की बारिशें किसी और छत पे बरस गईं 

दिल-ए-बे-ख़बर मिरी बात सुन उसे भूल जा उसे भूल जा"

इस ग़ज़ल में "उसे भूल जा" रदीफ़ का प्रयोग किया गया है।।

काफ़िया : इसे एक तरह का तुक कह सकते हैं ।। जिसमें मतले के दोनों मिसरों के आखिरी अक्षर और हर शेर का आखिरी एकाधिक अक्षर समान होते हैं जैसे  बशीर बद्र साहब की एक प्यारी ग़ज़ल देखें: 

 "सर से पा तक वो गुलाबों का शजर लगता है

बा-वज़ू हो के भी छूते हुए डर लगता है 

मैं तिरे साथ सितारों से गुज़र सकता हूँ

कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है

मुझ में रहता है कोई दुश्मन-ए-जानी मेरा

ख़ुद से तन्हाई में मिलते हुए डर लगता है

बुत भी रक्खे हैं नमाज़ें भी अदा होती हैं

दिल मेरा दिल नहीं अल्लाह का घर लगता है

ज़िंदगी तूने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं

पांव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है"

इसमें "डर", "सफर", "घर" , "सर" ये सब काफिये हैं और "लगता है" रदीफ़ है 

 बहर: इसे एक तरह का फ़ारसी मीटर, ताल या लय कह सकते हैं  जो अरकानों की एक विशेष तरक़ीब से बनती है.

अरकान: फ़ारसी भाषाविदों ने आठ अरकान ढूँढे हैं और उनको एक नाम दिया है जो आगे चलकर बहरों का आधार बने।  रुक्न का बहुबचन है अरकान.बहरॊ की लम्बाई या वज़्न इन्ही से मापा जाता है। 

क्रमश:.......

PS: रात के एक बजे गए हैं इसे लिखते हुए ।। कुछ करेक्शन्स करके सुबह ही पोस्ट करूँगा... पढ़ कर कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं कि आप इस विषय पर और पढ़ना चाहेंगे क्या।। इसके तीन चार भाग और लिखने का मन है।।

09.01.2022
01.05 am

गुरुवार, 6 जनवरी 2022

रिजल्ट का दिन


हाल ही में MPPSC मुख्य परीक्षा के रिजल्ट घोषित हुए जल्द ही सिविल जज मुख्य परीक्षा के रिजल्ट भी आने वाले हैं और हर महीने किसी न एग्जाम के रिजल्ट आते ही रहते हैं. जैसा कि हमेशा ही होता है सफल प्रतिभागियों की संख्या असफल प्रतिभागियों से कम ही होती है.... इसका कारण यह है कि पद संख्या से प्रतिभागियों की संख्या हमेशा ही कई गुना ज्यादा होती होती है.

देखता हूँ कि कीमती जीवन केवल परीक्षा की तैयारी और सिलेबस पूरा करने में खर्च हो रहा है. उस पर तुर्रा यह की ये दौड़ कभी ख़त्म नहीं होती. जो जिस पद को प्राप्त कर चुका है वह उससे संतुष्ट नहीं है, बड़े पद की चाह रखता है गोया कि “दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, जो मिल जाए वो मिट्टी है, जो खो जाए वो सोना है.”

            मेरे देखे युवाओं को आत्ममंथन की आवश्यकता है. ये ठीक है कि सफल व्यक्ति को सभी सलाम करते हैं. सभी सफलता पाना चाहते हैं. लेकिन सफलता का अर्थ क्या है ? क्या कोई परीक्षा पास कर लेना? कुछ बन जाना ? बहुत सारे पैसे कमा लेना ? या विख्यात होना ?..... तय करना होगा .

           फिर उन लोगों का क्या जो असफल हो गए हैं? उनकी संख्या तो कहीं ज्यादा है. ये वर्ग उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण निराशा व हताशा में चला जाता है. इनमें से अधिकतर के पास कोई कौशल नहीं होता, तो ढंग की नौकरी मिलने के आसार भी ख़त्म हो जाते हैं. 

लेकिन युवा वर्ग को यह ध्यान रखना चाहिए कि युवा ही वायु हैं, हर चीज़ का रूख मोड़ने की शक्ति रखता है युवा. मैं अपने लेक्चर्स में हमेशा यही कहता हूँ कि कोई परीक्षा तुम्हारी क्षमताओं को नहीं तय कर सकती. तुममें असीम शक्ति है उसे पहचानो. तुम  इस विराट अस्तित्व का भाग ही नहीं हो बल्कि तुम ही विराट अस्तित्व हो. तुम सागर में एक बूँद नहीं हो तुम ही सागर हो.

        मैं अक्सर कहता रहता हूँ नदी क्यूँ मैली नहीं होती? क्योंकि वह बहती रहती है. पानी अपने मार्ग में आने वाले चट्टानों का सीना कैसे चीर देती है. क्योंकि वह निरंतर आगे बढती रहती है. पानी का एक बिन्दु झरने से नदी, नदी से महानदी और महानदी से समुद्र क्यों बन जाता है? क्योंकि वह बहता है. इसलिए हे जीवन! तुम रुको मत, बहते रहो. जीवन में कुछ असफलताएं आती हैं तो आती रहें, तुम उनसे घबराओ मत. उन्हें लांघकर दुगनी मेहनत करते चलो. बहते रहना और चलते रहना  ही  तो जीवन है. अगर असफलता से घबरा कर रुक गए तो उसी तरह सड़ जाओगे जिस तरह रुका हुआ पानी सड़ जाता है. अपने आपको इतना मज़बूत बनाओ की भाग्य की छाती पर लात रख कर मंज़िल तक पहुँच  सको.

          असफलता  कहती है कि सबक अभी बाकी है, जिन्दगी अभी तराश रही है, प्राण-शक्ति के इम्तिहान अभी बाकी हैं.मंजिलें अभी दूर हैं और रस्ते पुकार रहे हैं. असफलता में से अनुभव का “अ” निचोड़ लो फिर देखो विशुद्ध सफलता ही बचेगी. इस बात को गांठ बांध लो।।

✍️MJ

सोमवार, 3 जनवरी 2022

जनवरी और पिकनिक



जनवरी का मतलब पिकनिक और पिकनिक का मतलब जनवरी.... तो जनाब ये पिकनिक का क्या मतलब है? दोस्तों और परिवार जनों के साथ इकट्ठा होना, कहीं रमणीय स्थल पर जाना , खाना और घूमना।।

दिसंबर का महीना मेरे जीवन में केवल प्लानिंग का ही महीना होता था। स्कूली दिनों में होता ये था कि मेरे पास अलग -अलग ग्रुप हुआ करते थे या कहना बेहतर होगा कि मैं कई ग्रुप का सदस्य होता था ।। जैसे - संगीत सीखने जाता था तो वहां के मित्रों का एक ग्रुप, ट्यूशन के मित्रों का एक ग्रुप, स्कूल के पढ़ने वाले फ्रेंड्स का एक ग्रुप और  नहीं पढ़ने वाले मित्रों का एक ग्रुप🤐.

मेरे दोस्तों में हमेशा ही सभी उम्र के लोग शामिल रहे हैं मुझसे बहुत बड़े भी और बहुत छोटे भी...लड़के भी और लड़कियां भी। इसका मूल कारण शायद यही हो कि मैंने मित्रता में और शायद जीवन मे भी कभी भेद भाव नहीं किया, किसी को भी नहीं करना चाहिए।।

तो साल का शुरुआती हफ्ता हमेशा पिकनिकों से भरा होता था कम से कम तीन से चार पिकनिक।

 सभी पिकनिक यूं तो यादगार होती थी लेकिन साल 97 का पिकनिक कुछ ज़्यादा ही यादगार रहा। हुआ ये कि संगीत स्कूल वाले ग्रुप के साथ कैलाश गुफा जाने का प्लान बना (कांगेर घाटी नेशनल पार्क में स्थित है यह गुफा)। हम सभी संगीत साधक अपने शिक्षकों संध्या दीदी और रामदास सर के साथ सुबह तड़के ही चल दिये कांगेर घाटी की ओर।

कांगेर घाटी राष्ट्रीयउद्यान का नाम कांगेर नदी के नाम पर पड़ा  है, जो इसकी लंबाई में बहती है। कांगेर घाटी लगभग 200 वर्ग किलोमीटर में फैला है । जिसने 1982 में एक राष्ट्रीय उद्यान की स्थिति प्राप्त की। ऊँचे पहाड़ , गहरी घाटियाँ, विशाल पेड़ और मौसमी जंगली फूलों एवं वन्यजीवन की विभिन्न प्रजातियों के लिए यह अनुकूल जगह है । 


कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान एक मिश्रित नम पर्णपाती प्रकार के वनों का एक विशिष्ट मिश्रण है जिसमे साल ,सागौन , टीक और बांस के पेड़ बहुतायत में है। यहाँ की सबसे लोकप्रिय पक्षी की प्रजाति जो अपनी मानव आवाज के साथ सभी को मंत्रमुग्ध करती हैं वह बस्तर मैना है। राज्य पक्षी, बस्तर मैना, एक प्रकार का हिल माइन (ग्रुकुला धर्मियोसा) है, जो मानव आवाज का अनुकरण करने में सक्षम है। जंगल दोनों प्रवासी और निवासी पक्षियों का घर है।

वन्यजीवन और पौधों के अलावा, यह राष्ट्रीय उद्यान तीन असाधारण गुफाओं का घर है- कुटुम्बसर, कैलाश और दंडक-स्टेलेग्माइट्स और स्टैलेक्टसाइट्स के आश्चर्यजनक भूगर्भीय संरचनाओं के लिए प्रसिद्ध है। राष्ट्रीय उद्यान ड्रिपस्टोन और फ्लोस्टोन के साथ भूमिगत चूना पत्थर की गुफाओं की उपस्थिति के लिए जाना जाता है। स्टेलेग्माइट्स और स्टैलेक्टसाइट्स का गठन अभी भी बढ़ रहे हैं। राष्ट्रीय उद्यान में गुफा, वन्यजीवन की विभिन्न प्रजातियों के लिए आश्रय प्रदान करते हैं। राष्ट्रीय उद्यान के पूर्वी हिस्से में स्थित भैंसाधार में रेतीले तट देखे जाते हैं जहां मगरमच्छ (क्रोकोड्लस पालस्ट्रिस) इसका उपयोग मूलभूत उद्देश्यों के लिए करते हैं।

बहरहाल हम बात कर रहे थे पिकनिक टू कैलाश के बारे में ।। तो हम सुबह समय पर निकल गए और गुफा भी घूम आए । लेकिन इससे पहले की गुफा से बाहर निकल कर मैदानी इलाके तक पहुंचते जहां हमें खाना पकाना और खाना था , तेज़ बारिश शुरू हो गई। हमारी गाड़ी जंगल के बीच फंस गई और हम सब बेतहाशा भीगने लगे । 

"ढलता सूरज , फैला जंगल, रस्ता गुम,                         हमसे पूछो कैसा आलम होता है? "  *

हम घने जंगल मे एक दिशा में चलते रहे । शाम घिर आई थी और जल्द ही रात होने वाली थी। हमने दिन भर से कुछ भी नहीं खाया था और पूरी तरह से भीग गए थे लेकिन चल रहे थे । ये नेशनल पार्क जंगली जानवरों का घर था और हमारे साथ लड़कियां और  महिलाएं भी थीं।।

 रात घिरते ही अचानक घने जंगल के बीच हमें एक झोपड़ी दिखाई देती है।। हम सब उसमें समा जाते हैं और ये जानकर अच्छा लगता है कि ड्राइवर ने गाड़ी से डीज़ल का कंटेनर निकाल कर रख लिया था और हम साथ कुछ पैक्ड स्नेक्स भी ले आये थे।। बड़ी मुश्किल से आग जलाई जाती है।। रात के 10 बज रहे हैं बारिश थमने का नाम नहीं ले रही । कुछ लोग बीमार हो गए हैं बुखार और उल्टी।। लग रहा था  अब हम लोग बचेंगे नहीं । सबकी बात सुनते हुए आग तापते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।।

उस समय मोबाईल फ़ोन नहीं हुआ करते थे कि किसी को फ़ोन करके मदद मंगा सकें । लग रहा था हम लोग अब बचेंगे नहीं ॥ कई तरह के ख़्याल दिमाग़ में दौड़ रहे थे मैं सोच रहा था काश कहीं से पापा आ जाएँ, वो मेरे सूपर हीरो जो थे लगता था कुछ भी कर सकते हैं ॥ और ये सब सोचते सोचते नींद आ गई॥

सपने में देखा की पापा कई गाड़ियाँ लेकर हमें ढूँढने निकल पड़े हैं … और हमें ढूँढ भी लिया है मेरे कानों में ज़ोर से उनकी आवाज़ पड़ी । एक दमदार आवाज़ जिसमें प्रेम की पुकार थी । झोपड़ी की गीली ज़मीन पर लेटा हुआ मैं आँख खोलता हूँ तो क्या पाता हूँ कि रात के अंतिम प्रहर में पापा सामने खड़े हैं मैं उनसे लिपट जाता हूँ ॥ पापा बहुत सारा कुछ खाने का लाए हैं चोकलेट मिठाइयाँ, केक , ब्रेड वग़ैरह वग़ैरह और ये अब हक़ीक़त में हो रहा है .. हाँ ये सपना नहीं ॥ पापा कई गाड़ियों में हमें बचाने आए थे हम सब बच गए हैं ॥

और एक शानदार पिकनिक समाप्त होती है ॥

✍️MJ




रविवार, 2 जनवरी 2022

Don't look up

02 -jan -2022 
शाम 6.00 बजे


कैसा हो अगर आपको पता चले कि ठीक 6 माह बाद पृथ्वी से एक बड़ा सा कॉमेट टकराएगा और पूरी पृथ्वी तबाह हो जाने वाली है?? क्या आपकी दिनचर्या ठीक वैसी ही होगी जैसी अभी है?? या कुछ बदल जाएगा?

आज एक कमाल की  फ़िल्म देखी Don't Look Up जिसका सेंट्रल आईडिया यही है ।। एडम मैके कि इस फ़िल्म में जेनिफर लॉरेंस केट डीबीएस्की के किरदार में हैं जो अपनी PhD कर रही हैं लिओनोर्दो डिकॉप्रियो के अंडर जो डॉक्टर रैंडल मैंडी बने हैं (एस्ट्रोनॉमर)।


अपनी रिसर्च के दौरान केट पाती हैं कि एवेरेस्ट के आकार का एक कॉमेट बहुत तेज़ गति से पृथ्वी की कक्षा की ओर बढ़ा चला आ रहा है और इस खोज के चलते ही कॉमेट का नाम उसकी खोज कर्ता के नाम पर "डीबीएस्की" रख दिया जाता है ।।


 अपने प्रोफेसर के साथ मिलकर वो गणना करती है तो पता चलता है कि अधिक से अधिक छः माह में ये कॉमेट पृथ्वी से टकरा जाएगा । दोनों की हालत खराब हो जाती है। उनके लिए बाकी सारी बातें जैसे एग्जाम में किसके क्या मार्क्स आए हैं , रिलेशनशिप में क्या हो रहा है, कौन चीफ जस्टिस बनने वाला है वगैरह वगैरह बेमानी हो जाती हैं।।


फ़िल्म को देखते हुए मैं सोचने लगा कि क्या ये बात हममें से हर एक के लिए सही नहीं है? क्या हम सब जल्द ही विदा नहीं हो जाने वाले।। ये पृथ्वी कितने साल रहेगी ये हमें नहीं  पता लेकिन ये तो 100℅ तय है कि आने वाले पचास सौ सालों में इस ब्लॉग को लिखने वाला , पढ़ने वाले और नहीं पढ़ने वाले भी विदा हो जाएंगे ।।

जॉन एलिया साहब ने कहीं लिखा है:

कितनी दिलकश हो तुम, कितना दिल-जू हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग भी मर जाएंगे

बस अगर ये ख्याल दिल में रहे कि जीवन क्षणिक है तो आस पास घटने वाली हर घटना बेमानी हो जाएगी और नन चियोनो की तरह एक ही झटके में निर्वाण हाथ जोड़े सामने खड़ा होगा।। 

एक क्षण को ये ख्याल ठीक से समझ आ गया तो एक क्षण में पूरा जीवन बदल सकता है।।

मेरे देखे इस दुनिया में जानने योग्य केवल दो ही चीजें हैं मनुष्य मन भीतर और अनंत ब्रह्मांड बाहर।। इन दोनों का चिंतन अध्ययन और मनन करते रहें फिर जीवन में घटने वाली छोटी बड़ी बातें विचलित नहीं कर सकेंगी ।। ऐसी घटनाओं के सामने आने पर हम भी  मुस्कुरा ही उठेंगेऔर कहेंगे "परवा ईल्ले"।।

-MJ


पुनश्च : पिछले कुछ वर्षों में ब्लॉग पर कम ही एक्टिव रहा हूँ ।। थोड़ा बहुत फेसबुक पर लिखता रहा ।। अब यहां बने रहने का मन है।।


गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

किताबें और मैं





आज कई दिनों बाद इस प्लेटफार्म पर वापस लौटा हूँ... पिछला एक वर्ष यहाँ कुछ भी नहीं लिखा.. आखिरी आलेख 29 अप्रैल को लिखा था जब हैदराबाद कि सुखद यात्रा से लौटा था एक ऐसी यात्रा जो जीवन भर याद रहेगी.

 लेकिन ऐसा नहीं है कि लिखता नहीं रहा हूँ. पिछले वर्ष कुल जमा मेरी लिखी चार किताबें प्रकाशित हुईं...एक मित्र कि प्रेरणा से you tube पर लगातार विडियो डालता रहा. स्वयं के साथ कई सुखद यात्राएं की, जिनके बारे में समय समय पर लिखता रहूँगा. कुछ एक रिसर्च पेपर भी लिख डाले जिनको मालिक की मर्जी से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में जगह मिली. ऑक्सफ़ोर्ड हो आया. वस्तुतः जीवन इतना तेज गतिमान रहा कि यहाँ आने के लिए समय नहीं निकाल पाया.

जैसा किसी ने कहा है लिखना स्याही नहीं लहू मांगता है.. लेकिन मेरे देखे डायरी या संस्मरण लिखना बीते हुए समय को फिर से जीने के सामान है.     
    
तो आज के इस आलेख में बात करेंगे किताबों के बारे में.... किताबों से पहले पहल परिचय दादी की अलमारी से हुआ. उनके पास धार्मिक किताबों का संग्रह था... रामायण , गीता , रामचरित मानस और भी कई तरह कि किताबें. खैर इन किताबों को पढ़ा तो बहुत बाद में लेकिन हाँ रामचरित मानस शायद पहली किताब होगी, स्कूल की किताबों के अलावा जिसे पढ़ा था.

गर्मी कि छुट्टियों में हम ढेरों कॉमिक्स और नोवेल्स पढ़ते थे और लगातार पढ़ते रहते थे.. कॉमिक्स किराए पर लाये जाते थे जिनमें नंदन, चंदामामा, इंद्रजाल कॉमिक्स, मोटू पतलू , अमर चित्रकथा, चाचा चौधरी, पिंकी, बिल्लू, डोगा , परमाणु , सुपर कमांडो ध्रुव , नागाराज , तौसी , भोकाल,  बांकेलाल और न जाने क्या - क्या.

 क्यूंकि हम भाई इन्हें किराये पर लाते थे तो निश्चित समय में पढ़कर वापस करना होता था. शायद यहीं से नियत समय में पढ़ने  कि आदत लगी होगी ऐसा मालूम पड़ता है.

मुझे याद आता है कक्षा ग्यारह तक आते-आते बहुत कुछ नहीं पढ़ा था.. कक्षा बारह में पुस्तकों के प्रति रुचि जागी और इसका बाड़ा श्रेय श्री अनिल हर्जपाल जी को जाता है. अनिल भैया हमें फिजिक्स और मैथ्स पढ़ाते थे. उनके पास विज्ञान की किताबों का एक बड़ा संग्रह था.... यहाँ से पढने के प्रति रुचि जागी.

मेरी रुचि किस तरह कि किताबों में थी कभी तय नहीं कर पाया... ताऊ जी कि मृत्यु के बाद जीवन असार मालूम पड़ने लगा था.. बहुत कुछ जानने का मन करता था.... हज़ारों प्रश्न अनुत्तरित थे और लगता था जैसे किताबें इनका उत्तर देंगी.. सो मैं किताबों कि और मुड़ गया.

फिर तो जो कुछ मिला पढने लग गया. राजकमल प्रकाशन कि किताब घर योजना का सदस्य बना, एक स्थानीय पुस्ताकलय कि मेम्बरशिप ले ली, और मित्र मोहित कि दुकान से भी किताबें खरीद लाता. इस क्रम में रामधारी सिंह दिनकर’, निराला, प्रसाद, महादेवी, बच्चन, अज्ञेय, नागार्जुन आदि को पढ़ गया. बौद्ध और जैन दर्शन और भारतीय दर्शन पर कई किताबें पढ़ डालीं ...

फिर मिलना हुआ संतोष गंजीर भैया से उनके जरिये ओशो साहित्य से परिचय हुआ और मित्र राकेश साहू से मिलकर उपनिषदों  और वेदों को देखने और पढने का अवसर मिला.
  
एक बार भोपाल आना हुआ था और वहाँ से सेकंड हैण्ड बुक्स एकदम कम दाम में मिल गए...  लगा जैसे कि खजाना हाथ लग गया ऐसी ऐसी किताबें खरीद लीं जिनका नाम भी नहीं सुना था इनमें कबीर, फरीद , दुष्यंत, ग़ालिब, मीर, फ़ैज़ और फ़िराक़ तक शामिल थे. रदरफोर्ड का फिजिक्स और हाथरस से प्रकाशित संगीत पर कई किताबों के साथ ही पहली बार विदेशी लेखों कि रचनाएँ खरीदीं जिनमें टॉलस्टॉय , चेखव और गोर्की प्रमुख हैं...

जब KINDLE भारत में लॉन्च हुआ तो उसका वॉयेज खरीद लिया था लगभग तीन हज़ार किताबों के साथ आया था वो... लेकिन उसके साथ अब तक ठीक से दोस्ती हो नहीं पाई है... प्रिंटेड वर्शन हाथ में लेकर पढना  ही सुख देता है....

कानून कि किताबों के अलावा इन दिनों कई तरह कि किताबें पढ़ रहा हूँ... लगता है जैसे ये जीवन इन सबको पढ़ जाने के लिए कम पड़ेगा..
  
मेरा जीवन किताबों और उनके लेखकों का ऋणी है ... जीवन को देखने का नजरिया दिया है किताबों ने , जीवन को समझने कि बुद्धि दी है किताबों ने वस्तुतः जीवन को जीवन ही दिया है किताबों ने. 

आज विश्व पुस्तक दिवस के उपलक्ष्य में इतना ही... 

 - मन मोहन जोशी            

सोमवार, 29 अप्रैल 2019

गोलकोंडा - इमारत जो बात करती है













आज 19 अप्रैल है  you tube fanfest में शामिल होने के लिए हैदराबाद आया हूँ. सुबह 9.25 की  फ्लाइट से हैदराबाद पहुँचता हूँ . हैदराबाद मैं पहले भी कई बार जा चुका हूँ.
  
याद आता है मैं तब कॉलेज फर्स्ट इयर में रहा होऊंगा उस समय तबला सीखता था और लगातार मंचीय कार्यक्रमों में व्यस्त रहता था. रविवार की एक दोपहर दूरदर्शन में उस्ताद जाकिर हुसैन का एक इंटरव्यू आ रहा था जिसमें उन्होंने बताया कि वे हैदराबाद के अकबर मियाँ हैदराबादी के यहाँ से तबला बनवाते हैं.
  
फिर क्या था एक मित्र थे उधौ उनको फ़ोन लगाया पूछा हैदराबाद चलोगे ? उन्होंने पूछा कब? मैंने कहा आज शाम को चलते हैं. वो भी मेरी ही तरह आधे पागल थे, सो तैयार हो गए. और मैं पहली बार हैदराबाद पहुंचा.

 बहुत मजेदार यात्रा थी... अकबर मियाँ को ढूंढने से लेकर हैदराबाद में घुमने तक की. ये कहानी फिर कभी...

 फिलहाल वापस आते हैं 2019 में ...........

fanfest का पहला दिन व्यस्तताओं से भरा हुआ है.....  और शाम बेहद खूबसूरत. बहुत कुछ सीख रहा हूँ.......  बहुत कुछ जान रहा हूँ ( इस पर जल्द ही विस्तार से लिखूंगा).
दुसरे दिन सुबह मैं खुद के साथ निकल गया गोलकोंडा के किले को महसूस करने... मेरे साथ थे मैं और मेरे ड्राईवर श्रीनिवास्लू....       
  
भीतर जाने के लिए टिकट लेकर मैंने एक गाइड को अपने पास बुलाया कहा चलो भाई घुमाओ हमें किला और बताते रहना इसका भुगोल और इतिहास.
  
गाइड का नाम अब्दुल है और वह हमें किले के भीतर लिए चलता है और उसकी बातों को सुनते हुए लगता है कि हम खो गए हैं किले में कहीं और कर रहे हैं समय कि यात्रा...
  
अब्दुल बताता है इस किले को  गोलकोंडा और गोल्ला कोंडा के नाम से भी जाना जाता है, भारत के दक्षिण में बना यह एक किला और गढ़ है. गोलकोंडा कुतब शाही साम्राज्य (C. 1518-1687) के मध्यकालीन सल्तनत की राजधानी थी. इतिहास जिस तरह से अब्दुल को याद हैं लगता है बिलकुल सही गाइड चुना है.....
  
वह बताता चलता है कि यह किला हैदराबाद के दक्षिण से 11 किलोमीटर दुरी पर स्थित है. भारत के तेलंगना राज्य के हैदराबाद में बना यह किला काफी प्रसिद्ध है. वहा का साम्राज्य इसलिये भी प्रसिद्ध था क्योकि उन्होंने कई बेशकीमती चीजे देश को दी थी जैसे की कोहिनूर हीरा.
  
  उसके अनुसार इस दुर्ग का निर्माण वारंगल के राजा ने 14 वी शताब्दी के कराया था. बाद में यह बहमनी राजाओ के हाथ में चला गया और मुहम्मदनगर कहलाने लगा.


1512 ई. में यह कुतुबशाही राजाओ के अधिकार में आया और वर्तमान हैदराबाद के शिलान्यास के समय तक उनकी राजधानी रहा. फिर 1687 ई. में इसे औरंगजेब ने जीत लिया. यह ग्रेनाइट की एक पहाड़ी पर बना है जिसमे कुल आठ दरवाजे है और पत्थर की तीन मील लंबी मजबूत दीवार से घिरा है.
  
गोलकोंडा किले  को 17 वी शताब्दी तक हीरे का एक प्रसिद्ध बाजार माना जाता था. इससे दुनिया को कुछ सर्वोत्तम हीरे मिले, जिसमे कोहिनूर शामिल है. इसकी वास्तुकला के बारीक़ विवरण और धुंधले होते उद्यान, जो एक समय हरे भरे लॉन और पानी के सुन्दर फव्वारों से सज्जित थे, आपको उस समय की भव्यता में वापिस ले जाते है.

तक़रीबन 62 सालो तक कुतुब शाही सुल्तानों ने वहा राज किया. लेकिन फिर 1590 में कुतुब शाही सल्तनत ने अपनी राजधानी को हैदराबाद में स्थानांतरित कर लिया था.
  
घूमते हुए मुझे प्यास लग आई है और अब्दुल पानी कि एक बोतल खरीद लाता है. इसकी कीमत 40 रूपए हैं. अब्दुल बताता है कि खाली बोटल वापस करने पर 20 रुपये वापस मिल जायेंगे. ऐसा पर्यावरण संरक्षण के लिए किया गया है. मुझे ये कांसेप्ट अच्छा लगता है.
  
हम किले में आगे बढ़ते हैं और साथ ही आगे बढती हैं अब्दुल कि बातें ....... गोलकोंडा किले को आर्कियोलॉजिकल ट्रेजर के स्मारकों की सूचिमें भी शामिल किया गया है. असल में गोलकोंडा में 4 अलग-अलग किलो का समावेश है जिसकी 10 किलोमीटर लंबी बाहरी दीवार है, 8 प्रवेश द्वार है और 4 उठाऊ पुल है. इसके साथ ही गोलकोंडा में कई सारे शाही अपार्टमेंट और हॉल, मंदिर, मस्जिद, पत्रिका, अस्तबल इत्यादि है.
  
बाला हिस्सार गेट गोलकोंडा का मुख्य प्रवेश द्वार है जो पुर्व दिशा में बना हुआ है. दरवाजे की किनारों पर बारीकी से कलाकारी की गयी है. और साथ ही दरवाजे पर एक विशेष प्रकार का ताला और गोलाकार फलक लगा हुआ है. दरवाजे के उपर अलंकृत किये गये मोर बनाये गये है. दरवाजे के निचले ग्रेनाइट भाग पर एक विशेष प्रकार का ताला गढ़ा हुआ है. मोर और शेर के आकार को हिन्दू-मुस्लिम की मिश्रित कलाकृतियों के आधार पर बनाया गया है.
  
किले के प्रवेश द्वार के सामने ही बड़ी दीवार बनी हुई है. अब्दुल बताता है कि  यह दीवार किले  को सैनिको और हाथियों के आक्रमण से बचाती है.
  
गोलकोंडा किला चमत्कारिक ध्वनिक सिस्टम (acoustic)  के लिये प्रसिद्ध है. किले का सबसे उपरी भाग बाला हिसारहै, जो किले से कई किलोमीटर दूर है. इसके साथ ही किले का वाटर सिस्टम रहबानआकर्षण का मुख्य केंद्र है.
   
अब्दुल हमें आगे लिए चलता है जहां गोलकोंडा किले Golconda Fort के बाहरी तरफ बने हुए दो रंगमंच आकर्षण का मुख्य केंद्र है. यह रंगमंच चट्टानों पर बने हुए है. किले में कला मंदिरभी बना हुआ है. इसे आप राजा के दरबार से भी देख सकते है जो की गोलकोंडा किले की ऊँचाई पर बना हुआ है.
  
एक जगह दीवार को इतनी खूबसूरती के साथ बनाया गया है कि आप दीवार में एक और फुस्फुसाएं तो दूर कि दीवार पर कोई व्यक्ति कान लगा कर उस फुसफुसाहट को सुन  सकता है. मुझे लगता है यहीं से कहावत बनी होगी कि दीवारों के कान भी होते हैं. 

एक बेहतरीन खूबसूरत अनुभव साथ लिए जा रहा हूँ जिसे ता उम्र दिल में संजोये रखूँगा......

-To be continued  

✍️मनमोहन जोशी


शनिवार, 27 अप्रैल 2019

Random Thoughts....




बहुत दिनों के बाद इस प्लेटफार्म पर वापस लौटा हूँ . इन दिनों जीवन इस त्वरा से गतिमान है कि हर एक जगह उपस्थिति दर्ज करवा पाना संभव भी नहीं हो पा रहा है.... ऐसा नहीं है कि इन दिनों लिख पढ़ नहीं रहा हूँ.... लेकिन निजी जीवन के अनुभवों को सार्वजनिक रूप से दर्ज नहीं कर रहा हूँ. 

रविवार कि इस सुबह मोबाइल से दूर चाय के कप और लैपटॉप  के साथ बैठे - बैठे सोच रहा हूँ कि ये जीवन है क्या ?? आम धारणा के अनुसार हमारे जन्म से मृत्यु के बीच तक की कालावधि ही जीवन कहलाती है ? मैं जीवन कि इस परिभाषा से सहमत नहीं हूँ. मेरे देखे जीवन तो वह है जिसमें जीवन्तता हो.

 हमारा जन्म क्या हमारी इच्छा से होता है? नहीं, यह तो प्रकृति की व्यवस्था का ही परिणाम है. लेकिन जन्म के बाद जीवन्तता का होना हमारी इच्छा और बुद्धिमता का ही परिणाम कहा जाना चाहिए. इसके अतिरिक्त जीवन का मुख्य अंग एक चेतन तत्त्व है जो जीवन की सभी क्रियाओं का साक्षी होता है.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जीवन का तात्पर्य अस्तित्व की उस अवस्था से है जिसमे वस्तु या प्राणी के अन्दर चेष्टा, उन्नति और वृद्धि के लक्षण दिखायी दें. अगर कोई वस्तु चेष्टारहित है तो फिर उसे सजीव या जीवनयुक्त नहीं माना जाना चाहिए.

मेरे देखे जीवन का संबंध जीने से है, सिर्फ अस्तित्व का विद्यमान होना ही जीवन का चिन्ह नहीं है.

वैज्ञानिक नियम अनुसार, जीवन जिसमें ब्रह्मांड, आकाश गंगा, सौर मण्डल, ग्रह और तारे हैं.... और जो निरंतर  अंतरिक्ष में गतिमान हैं. आकाश गंगा एक दूसरे का चक्कर लगा रहे है.....तारे आकाशगंगा के केन्द्र का चक्कर लगा रहे हैं तो ग्रह तारों का चक्कर लगा रहे हैं और उपग्रह ग्रह का चक्कर लगा रहे हैं.  ये सब मुझे किसी भ्रम का ही विस्तार मालूम पड़ते हैं.

मेरे देखे मानव मन ही वह अंतरिक्ष है जहां भ्रम का निर्माण होता है इसमें ही ब्रह्मांड समाया हुआ है और हम इस भ्रम को  ही सत्य मान बैठे हैं.

फिर सत्य क्या है?? मेरी समझ में सत्य भी निरपेक्ष नहीं है. हर किसी का अपना अपना सत्य है. हर कोई अपनी समझ को सच मान कर बैठा है और वास्तविक सत्य का किसी को पता ही नहीं या ये कहूं तो बेहतर होगा कि वास्तविक सत्य जैसा कुछ भी विद्यमान नहीं है. या बेहतर परिभाषा हो सकती है कि प्रेम ही सत्य है...

फिर प्रश्न उठता है प्रेम क्या है?? हम जिसे प्रेम समझ कर बैठे हैं वह स्वार्थ का ही तो एक रूप है... हमें प्रेम उससे ही है जो हमारे किसी फायदे का है. लाभ ख़त्म प्रेम ख़त्म।।

 क्या प्रेम भी निरपेक्ष हो सकता है? या यह भी सापेक्ष ही होता है?? क्या हम एक बार जीते हैं एक बार मरते हैं और एक ही बार प्रेम होता है?? मेरे देखे असली प्रेम तो वही है जो किसी चीज़ का मोहताज नहीं.जो फायदे नुकसान के परे हो...क्या ऐसा प्रेम अस्तित्वमान है शायद हाँ लेकिन यह बताने का कम और महसूसने का विषय ज्यादा है. हर किसी के अपने अनुभव हो सकते हैं.. लेकिन समस्याओं का जन्म होता है अपने अनुभव को ही सच मान लेने से.

मेरे देखे हर दिन एक नया जीवन है इसे बेहतर करते जाना ही मानव मात्र का लक्ष्य होना चाहिए.... सोचते रहें... कुछ नया सीखते रहें.... प्रेम बांटते रहें....

-MJ

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

सीखना ही जीवन है।।





आज छिंदवाड़ा से नागपुर जाते हुए बांस के इस वन से जब गुजरना हुआ तो गाड़ी रोक कर इनके साथ समय बिताने से खुद को रोक नहीं पाया।।

घास और बांस दोनों ही हरे होते हैं लेकिन इन दोनों में एक गजब का अंतर होता है।।

घास बहुत जल्दी बढ़ती है और धरती को बहुत ही कम समय में हरा भरा कर देती है , लेकिन बांस का बीज जल्दी नहीं बढ़ता। 

लगभग  पांच साल लगते हैं बांस के बीज से एक छोटा-सा पौधा अंकुरित होने में।

 घास की तुलना में यह बहुत छोटा और कमजोर होता है। लेकिन केवल 6 माह के भीतर ही  यह छोटा-सा पौधा कई फीट लंबा हो जाता है। 

इसका कारण यह है कि पांच सालों में इसकी जड़ इतनी मजबूत हो जाती है यह कि 100 फिट से ऊंचे बांस को संभाल सके।

बांस से हम यह सीख सकते हैं कि जब भी जीवन में संघर्ष करना पड़े तो इसका इतना सा मतलब है कि जड़ मजबूत हो रही है।

 संघर्ष व्यक्तित्व को मजबूती देता है जिससे हम आने वाली सफलता की आंधी को थाम सकें उसका आनंद ले सकें।।


- MJ