नवदम्पति - विवेक और हमारी गुडिया. |
मेरे
ससुराल में श्रीमती की माता जी और छोटी बहन हैं. ससुर जी का निधन 20 वर्ष पहले ही
ब्रेन कैंसर से हो गया था. आज के दौर में जब तथाकथित
समझदार पढ़े लिखे लोग बेटे की चाह में एक के बाद एक बच्चे पैदा करते जा रहे हैं, उस
समय दो- दो लड़कियों के साथ जीवन समर में उतरना कितना कठिन रहा होगा सोचा भी नहीं
जा सकता. लेकिन उन्होंने दोनों ही लड़कियों को उच्च शिक्षा और संस्कार दिए. श्रीमती
जी की छोटी बहन जिसे हम प्यार से गुड़िया कहते हैं (आगे मैं उसे गुडिया ही
लिखूंगा), एम कॉम, बी एड है वो भी फर्स्ट डिवीज़न में.
पिछले वर्ष उसके लिए वर ढूंढने की बात चली और
ज़िम्मेदारी मुझे दी गई. पहला सवाल जो मन में था वो यह कि क्या देखा जाना चाहिए.
सरकारी नौकरी ?? सैलरी ?? खाते - पीते घर का हो और खाता - पीता न हो ???? मेरे देखे ये
सारी बातें गौण हैं. किसी भी स्त्री और पुरुष में गुण और स्वभाव ही मुख्य विषय
वस्तु हैं. वर के रूप में हमारे सामने आये विवेक. एक शांत सुशील नव युवक. MBA, पेशे से
व्यवसायी. एक ऐसा युवा जो अपनी कर्मठता से वायु का रुख मोड़ दे.
मैं और श्रीमती जी एक निश्चित तारीख को छिंदवाड़ा पहुंचे. विवेक के घर गए सभी परिवार वालों से मिले. शाम को हम जाम सांवली पहुंचे. हनुमान जी के दर्शन किये और दिन भर साथ रहने के बाद हमने तय किया कि विवेक हमारी गुडिया के लिए उपयुक्त वर है. वापसी में श्रीमती जी ने कहा, “ क्या आपने पूछा बिज़नेस कैसा चल रहा है ? कितनी आमदनी हो जाती है? वगैरह वगैरह . मैंने कहा था कि लड़का अच्छा है, समझदार है.. उसकी संभावनाएँ अपार हैं. गुडिया विवेक के साथ सुखी रहेगी.
अब हमें लगा की लड़का लड़की एक दुसरे को समझ लें और मन से तैयार हो जाएँ तो शादी की तारिख तय कर ली जाये. उपयुक्त समय पर दोनों की स्वीकृति प्राप्त कर तारीख निकाल ली गई 5 और 6 मार्च 2018 और यहाँ से शुरू हुआ विवाह की तैयारी का सफ़र. 'विवाह' शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है. इसका पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है; जिससे पति-पत्नी के 'स्थायी' संबंध का निर्माण होता है. प्राचीन एवं मध्यकाल के धर्मशास्त्री तथा वर्तमान युग के समाजशास्त्री, समाज द्वारा अनुमोदित, परिवार की स्थापना करनेवाली किसी भी पद्धति को विवाह मानते हैं.
मनुस्मृति में कुल आठ प्रकार के विवाह का वर्णन मिलता है संक्षेप में वे इस प्रकार हैं:
1. ब्रह्म विवाह: दोनो पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से
कन्या का विवाह निश्चित कर देना 'ब्रह्म विवाह'
कहलाता है. सामान्यतः इस विवाह के बाद कन्या को आभूषणयुक्त करके विदा
किया जाता है.
2. दैव विवाह: किसी सेवा कार्य (विशेषतः धार्मिक अनुष्टान) के मूल्य के रूप अपनी कन्या को दान में दे देना 'दैव विवाह' कहलाता है.
3. आर्श विवाह: कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य दे कर (सामान्यतः गौदान करके) कन्या से विवाह कर लेना 'अर्श विवाह' कहलाता है.
4. प्रजापत्य विवाह: कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के वर से कर देना 'प्रजापत्य विवाह' कहलाता है।
5. गंधर्व विवाह:परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना 'गंधर्व विवाह' कहलाता है.
6. असुर विवाह: कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना “असुर विवाह” कहलाता है.
7. राक्षस विवाह: कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना 'राक्षस विवाह' कहलाता है.
8. पिशाच विवाह:कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना और उससे विवाह करना “पिशाच विवाह” कहलाता है। इसमें कन्या के परिजनों की हत्या तक कर दी जाती है.
2. दैव विवाह: किसी सेवा कार्य (विशेषतः धार्मिक अनुष्टान) के मूल्य के रूप अपनी कन्या को दान में दे देना 'दैव विवाह' कहलाता है.
3. आर्श विवाह: कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य दे कर (सामान्यतः गौदान करके) कन्या से विवाह कर लेना 'अर्श विवाह' कहलाता है.
4. प्रजापत्य विवाह: कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के वर से कर देना 'प्रजापत्य विवाह' कहलाता है।
5. गंधर्व विवाह:परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना 'गंधर्व विवाह' कहलाता है.
6. असुर विवाह: कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना “असुर विवाह” कहलाता है.
7. राक्षस विवाह: कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना 'राक्षस विवाह' कहलाता है.
8. पिशाच विवाह:कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना और उससे विवाह करना “पिशाच विवाह” कहलाता है। इसमें कन्या के परिजनों की हत्या तक कर दी जाती है.
19 वीं
शताब्दी में वेखोफन,
मोर्गन तथा मैकलीनान ने विभिन्न प्रमाणों के आधार पर इस मत का
प्रतिपादन किया था कि मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सभी
स्त्री पुरुषों को यथेच्छित कामसुख का अधिकार था. महाभारत में उल्लेख मिलता है कि पांडु
ने अपनी पत्नी कुंती को नियोग के लिए प्रेरित करते हुए पुत्र उत्पन्न करने को कहा
था. उपलब्ध साहित्यों के आधार पर पता चलता है कि भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम
विवाह की मर्यादा स्थापित की.
विवाह को एक धार्मिक संबंध का रूप दिया गया है. वैदिक युग में यज्ञ करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य था, किंतु यज्ञ पत्नी के बिना पूर्ण नहीं हो सकता, अत: विवाह सबके लिए धार्मिक दृष्टि से आवश्यक था. पत्नी शब्द का अर्थ ही यज्ञ में साथ बैठने वाली स्त्री है. मई, 1855 से लागू होनेवाले हिंदू विवाह अधिनियम से पहले हिंदू समाज में धार्मिक संस्कार से संपन्न होने वाला विवाह अविछेद्य था. अर्थात तलाक की व्यवस्था नहीं थी. रोमन कैथोलिक चर्च इसे अब तक ऐसा धार्मिक बंधन मानता है. किंतु औद्योगिक क्रांति के पश्चात धार्मिक विश्वासों में आस्था शिथिल होने से विवाह के धार्मिक पक्ष का महत्व कम होने लगा है.
मेरे देखे विभिन्न देशों और समुदायों में विवाह की विधियों को हम मोटे तौर पर चार भागों में बाँट सकते हैं. पहले वर्ग में उन विधियों को रखा जा सकता है जो परिवर्तन की द्योतक हैं. विवाह में कन्यादान कन्या के पिता से पति के नियंत्रण में जाने की स्थिति को इंगित करता है. इंग्लैंड, पैलेस्टाइन, जावा, चीन में वधू को नए घर की देहली में प्रवेश के समय उठाकर ले जाना वधूद्वारा घर के परिवर्तन को महत्वपूर्ण बनाना है. स्काटलैंड में वधू के पीछे पुराना जूता यह सूचित करने के लिए फेंका जाता है कि अब पिता का उसपर कोई अधिकार नहीं रहा.
दूसरे वर्ग की विधियों का उद्देश्य नव दम्पति के जीवन से दुष्प्रभावों
को दूर करना है. दुष्टात्माओं का निवास अंधकारपूर्ण स्थान माने जाते हैं और विवाह
में अग्नि के प्रयोग से इस अँधेरे का नाश किया जाता है. हमारे
यहाँ विवाह के समय वर द्वारा तलवार धारण करना तथा इंग्लैंड में वधू द्वारा घोड़े
की नाल ले जाने की विधि दुष्टात्माओं या अलाओं बलाओं को दूर रखने के लिए आवश्यक
मानी जाती है.
तीसरे वर्ग में उन विधियों को रख सकते हैं जो उर्वरता की प्रतीक और संतानसमृद्धि की कामना को
सूचित करती हैं. भारत,
चीन, मलाया में वधू पर चावल, अनाज तथा फल डालने की विधियाँ प्रचलित हैं. पूजन
में अक्षत चांवल का प्रयोग इसका ही सूचक है. वधू की गोद में इसी उद्देश्य से लड़का
बैठाया जाता है.
चौथे वर्ग की विधियाँ वर वधू
की एकता और अभिन्नता को सूचित करती हैं. विवाह के दौरान गठबंधन या फेरे इसका ही
प्रतीक हैं.
बहरहाल गुडिया ने डिमांड रखी कि उसे डेस्टिनेशन वेडिंग करनी है. यह
विवाह का नया तरीका है जिसमें वर पक्ष तथा वधु पक्ष किसी रिसोर्ट में इकठ्ठा होते हैं और विवाह के
सभी रस्मों का आनंद लिया जाता है. सबसे पहले मैंने पता किया कि छिन्दवाड़ा में बेस्ट रिसोर्ट कौन सा है ? कुछ एक नाम सामने आये. श्री जी रिसोर्ट देख कर और वहां के विकास चौरसिया जी से मिल कर लगा कि इससे बढ़िया जगह शादी के लिए और कोई नहीं हो सकती. रिसोर्ट बुक कर लिया गया.एक महीने की गहन शॉपिंग के बाद हम सभी तरह से तैयार थे विवाह के लिए.
शुभ मुहूर्त में विवाह कार्यक्रम संपन्न होना था. श्रीमती जी और मुझे
सभी रस्मों में माता पिता की भूमिका निभानी थी. फिलहाल देश की बढती आबादी में
हमारा किसी तरह का योगदान नहीं है लेकिन फिर भी हमारे पास कन्यादान का अवसर होना
बड़ी बात थी. किसी ने कहा, बहुत खुश किस्मत होते हैं वो लोग जिनको कन्या दान का अवसर
प्राप्त होता है. लोग हमारी भूरी- भूरी प्रशंसा कर रहे थे. और हमारा मन उन सभी
मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों के प्रति धन्यवाद से भर गया था जिन्होंने इस
आयोजन को सफल बनाने में महती भूमिका निभाई. शुभ मुहूर्त में विवाह कार्यक्रम
संपन्न हुआ. पंडित जी ने मंगलाष्टक पढ़े :
ॐमत्पंकजविष्टरो हरिहरौ, वायुमर्हेन्द्रोऽनलः।
चन्द्रो भास्कर वित्तपाल वरुण, प्रताधिपादिग्रहाः। प्रद्यम्नो नलकूबरौ
सुरगजः, चिन्तामणिः कौस्तुभः, स्वामी शक्तिधरश्च लांगलधरः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥१॥
गंगा गोमतिगोपतिगर्णपतिः, गोविन्दगोवधर्नौ, गीता गोमयगोरजौ गिरिसुता, गंगाधरो गौतमः। गायत्री गरुडो गदाधरगया, गम्भीरगोदावरी, गन्धवर्ग्रहगोपगोकुलधराः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥२॥
नेत्राणां त्रितयं महत्पशुपतेः अग्नेस्तु पादत्रयं, तत्तद्विष्णुपदत्रयं त्रिभुवने, ख्यातं च रामत्रयम्। गंगावाहपथत्रयं सुविमलं, वेदत्रयं ब्राह्मणम्, संध्यानां त्रितयं द्विजैरभिमतं, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥३॥ बाल्मीकिः सनकः सनन्दनमुनिः, व्यासोवसिष्ठो भृगुः, जाबालिजर्मदग्निरत्रिजनकौ, गर्गोऽ गिरा गौतमः। मान्धाता भरतो नृपश्च सगरो, धन्यो दिलीपो नलः, पुण्यो धमर्सुतो ययातिनहुषौ, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥४॥
गौरी श्रीकुलदेवता च सुभगा, कद्रूसुपणार्शिवाः, सावित्री च सरस्वती च सुरभिः, सत्यव्रतारुन्धती। स्वाहा जाम्बवती च रुक्मभगिनी, दुःस्वप्नविध्वंसिनी, वेला चाम्बुनिधेः समीनमकरा, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥५॥
गंगा सिन्धु सरस्वती च यमुना, गोदावरी नमर्दा, कावेरी सरयू महेन्द्रतनया, चमर्ण्वती वेदिका। शिप्रा वेत्रवती महासुरनदी, ख्याता च या गण्डकी, पूर्णाः पुण्यजलैः समुद्रसहिताः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥६॥
लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुरा, धन्वन्तरिश्चन्द्रमा, गावः कामदुघाः सुरेश्वरगजो, रम्भादिदेवांगनाः। अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनुः, शंखो विषं चाम्बुधे, रतनानीति चतुदर्श प्रतिदिनं, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥७॥
ब्रह्मा वेदपतिः शिवः पशुपतिः, सूयोर् ग्रहाणां पतिः, शुक्रो देवपतिनर्लो नरपतिः, स्कन्दश्च सेनापतिः। विष्णुयर्ज्ञपतियर्मः पितृपतिः, तारापतिश्चन्द्रमा, इत्येते पतयस्सुपणर्सहिताः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥८॥ शुभ मंगल सावधान III
गंगा गोमतिगोपतिगर्णपतिः, गोविन्दगोवधर्नौ, गीता गोमयगोरजौ गिरिसुता, गंगाधरो गौतमः। गायत्री गरुडो गदाधरगया, गम्भीरगोदावरी, गन्धवर्ग्रहगोपगोकुलधराः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥२॥
नेत्राणां त्रितयं महत्पशुपतेः अग्नेस्तु पादत्रयं, तत्तद्विष्णुपदत्रयं त्रिभुवने, ख्यातं च रामत्रयम्। गंगावाहपथत्रयं सुविमलं, वेदत्रयं ब्राह्मणम्, संध्यानां त्रितयं द्विजैरभिमतं, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥३॥ बाल्मीकिः सनकः सनन्दनमुनिः, व्यासोवसिष्ठो भृगुः, जाबालिजर्मदग्निरत्रिजनकौ, गर्गोऽ गिरा गौतमः। मान्धाता भरतो नृपश्च सगरो, धन्यो दिलीपो नलः, पुण्यो धमर्सुतो ययातिनहुषौ, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥४॥
गौरी श्रीकुलदेवता च सुभगा, कद्रूसुपणार्शिवाः, सावित्री च सरस्वती च सुरभिः, सत्यव्रतारुन्धती। स्वाहा जाम्बवती च रुक्मभगिनी, दुःस्वप्नविध्वंसिनी, वेला चाम्बुनिधेः समीनमकरा, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥५॥
गंगा सिन्धु सरस्वती च यमुना, गोदावरी नमर्दा, कावेरी सरयू महेन्द्रतनया, चमर्ण्वती वेदिका। शिप्रा वेत्रवती महासुरनदी, ख्याता च या गण्डकी, पूर्णाः पुण्यजलैः समुद्रसहिताः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥६॥
लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुरा, धन्वन्तरिश्चन्द्रमा, गावः कामदुघाः सुरेश्वरगजो, रम्भादिदेवांगनाः। अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनुः, शंखो विषं चाम्बुधे, रतनानीति चतुदर्श प्रतिदिनं, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥७॥
ब्रह्मा वेदपतिः शिवः पशुपतिः, सूयोर् ग्रहाणां पतिः, शुक्रो देवपतिनर्लो नरपतिः, स्कन्दश्च सेनापतिः। विष्णुयर्ज्ञपतियर्मः पितृपतिः, तारापतिश्चन्द्रमा, इत्येते पतयस्सुपणर्सहिताः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥८॥ शुभ मंगल सावधान III
एक सुखद अनुभूति.
(c) मनमोहन जोशी