Diary Ke Panne

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

अभ्यर्थियों के नाम सन्देश......




प्रिय अभ्यर्थियों,

                 विगत 18 फरवरी को जो कुछ भी घटा वह नया नहीं है. आयोग के प्रश्न पत्र में त्रुटियों का होना और उसके पश्चात आंसर शीट भी त्रुटी पूर्ण होना आयोग की कार्यशैली का हिस्सा है. तो इस बार ऐसा क्या घटा जो गहन चिंता और चिंतन दोनों का ही विषय है?? आयोग ने आपत्तियां मंगाई हैं और उसके साथ ही आपत्ति दर्ज कराने हेतु शुल्क की मांग भी की है. मतलब ये कि आप गलती भी करो और उस पर तुर्रा ये कि गलती करने का इनाम भी पाओ. अगली बार आयोग जान बुझ कर पचास प्रश्न गलत कर देगा और कमाई कई गुना बढ़ जाएगी. ये बात न तो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर खरी उतरती है और न ही सामाजिक न्याय के.

                 इन दिनों, मैं कुछ पारिवारिक समारोहों के चलते व्यस्त चल रहा हूँ. लगातार मुझे विभिन्न माध्यमों से सन्देश प्राप्त हो रहे हैं. अभ्यर्थी पूछ रहे हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए. एक अभ्यर्थी का मेसेज कल रात 9 बजे मैंने देखा. मेसेज का सार यह था कि उसके पिता ने अपना खेत गिरवी रख कर उस इंदौर पढने भेजा था. ऐसे माहोल में वह क्या करे?? उसने मुझे भी झकझोरा है. वह पूछता है कि सर, क्या शिक्षक का धर्म केवल पढ़ा देने भर से पूरा हो जाता है ? क्या विद्यार्थी की लड़ाई में उसे सहभागी नहीं होना चाहिए. आप इस विवाद पर कुछ क्यूँ नहीं कह रहे ?

                तो उन मित्र को और उनके माध्यम से सभी प्रतिभागियों को मैं यह सन्देश देना चाहता हूँ कि मैं आपके साथ खड़ा हूँ. शिक्षक होने से पहले मैं एक रजिस्टर्ड अधिवक्ता हूँ और उससे भी पहले आप सभी का मित्र. मैं इस मुद्दे पर आप सभी की ओर से सुप्रीम कोर्ट तक लड़ने को तैयार हूँ और वो भी नि:शुल्क. मैं किसी संस्था के बैनर के साथ नहीं हूँ. व्यक्तिगत रूप से मैं आपके साथ हूँ.

             अगर आप चाहते हैं कि हम एक पिटीशन लगाएं  (जिसके बिंदु/ कण्डिका हम मिल बैठ कर तय करेंगे), तो इस सन्देश को अधिकतम अभ्यर्थियों तक पहुँचाना आपकी ज़िम्मेदारी है. कमेंट बॉक्स में लिख कर या Connect.mmjoshi @gmail.com  पर आप मुझे अपने सुझाव भेज सकते हैं. आप के कमेंट और ईमेल मुझे संबल देंगे . मुझे यह तय करने में मदद मिलेगी की कहाँ तक ये लड़ाई लड़नी है. लड़नी है भी या नहीं.


  आपका मित्र 
मन मोहन जोशी
   अधिवक्ता

Connect.mmjoshi @gmail.com            

रविवार, 18 फ़रवरी 2018

फेसबुक - समय की बर्बादी??

              
                   
                मेरा पहला सोशल मीडिया अकाउंट ऑरकुट में था. याद आता है 2005 में मैंने ये अकाउंट बनाया था, जिसे कभी भी डिलीट नहीं किया गया. फेसबुक शुरू होने के बाद ऑरकुट की विदाई का दौर आया और 2014 में ऑरकुट बंद कर दिया गया था. ऑरकुट बंद होने के बहुत पहले ही वर्ष 2008-09 में मैंने फेस बुक में प्रवेश किया. वैसे फेसबुक की शुरुआत मार्क ने 2004 में ही कर ली थी. मैं इस तक या ये मुझ तक थोड़ी देर से पहुंचा.
          
              बहरहाल विषय प्रवेश करते हैं. क्या फेसबुक पर होना समय की बर्बादी है?? मैं कुछ गुणी विद्यार्थियों से मिलता हूँ जो ये बताते हैं की हमने सारे सोशल मीडिया एकाउंट्स और मेसेंजर्स अनइंस्टाल्ड कर दिए हैं क्यूंकि इनसे समय बर्बाद होता है. कुछ बुद्धिमान, विद्यार्थियों को ये समझाइश देते हुए भी मिलते हैं की फेसबुक और whatsapp  समय को बर्बाद करते हैं और समय की बर्बादी ही तुम्हारी बर्बादी है.

              एक कहानी याद आ रही है जो सभी ने बचपन में पढ़ी होगी.  एक मुर्ख बन्दर के हाथ में छुरा दे दिया जाता है जिससे वह अपनी गरदन काट लेता है . गलती किसकी है ??  छुरे की ही होगी .... क्या कहा छुरे की गलती नहीं है तो फिर फेसबुक कैसे खराब हुआ. ये तो हम हैं जो किसी चीज़ का उपयोग करते हैं, अच्छा या बुरा. अर्थात यदि हम सही हैं तो ग़लत चीज  का सही उपयोग कर सकते हैं. फिर फेसबुक तो कमाल का प्लेटफार्म है.

             किसी बुद्धिमान ने एक मेसेज भेजा था, “क्या ज़माना आ गया है,फेसबुक पर 5000 मित्र हैं और परिवार में बोलचाल बंद है.” या ऐसी टिप्पणियाँ देखने के लिए मिलती है, “जो लोग सोशल मीडिया पे ज्यादा सोशल हैं वो रियल लाइफ में सोशल नहीं दिखते.” वगैरह – वगैरह. इन टिप्पणियों से लगता है जैसे फेसबुक आने से पहले लोग बहुत सोशल थे. या परिवार मे आपसी लडाइयां नहीं होती थीं. या इन्सान एक दम क्रिएटिव और सोशल था. ऐसा कुछ भी नहीं है. गलत बातें फैलाई जा रही हैं. जो क्रिएटिव है वो हर देश काल में क्रिएटिव है.

             मुझे याद आता है, रिश्तेदारों को समय काटने वाले पत्थर की तरह उपयोग करना मुझे कभी पसंद नहीं रहा. मैं किताबों या कॉमिक्स में ही रमता था. मित्र जिनसे रोज़ मिलना जुलना हो, हमेशा से सीमित मात्रा में रहे (आज भी सीमित मात्रा में ही हैं). पहले मैं पेन फ्रेंड बनता था, बहुत सारे. अब अंतर यह है कि उनकी जगह पहले ऑरकुट फ्रेंड्स ने और अब फेसबुक फ्रेंड्स ने ले लिया है.

              फेसबुक को लेकर एक और बात देखने में आती है, कुछ लोग ख़ास कर लडकियां किसी अपराधिक आशंका के चलते अपना फोटो फेसबुक पर नहीं लगाती हैं . टेडी बेयर या एक टेढ़ा गुलाब का फूल इसकी जगह लगा दिया जाता है. कुछ लड़के और लडकियां जो स्वयं की सूरत को कमतर समझते हैं वो भी किसी और की तस्वीर प्रोफाइल में लगाते हैं.क्या सही है?
             
               मुझे एक रोज़ whatsapp पे मेसेज मिला (कभी आपको भी मिला हो) मेसेज कुछ यूँ था – “यदि आपकी बहन, पत्नी, माँ या किसी महिला रिश्तेदार का फेसबुक प्रोफाइल है तो तुरंत उसमें से उनकी तस्वीर हटा लेने के लिए कहें. क्यूंकि कुछ लोग इन फोटोग्राफ्स का ग़लत उपयोग सॉफ्टवेर के माध्यम से कर रहे हैं.” इस मेसेज को घुमा दो. मैंने उस बन्दे को रिप्लाई किया, - “दोस्त, “ सुषमा स्वराज मेरी रिश्तेदार हैं और दीपिका पादुकोण मेरी मित्र इनके फोटोग्राफ्स कहाँ से हटवा दूं.” उन मित्र का रिप्लाई आज तक नहीं आया. ये वही लोग हैं जो पहले महिलाओं को कहते रहे की तुम्हें घर से नहीं निकलना है या निकलो तो घूंघट या बुर्का डालकर. 

जो लोग अपने आपको कमतर समझकर अपनी फोटो अपलोड नहीं करते उनके लिए तो केवल एक ही सन्देश है , “यू आर द मास्टरपीस क्रिएटेड बाई दी ऑलमाइटी.” उबरो . यदि आप स्वयं का सम्मान नहीं करेंगे तो दूसरा कैसे करेगा.  

                 फेसबुक एक आभासी दुनिया है ऐसा विद्वान कहते हैं. जो लोग इसे रियल मान कर बैठे हैं उन्हें ऐसी बातें करने वाले लोग नहीं भाते. लेकिन जो लोग फेसबुक को आभासी बता रहे हैं उनको भी ये जानना चाहिए की जिस दुनिया में वे हैं वो भी आभासी ही है. पूछिए किसी वेदांती से. तुलसी ने भी लिखा है “जगत सब सपना.” विज्ञान भी अब वहीँ पहुँच गया है . पूछिए किसी क्वांटम फिजिक्स के जानकार से. सब कुछ आभासी है. मायाजाल.  लेकिन मजे की बात ये है की जिसे आप वास्तविक समझ रहे हैं उस दुनिया में जो कुछ भी आप कर रहे हैं उसका लेखा जोखा रखा जा रहा है (एक मान्यता के अनुसार), चित्रगुप्त के द्वारा. और जिसे आप आभासी दुनिया समझ रहे हो वहाँ भी आप जो कुछ कर रहे हैं उसका लेखा-जोखा रखा  जा रहा है . तकनिकी शब्दावली में इसे डिजिटल फुटप्रिंट कहते हैं.

✍️MJ

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

गहन साक्षात्कार.....




                 आधी रात के वक्त बहुत तेज़ गर्मी महसूस होने लगी. मानो सूरज कमरे में घुस आया हो. आँख खोल कर देखा तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था. सिर्फ तेज़ चौंधियाती रौशनी. एक आवाज़ कानों में पड़ी उठो “मन” तुम्हारे प्रश्नों का जवाब देने आया हूँ मैं.

मैं : कौन ??
आवाज़: वही तुम जिसे दिनभर करता , दाता , मालिक , इश्वर या पता नहीं क्या - क्या  कह कर याद करते हो ...

 मैं :
मेरे पास कुछ भी नहीं है पूछने को. अपने उत्तर मैं खुद तलाश लूँगा... अच्छा एक बात बताओ तुम मुझे क्यूँ खोज रहे हो?
आवाज़ : जो मुझे खोजना बंद कर देते हैं , मैं उन्हें खोजने निकलता हूँ.

 मैं :
हर ज़र्रे में किस शान से तू जल्वा-नुमा है, हैरां है मगर अक़्ल के कैसा है तू
, क्या है?*
आवाज़ : अगर तुम्हारी समझ में आ गया तो फिर असीम कैसे रह जाऊँगा.
फिर तो सीमा ही बंध गई.

 मैं :
अच्छा! ढूँढे नहीं मिले हो
, न ढूँढे से कहीं तुम. और फिर ये तमाशा है जहाँ हम हैं वहीं तुम !*
आवाज़: बिलकुल ठीक. अब तुम ठीक ठीक समझ रहे हो.

 मैं :
अच्छा! एक बात तो बताओ – सुकरात को ज़हर क्यूँ दिया ?
आवाज़ : तुमने वकालत क्या कर लिया है , अब तुम
सारी दुनिया की वकालत करोगे... हाँ? तुम्हें एक अवसर मिला है अपने बारे में कुछ जानना चाहते हो तो जान लो या कुछ माँगना हो तो मांग लो. यूँ मेरा वक़्त जाया न करो.
 मैं :
हर बात की शर्त तुम नहीं तय करोगे. मैंने तो तुम्हें बुलाया नहीं. शायद तुम मेरा वक़्त जाया कर रहे हो. और एक बात, मैं औरों के प्रश्न भी पूछूँगा और औरों के लिए भी पूछुंगा.
आवाज़: अच्छा चलो बताओ सुकरात से तुम्हारा क्या लेना देना है ? कितना जानते हो तुम सुकरात के बारे में ? क्या तुमने सुकरात को पूरा पढ़ा भी है?
मैं : सब कुछ तो नहीं, लेकिन हाँ बहुत कुछ.
आवाज़ : समझो..... तुम्हारे देखने में और मेरे देखने में बहुत अंतर है . तुम क्षुद्र को पकड़ते हो और मैं विराट को देखता हूँ . जिसे तुम ज़हर का प्याला कह रहे हो मेरे देखे तो वो अमृत था. और उस एक प्याले से सुकरात ही नही, प्लेटो और अरस्तु भी अमर हो गए.

 मैं :
और जीजस ?? उसे क्यूँ सूली दे दी?
आवाज़ : वो भी अमरत्व का ही मार्ग था .

मैं :
दिल पे हैरत ने अजब रँग जमा रखा है!
एक उलझी हुई तसवीर बना रखा है!
कुछ समझ में नहीं आता के ये चक्कर क्या है
?
खेल क्या तुमने अज़ल से ये रचा रखा है!
रूह को जिस्म के पिंजरे का बनाकर कैदी
उसपे फिर मौत का पहरा भी बिठा रखा है!
ये बुराई
, वो भलाई, ये जहन्नुम, वो बहिश्त
इस उलट-फेर में फ़र्माओ तो क्या रखा है
?*     
आवाज़ : ह्म्म्म

मैं :
बनके रह जाता हूँ तसवीर परेशानी की
ग़ौर से जब भी कभी दुनिया का दर्पन देखूँ
एक ही ख़ाक़ पे फ़ित्रत के तजादात इतने!
इतने हिस्सों में बँटा एक ही आँगन देखूँ!
कहीं ज़हमत की सुलग़ती हुई पत्झड़ का समा
कहीं रहमत के बरसते हुए सावन देखूँ
कहीं फुँकारते दरिया
, कहीं खामोश पहाड़!
कहीं जंगल
, कहीं सहरा, कहीं गुलशन देखूँ
ख़ून रुलाता है ये तक़्सीम का अन्दाज़ मुझे
कोई धनवान यहाँ पर कोई निर्धन देखूँ
कहीं मुरझाए हुए फूल हैं सच्चाई के
और कहीं झूठ के काँटों पे भी जोबन देखूँ!*
आवाज़: एक गहन खामोशी .

मैं :
रात क्या शय है
, सवेरा क्या है?
ये उजाला
, ये अंधेरा क्या है?*
आवाज़: (नाराजगी से) क्या बकवास कर रहे हो??? ये सब मिलकर ही दुनिया बनती है. सब अच्छा अच्छा हो तो अच्छे का पता ही न चले. उजाले को समझने के लिए अँधेरे की ज़रूरत होती है. और अच्छे को समझने के लिए बुरे की.  

मैं :
जो कहता हूँ माना तुम्हें लगता है बुरा सा
फिर भी मुझे तुमसे बहर-हाल है ग़िला सा
हर ज़ुल्म की तौफ़ीक़ है ज़ालिम की विरासत
मज़लूम के हिस्से में तसल्ली न दिलासा
कल ताज सजा देखा था जिस शक़्स के सर पर
है आज उसी शक़्स के हाथों में ही कासा!*
यह क्या है??
आवाज़: इस राज़ से हो सकता नहीं कोई खुलासा.
अब मैं जा रहा हूँ. हो सकता है उत्तरों के साथ जल्द तुम्हें मिलूं. कुछ और कहना चाहते हो?

मैं:
सिर्फ इतना ही कि “जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला**.”  


© मनमोहन जोशी. 


Note: *sher nusrat saab ki qawaali se aur chitr internet se sabhaar.
** nida fazli





रविवार, 11 फ़रवरी 2018

चोला माटी के हे राम......




                   intersteller फिल्म देखते हुए कुछ वर्ष पूर्व पढ़ी एक रिपोर्ट अनायास ही याद आ गयी. उसमें सैन डिएगो के एक खगोल शास्त्री ने कम्प्यूटर सिम्युलेशन के द्वारा सिद्ध किया था कि ब्रह्माण्ड एक अति विशाल मस्तिष्क की तरह काम कर रहा है और बढ़ रहा है. अद्भुत! पर यह विशाल  मस्तिष्क है किसका? क्या हम इसके नन्हे-नन्हें ब्रेन सेल्ज़ हैं जो विशाल मस्तिष्क के हिस्से हैं? अपनी पुस्तक थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग में स्टेफेन हॉकिंग्स ने भी कहा है की ब्रह्माण्ड और मस्तिष्क की संरचना एक समान है ... ऐसा तो नहीं की हम किसी महामानव के मस्तिष्क में ही हैं.

                 बहरहाल थोडा बहुत नाम या पैसा कमाकर अपने आप को महान समझने वाले मनुष्य की औकात क्या है ? मेरे देखे इस अनंत ब्रह्माण्ड में, अस्तित्व के असंख्य रूपों में से एक मनुष्य का भी है. लगभग 1900 वर्षों से वैज्ञानिक विश्व का आकार प्रकार मापने में लगे हुए हैं. सफलता आज तक नहीं मिली, शायद ही आगे मिले. आधुनिक खगोलविज्ञान क्लाडियस टालेमी की देन मानी जाती है. टॉलेमी से सैकड़ों वर्ष पहले आर्यभट्ट कह चुके थे कि सूर्य केंद्र है और पृथ्वी समेत अन्य ग्रह उसके इर्द-गिर्द घूम रहे हैं. नवीन थ्योरी इसे भी गलत सिद्ध कर चुकी है. नवीन सिद्धांत के अनुसार कुछ भी स्थिर नहीं है. सूर्य अपने सौर मंडल के ग्रहों के साथ गतिमान है.
   
               विश्व के निरंतर बढ़ते - फैलते रहने वाले स्वरूप को ब्रह्माण्ड की संज्ञा दी गई है. भारतीय परम्परा के इस शब्द का अर्थ है कि ब्रह्म का स्थूल रूप, विराट शरीर. ब्रह्म शब्द का अर्थ स्वयं भी विराट और वर्धमान है. अंग्रेजी में ब्रह्माण्ड के लिये कॉसमॉस शब्द आता है. जिसका अर्थ है – व्यवस्था. भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित सभी शब्दों का अर्थ निरन्तर बढ़ते, व्यवस्थित रूप से चलते और नियमों से संचालित अस्तित्व है.
 
              माना जाता है कि ब्रम्हांड की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सबसे सुसंगत सिद्धान्त डॉक्टर एलेन संडेज द्वारा दिया गया सिद्धांत है. संडेज के अनुसार विश्व ब्रह्माण्ड का जन्म 120 करोड़ वर्ष पूर्व एक प्रचंड विस्फोट से हुआ. जिसे बिग बेंग कहा जाता है. डॉक्टर संडेज के अनुसार विश्व ब्रह्माण्ड का विस्तार आने वाले 290 करोड़ वर्षों तक निरंतर होता रहेगा. विस्तार में निहित गुरुत्वाकर्षण का नियम अपने आप उस गति को विराम देगा. उसके बाद ब्रहमांड सिकुड़ने लगेगा, इसे ही बिग क्रंच कहा गया है. अर्थात् ब्रह्माण्ड अपने भीतर ही सिमट जायेगा.

                    यदि ब्रह्माण्ड के खरबों वर्षों की आयु के संदर्भ में मनुष्य के आयु की तुलना की जाय तो पता चलता है हम क्षणिक हैं. चलिए मनुष्य की औसत आयु 70 वर्ष मान लेते हैं.  यह 70 वर्ष कालमान के हिसाब से ब्रह्माण्ड वर्ष (480 करोड़ मानवीय वर्ष) के एक सेकेंड का करोड़वाँ हिस्सा होगा. मानव वर्ष की तुलना में यह आयु आँखों से नहीं दिखाई देने वाले सूक्ष्म जन्तुओं की क्षण भर में ही पूर्ण हो जाने वाली कई पीढ़ियों की आयु से भी कम है. अर्थात समय की दृष्टि से मनुष्य एक कोशीय जीव से भी कमतर आयु वाला प्राणी है. है न डरा देने वाला सच.

                     देवदत्त पटनायक जी से सुने एक आख्यान के अनुसार सम्राट विद्युत्सेन पृथ्वी को जीत लेने के बाद “भूवः” और “स्वः” लोक को जीतने के अभियान पर निकले. दोनों लोकों पर विजय प्राप्त करने के बाद वे इंद्र के पास पहुँचे व इंद्रा को तीनों लोकों पर विजय की सूचना दी. कहा विश्व ब्रह्माण्ड में मेरा स्थान सुनिश्चित किया जाये. तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वाला सम्राट शायद ही पहले कभी हुआ है. इंद्र ने कहा कि तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वाले को सुमेरु पर्वत पर अपनी यशोगाथा लिखने का अवसर दिया जाता है. सम्राट विद्युत्सेन आप भी वैसा ही करें. सम्राट घमंड से भरे हुए सुमेरु पर्वत पर यशगाथा लिखने के लिये गये. लाखों योजन क्षेत्र में फैले सुमेरु पर्वत पर विजय गाथा लिखने का अवसर सम्राट के लिये रोमांचित कर देने वाला था. लेकिन यह क्या ? पर्वत का कोई हिस्सा खाली नहीं था. विद्युत्सेन इंद्र से यह पूछने के लिये लौटे कि अपना नाम कहा लिखूँ तो उत्तर था किसी पूर्व चक्रवर्ती दिग्विजय सम्राट का नाम मिटा कर लिख दीजिये. विद्युत सेन चौंके. इंद्र ने उसका समाधान किया संकोच मत कीजिये आपके पहले भी कई राजाओं ने ऐसा ही किया है. आख्यान का अंत राजा विद्युत्सेन का दर्प तिरोहित होने के रूप में होता है और वह वापस चला जाता है. काहे का गुमान काया दो दिन की ( सॉरी क्षण भर की भी नहीं).

बकौल छतीसगढ़ी गीतकार गंगाराम शिवारे :

"चोला माटी के हे राम,
एकर का भरोसा
, चोला माटी के हे रे.

द्रोणा जइसे गुरू चले गे,
करन जइसे दानी संगी
, करन जइसे दानी.
बाली जइसे बीर चले गे
, रावन जस अभिमानी.
चोला माटी के हे राम,
एकर का भरोसा
, चोला माटी के हे रे.

कोनो रिहिस ना कोनो रहय भई आही सब के पारी,
एक दिन आही सब के पारी.
काल कोनो ल छोंड़े नहीं राजा रंक भिखारी,
चोला माटी के हे राम,
एकर का भरोसा
, चोला माटी के हे रे.

भव से पार लगे बर हे ते हरि के नाम सुमर ले संगी,
हरि के नाम सुमर ले.
ये दुनिया माया के रे पगला, जीवन मुक्ती कर ले.
चोला माटी के हे राम,
एकर का भरोसा
, चोला माटी के हे रे. "


(c) मनमोहन जोशी 

बैठे - ठाले - "फ़िल्में और मैं"





                          सिनेमा देखने की शुरुआत कब और कैसे हुई ये तो याद नहीं लेकिन मेरी कई “hobbies” में से एक फ़िल्में देखना भी है जो शायद कम ही लोग जानते हैं. जब हम छोटे थे तो दूरदर्शन का दौर आया. रविवार के दिन हम तैयार होते थे फ़िल्में देखने के लिए. मम्मी कंघी करके, पाउडर लगाकर तैयार कर देती थी. हम भाई पास की ही शॉप से जिसे “हनुमान दुकान” के नाम से जाना जाता था चोकलेट लेकर आते थे और शुरू होता था फिल्मों का दौर. फ़िल्में देखने की कोई चॉइस नहीं होती थी. हम सभी तरह की फ़िल्में देख डालते थे. प्रादेशिक भाषा की फ़िल्में भी... मज़े की बात है दूरदर्शन में प्रादेशिक भाषा की फ़िल्में उसी भाषा के subtitle के साथ आती थीं.
                          
                       फिर वीसीआर और विसीपी  का दौर आया. तीज त्यौहार में हम बड़े भैया के नेतृत्व में पैसे इकठ्ठा करते थे और विडियो केसेट्स किराए पर लाये जाते थे. चाचा जी के पास एक केसेट थी “हर हर महादेव” और पापा ने एक केसेट खरीद रखी थी “रेखा हो रेखा“. दोनों ही केसेट को लगाए बिना सिनेमा देखने के हवन की पूर्णाहूति नहीं होती थी. यही कारण है कि मुझे आज भी रेखा के सभी हिट गाने शब्दशः याद हैं.
                      
                       सिनेमा को देखने का नज़रिया तब डेवेलप हुआ जब हम थिएटर में जाकर सिनेमा देखने लगे. घर आते ही पापा पूछते थे क्या शिक्षा मिली?? अब उन्हें कौन समझाता कि हम तो शिक्षा ग्रहण करने स्कूल जाते हैं. या फिर उन्हें ये भी पूछना चाहिए था बताओ आज स्कूल में मज़ा आया?? बहरहाल संयुक्त परिवार था और सबके अपने प्रश्न होते थे, तो मूवी पूरे ध्यान से देखनी होती थी. मम्मी स्टोरी सुनती थी और बाकी लोग विभिन्न तरह के प्रश्न के उत्तर. जैसे हीरो कौन था ? डायरेक्टर कौन था ? कोई एक गाना सुनाओ आदि. इन सब बातों का प्रभाव यह हुआ की आज भी कोई फिल्म देखते समय सारी चीज़ें अनायास ही याद रह जाती हैं.
                  
                      विवाह के बाद फ़िल्में देखने का क्रम जारी रहा. विवाह के शुरूआती दिनों में मेरे पास टी वी नहीं था तो हम पति पत्नी कोई भी मूवी थिएटर में लगती तो देखने जाते थे. एक लेनेवो का लैपटॉप था जिसमें एंटरटेनमेंट के नाम पर पाईरेटेड डीवीडीस देखी जाती थी. फिर मैंने फुल साइज़ सैमसंग स्मार्ट एल इ डी पर्चेस कर ली. अब हम रोज़ मूवीज देखने लगे. हम दोनों घंटों मूवीज पर बातें कर सकते हैं, विशेषकर हॉलीवुड मूवीज पर.
              
                     याद आता है एक रविवार को हम सुबह नाश्ता करके मूवी देखने बैठे. स्टीवन स्पीलबर्ग की ऑस्कर विनिंग फिल्म “बैक टू द फ्यूचर” जो तीन पार्ट में रिलीज़ हुई है, मैं लेकर आया था. अद्भुत फिल्म है... तीनों ही पार्ट एक दुसरे से इस खूबसूरती से जुड़े हैं की एक साथ तीनों को देखने का ही आनंद है. हम बैक टू बैक तीनों ही पार्ट देख गए. कमाल की अनुभूति .. बेहतरीन अनुभव.
              
                   हॉलीवुड मूवीज को इंग्लिश में ही देखने का अलग मज़ा है.याद आता है- वर्ष 2002 में बड़े भैया के साथ मैं विशाखापत्तनम गया हुआ था वहाँ हमने जगदम्बा टाकीज़ में अर्नाल्ड स्वेज़नेगर की फिल्म कोलेटरल डैमेज इंग्लिश में देखि थी. शायद वही मेरे द्वारा इंग्लिश में देखि गई पहली हॉलीवुड मूवी थी. पिछले वर्ष स्टार सेलेक्ट HD में मूवीज की एक सीरीज आई थी “फिल्म्स टू सी , बिफोर यू डाई” रोज़ रात 9 बजे हम एक बेहतरीन फिल्म देखते.... उन चुनिन्दा फिल्मों में से मेरे कुछ पसंदीदा हैं जिन पर इस ब्लॉग में मैं लिखता रहूँगा.

                  बहरहाल रात के 11 बज गए हैं और मैं देखने जा रहा हूँ  क्रिस्टोफर नोलान की इंटरस्टेलर.......                 

     

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

प्रसंग वश - जाना "राम" का .....





                   तुमने क्या समझा ??? अरे नहीं मैं तो अयोध्या के राजा राम की बात कर रहा हूँ ... कुछ  लोग हैं जो सोचते हैं कि वही इस संसार के केंद्र हैं. यदि मैंने कहीं किसी ब्लॉग में किसी ऐसे किरदार का ज़िक्र किया जिसमें वो अपने आप को फिट पाते हैं, तो टेंशन में आ जाते हैं कि मनमोहन ने हमारे बारे में कैसे लिख दिया?? या कहीं कुछ नहीं लिखूं तो उनको लगता है कि मनमोहन ने हमारा नाम क्यूँ नहीं लिया?? अरे मुर्ख मैं तो प्रसंगवश अपनी बात कहता हूँ. इन बातों का तुमसे कोई लेना देना नहीं. और हाँ यदि  तुम अपने आपको किसी आलेख के सकारात्मक किरदार में पाते हो तो ये तुम्हारे कर्म हैं, यदि नहीं तो कर्मों को ठीक करो. मुझे आलेख ठीक करने की नसीहत मत दो.

                 बहरहाल विषय प्रवेश करते हैं? क्या राम त्रेतायुग में हुए थे? मेरे देखे नहीं.... राम हर देश काल और परिस्थिति में पैदा होते हैं और वनवास हर युग के राम की नियति है... कई बार लक्ष्मण मित्र के रूप में मिलते हैं.  मंथरा और कैकई ज़रूरी नहीं कि राजा की पत्नी और दासी ही हों ये बिज़नस पार्टनर, रिश्तेदार या अन्य रूपों में हो सकते हैं...

                  खैर राम को वनवास क्यूँ हुआ... वैसे राजा दशरथ ने कैकई से  पूछा भी था कि - “ कहु तजि रोषु राम अपराधू । सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू ॥"  गुस्सा छोड़ कर तुम मुझे राम का अपराध बताओ, कैकई. सब लोग तो कहते हैं कि वह साधू है. तुलसी महाराज ने इस बात का वर्णन नहीं किया है कि कैकई ने राम का क्या अपराध बताया था. मुझे लगता है कैकई ने कहा होगा की राम और लक्ष्मण के द्वारा किये जारहे कार्यों के चलते उसकी लोकप्रियता बढती ही जा रही है, बस एक ही समस्या है, राम कहीं भी इंटरव्यू देने जाता है तो आपका और कौशल्या का ही नाम लेता है मेरा नाम नहीं लेता.

                 खैर राम ने साम्राज्य छोड़ कर वन गमन को स्वीकार लिया इसके दो कारण मुझे दीखते हैं:
    
 1. शायद राम ही अयोध्या छोड़ कर जाना चाह रहे थे.
 2. राम को दशरथ से अगाध प्रेम था और वो पिता के आदेश की अवहेलना नहीं करना चाह रहे थे .

वरना किसकी मजाल थी की एक तीर से समुन्दर को सुखा सकने वाले महा प्रतापी को, जो खेल खेल में शिव का धनुष तोड़ दे, को वन जाने का आदेश दे सके.
     
                   एक कारण और लगता है की राम सालाना पारिवारिक क्लेश से तंग आ गए होंगे तभी तो जैसे ही उन्होंने कुछ समय तक अयोध्या से बाहर रहने की बात सुनी, वो आनंद से भर गए. बकौल तुलसी महाराज:
“मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥“

                   अब इस सारे ही प्रसंग में कमाल का किरदार है लक्ष्मण का. लक्ष्मण का किरदार थोडा कम गाया गया है. जितना लक्ष्मण को मैं समझ पाया हूँ. यदि लक्ष्मण से कहा गया होता कि तुम्हें वनवास जाना है तो शायद लक्ष्मण पूछ ही बैठते की महाराज एक से अधिक शादी आपने की है.. साझेदारी की सरकार आप चला रहे हो... बीवियों को आपको खुश करना है. मैं क्यूँ जाऊं. लक्ष्मण विध्वंस मचा देते, प्रलय आ जाता. जैसा कि उन्होंने सीता स्वयंवर के समय राजा जे के सिंह द्वारा ललकारने पर भरे दरबार में कहा था कि पृथ्वी को गेंद भातीं उठा कर फ़ेंक दूँ ऐसा सामर्थ्य है मुझ में. लेकिन वाह रे लक्ष्मण जैसे ही राम ने कहा मैं अयोध्या छोड़ कर यथा शीघ्र चला जाऊँगा... बिना सुख सुविधा के बारे में सोचे लक्ष्मण ने कहा, मैं भी भैया के साथ जा रहा हूँ.... शायद राजा दशरथ ने सोचा भी नहीं था कि ऐसा कुछ हो जाएगा. मेरे देखे सीता को राम ने सारे क्लेश और छिछालेदर से बाहर रखा होगा नहीं तो वो अकेले ही सारे मामले को निपटाने का सामर्थ्य रखती थी. अगाध प्रेम वश वह राम के निर्णय के साथ ही सुख - दुःख की साथी बनी रही.

                     एक प्रसंग और पढने को मिलता है : जब राम को हनुमान की प्रशंशा करनी थी तो उन्होंने कहा था “तुम मोहि प्रिय भरत सम भाई” विद्वानों ने इसका अर्थ लगाया है कि भाइयों में राम को भरत सबसे प्रिय थे इसीलिए उन्होंने हनुमान की तुलना भरत से की है... मेरे देखे श्री राम ने हनुमान की तुलना भरत से केवल इसीलिए की, क्यूंकि लक्ष्मण अतुलनीय हैं. लक्ष्मण के त्याग और प्रेम की तुलना किसी से नहीं की जा सकती.

                      बहरहाल जीवन में जब कभी भी राम बनने का अवसर मिले बनते रहिये... वनवास को सहज आनंद के साथ स्वीकार करिए... क्यूंकि जब राम अयोध्या में थे तो केवल राम थे और जब वनवास से लौटे तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम बन कर लौटे... याद रखने की आवश्यकता है कि वो पत्थर कभी मूर्ति का रूप नहीं ले सकता जो चोटों से डरता हो, वो सोना कभी कुंदन नहीं बनता जो आग में तपना नहीं चाहता और वो लोहा कभी फौलाद नहीं बनता जो अंगारों की तपन नहीं सह सकता.


(
c) मनमोहन जोशी