Diary Ke Panne

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

संसद भ्रमण - संस्मरण - भाग- 2









14 December 2018

एक निजी कार्यक्रम में शामिल होने जबलपुर जा रहा हूँ . ट्रेन में बैठे- लेटे सोचता हूँ कि दिल्ली का यात्रा वृत्तान्त पूरा कर लूं. रोज़ अपनी डायरी में कुछ बातों को नोट करने का फायदा यही होता है की आप उसे कभी भी आलेख या किताब की शक्ल दे सकते हैं.

बहरहाल आज सुबह ही एक स्टूडेंट से बात हुई बोली सर आपने यात्रावृत्तांत तो बहुत बढ़िया लिखा है लेकिन उसमें एक मिस्टेक है. मैंने पूछा वह क्या? बोली हम इंडिया गेट पहले दिन नहीं दुसरे दिन गए थे. प्राउड ऑफ़ यू डिअर. मुझे लगता है स्टूडेंट्स को इतना अधिकार  तो होना ही चाहिए कि वह अपने शिक्षक की गलतियों पर ऊँगली उठा सके. तो, माय डिअर इस ब्लॉग में मैं अपनी गलती सुधार रहा हूँ.

चलिए चलते हैं दिल्ली की यात्रा पर....

 आज 22 नवम्बर का दिन है और हम संसद के भीतर राज्य सभा से निकल कर सेंट्रल हाल की ओर जा रहे हैं.... 21 नवम्बर यानी कल ही हम ट्रेन से दिल्ली आये हैं कुल बीस लोगों का हमारा खूबसूरत कुनबा है माया, अंकिता, परिधि, आयुषी, शमीम, मोनिका, देवेश, अभिषेक, महेंद्र, मनीष, आशा, दीपाली छोटी, प्राची,रीना, दीपाली बड़ी, गोविन्द, निकिता, रिदम, भार्गव साब और मैं.

दिल्ली यात्रा का ये प्लान एक वर्ष पुराना है. भार्गव साब और मैं सुप्रीम कोर्ट के लिए पिछले वर्ष ही प्लान बना चुके थे.. अगर आप न्यायाधीश हैं या रहे हैं या आप रजिस्टर्ड अधिवक्ता हैं तो आप सुप्रीम कोर्ट बिना किसी परेशानी के  घूम सकते हैं. इस वर्ष अक्टूबर के अंत में ये ख्याल आया- क्यूँ न स्टूडेंट्स को भी साथ लिए चलें? अचानक से प्लान बना और कुछ चुनिन्दा स्टूडेंट्स और स्टाफ के साथ हम दिल्ली में हैं.

  दिल्ली आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (National Capital Territory of Delhi) भारत का एक केंद्र-शासित प्रदेश और महानगर है, इसमें नई दिल्ली शामिल है, जो भारत की राजधानी है. राजधानी होने के कारण भारत  की तीनों प्रमुख इकाइयों के मुख्यालय नई दिल्ली और दिल्ली में स्थापित हैं, 1483 वर्ग किलोमीटर में फैला दिल्ली जनसंख्या के आधार पर  भारत का दूसरा सबसे बड़ा महानगर है. यहाँ की आधिकारिक जनसंख्या लगभग 1 करोड़ 70 लाख है. यहाँ बोली जाने वाली मुख्य भाषाएँ - हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और अंग्रेज़ी हैं. इसके दक्षिण पश्चिम में अरावली पहाड़ियां और पूर्व में यमुना नदी है.

दिल्ली भारत के अति प्राचीन नगरों में से एक है. इसके इतिहास का प्रारम्भ सिन्धु घाटी सभ्यता से जुड़ा हुआ है. हरियाणा के आसपास के क्षेत्रों में हुई खुदाई से इस बात के प्रमाण मिले हैं. महाभारत काल में इसका नाम इन्द्रप्रस्थ था. दिल्ली सल्तनत के उत्थान के साथ ही दिल्ली एक प्रमुख राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं वाणिज्यिक शहर के रूप में उभरी. यहाँ कई प्राचीन एवं मध्यकालीन इमारतों तथा उनके अवशेषों को देखा जा सकता हैं. 1639 में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने दिल्ली में ही एक चारदीवारी से घिरे शहर का निर्माण करवाया जो 1779 से 1857 तक मुगल साम्राज्य की राजधानी रही.
18वीं एवं 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग पूरे भारत को अपने कब्जे में ले लिया. इन लोगों ने कोलकाता को अपनी राजधानी बनाया. 1911 में अंग्रेज सरकार ने फैसला किया कि राजधानी को वापस दिल्ली लाया जाए. इसके लिए पुरानी दिल्ली के दक्षिण में एक नए नगर नई दिल्ली का निर्माण प्रारम्भ हुआ. अंग्रेजों से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त कर नई दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया.

इस नगर का नाम "दिल्ली" कैसे पड़ा इसका कोई निश्चित सन्दर्भ नहीं मिलता, लेकिन व्यापक रूप से यह माना गया है कि यह एक प्राचीन राजा "ढिल्लु" से सम्बन्धित है. कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि यह देहली का एक विकृत रूप है, जिसका अर्थ होता है “चौखट”, जो कि इस नगर के सम्भवतः सिन्धु-गंगा भूमि के प्रवेश-द्वार होने का सूचक है. एक और अनुमान के अनुसार इस नगर का प्रारम्भिक नाम "ढिलिका" था. हिन्दी/प्राकृत "ढीली" भी इस क्षेत्र के लिये प्रयोग किया जाता था.

बहरहाल हम कल दिल्ली की कुछ ऐतिहासिक इमारतों और मुख्य इलाकों की सैर करके आज संसद भ्रमण कर रहे हैं, राज्य सभा से वापस आते हुए सेंट्रल हॉल के सामने हुमें कुछ मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं प्रत्येक मूर्ति कोई 12 फीट ऊंची तो होगी. लोक सभा के गलियारे से हमें एक मूर्ती किसकी है यह समझ ही नहीं आ रहा था... स्टूडेंट्स गोविन्द और देवेश ने पूछा और हम सबके लगाए कयास ग़लत साबित हुए. पास जा कर पता चला ये "गोपाल कृष्ण गोखले" जी की प्रतिमा है. जी हाँ वही गोपाल कृष्ण गोखले जिन्हें गाँधी जी ने अपना राजनैतिक गुरु माना था......

अब हम खुमान जी के साथ संसद के उस ऐतिहासिक हिस्से में प्रवेश करने जा रहे हैं जहां भारत की बागडोर अंग्रेजों ने हमारे हाथों में सौंपी थी और जहाँ 14 अगस्त की आधी रात को नेहरु जी ने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया था ,
हमारे गाइड खुमान जी हमें डिटेल में बताते चलते हैं कि सेंट्रल हॉल भारतीय  संसद का एक अहम हिस्‍सा है, इसकी अपनी कुछ खासियतें हैं..... जैसे -
       
       · भारतीय संसद का सेंट्रल हॉल ही वह जगह है जहां पर सन 1947 में अंग्रेजों ने पंडित जवाहर लाल नेहरु को सत्‍ता हस्‍तांतरति की थी.
      ·  देश की संविधान सभा पहली बार नौ दिसंबर 1946 को सेंट्रल हॉल में  मिली और इसके साथ ही यहां पर संविधान के लिखे जाने का काम शुरू हुआ. नौ दिसंबर 1946 से लेकर 26 नवंबर 1949 तक यहीं पर संविधान लिखा गया.
     · सन् 1946 तक संसद के सेंट्रल हॉल का प्रयोग लाइब्रेरी के तौर पर होता था.1946 तक इस हॉल को केंद्रीय संसदीय सभा और कॉउंसिल ऑ‍फ स्‍टेट्स की लाइब्रेरी के तौर पर प्रयोग किया जाता था. इसके बाद इसे फिर से सजाया गया और इसे संसदीय हॉल का रूप दिया गया.
     · वर्तमान में संसद का यह सेंट्रल हॉल वह जगह है जहां पर राज्‍यसभा और लोकसभा के सांसद आपस में मिलते हैं और आपस में अपने विचार साझा करते हैं. 
     · हर नई लोकसभा के गठन के बाद होने वाले पहले संयुक्त सत्र के दौरान इसी हॉल में राष्‍ट्रपति सांसदों संबोधित करते हैं.
     · जिस समय संसद का सत्र चल रहा होता है उस समय भी संसद के सेंट्रल हॉल में ही सांसद इकट्ठा होते हैं और किसी मुद्दे  चर्चा करते हैं.
    · विभिन्न देशों के प्रमुख जैसे राष्‍ट्रपति और प्रधानमंत्री जब भारत के दौरे पर आते हैं, तो इसी हॉल में उनका सम्‍मान किया जाता है.
    · सेंट्रल हॉल, संसद का एक ऐसा हॉल है जो पूरी तरह से सिम्‍यूलेंटेनियस इंटरप्रिटेशन सिस्‍टम से लैस है. इस सिस्‍टम की बदौलत अलग-अलग  भाषा समझने वाले लोग, होने वाले संबोधन को अपनी भाषा में सुन सकते हैं.

इतनी सारी जानकारियों और बेहतरीन व्यवहारिक अनुभवों के साथ हमारे संसद भ्रमण का समापन होता है. हम सब हमारे गाइड और सिक्यूरिटी ऑफिसर खुमान जी को दिल से धन्यवाद देकर विदा लेते हैं. 

 यहाँ से हमारा अगला पड़ाव है  सुप्रीम कोर्ट, तिस हजारी कोर्ट, नेहरु प्लेनेटोरियम और इंडिया गेट .....

क्रमश : 



-मनमोहन जोशी 

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

संसद भ्रमण - एक संस्मरण






आज 20 नवम्बर 2018 का दिन है दोपहर के 3 बज रहे हैं ... मैं इस समय ट्रेन में हूँ. लॉ स्टूडेंट्स के साथ दिल्ली की यात्रा पर हूँ. मेरे साथ कुछ ऑफिस स्टाफ, रिटायर्ड जज लक्ष्मीकांत भार्गव जी, और भारतीय न्याय पालिका के भविष्य, जो भविष्य के न्यायाधीश हैं, सफ़र कर रहे हैं . या यह कहना उचित होगा कि मैं इन सबके साथ सफर कर रहा हूँ.

हमारी प्लानिंग है कि हम भारतीय संसद और सर्वोच्च न्यायपालिका को निकट से देख सकें और बचे हुए समय में दिल्ली भ्रमण करें. मालवा एक्सप्रेस जो इंदौर से 12.45 बचे छूटती है में हम सवार हो गए हैं . ट्रेन में बैठते ही एक हादसा घटा एक बैग में मेरा पैर पड़ा  और उसका लॉक टूट गया  एक धारदार मोटी लोहे की कील मेरे पैंर में घुस गई स्टूडेंट्स की तत्परता से फर्स्ट ऐड उपलब्ध हो सका. मेरे ऑफिस स्टाफ और स्टूडेंट्स इस यात्रा से क्या पाने वाले हैं ये तो राम जाने लेकिन इतना तय है कि मैं इस यात्रा से बहुत कुछ सीखने वाला हूँ.

अकैडमी से हर वर्ष हम स्टूडेंट्स को एजुकेशन टूर्स पर ले जाते रहे हैं लेकिन मैं कभी भी इस टूर का हिस्सा नहीं बन पाता . पता नहीं क्यूँ? लास्ट मूमेंट पर मैं जाना कैंसिल कर देता हूँ. लेकिन इस बार मैं आ ही गया हूँ.

 बहरहाल हम कुछ चुनिन्दा स्टूडेंट्स को ही साथ लेकर आये हैं . कुल 20 लोगों की टीम दो कम्पार्टमेंट में बंटी हुई है. मैं दोपहर की छोटी सी नींद लेने की बाद उस कम्पार्टमेंट में आ गया हूँ जहां भार्गव साब बैठे हुए हैं. वो खाना खा रहे हैं. भार्गव साब एक बेहद बुद्धिमान और उतने ही विनम्र व्यक्ति हैं 70 के पास उम्र पहुँच रही है लेकिन चेहरे पर ज्ञान की चमक देखते ही बनती है. मेरा उनसे कुछ अलग ही तरह का स्नेह है. मैं उनके साथ बैठ जाता हूँ और देखते ही देखते स्टूडेंट्स भी आकर बैठने लग जाते हैं. अंकिता और मोनिका के घर से बहुत कुछ बन कर आया है वो खिलाती जाती हैं. फिर शमीम, परिधि, रिदम, मनीष , गोविन्द और देवेश आ जाते हैं. ज्ञान चर्चा का दौर चलने लगा है कानून से लेकर अध्यात्म तक की बातें...... ये जान कर अच्छा लगता है कि आप विद्वान विद्यार्थियों के शिक्षक हैं.

21-11-2018
सुबह  6:30  बजे ट्रेन दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुँचती है . हमने ट्रैवलर बुक कर ली है जो हमें सीधे होटल तक ले जाती है.

सुबह के 9:30 बज रहे हैं हम दिल्ली भ्रमण को निकल चुके हैं पहले क़ुतुब मीनार , फिर लोटस टेम्पल, फिर लाल किला और इंडिया गेट होते हुए हम शाम को होटल पहुँचते हैं . कुछ स्टूडेंट्स शाम को शॉपिंग करने के लिए जाना चाहते हैं. चोट के कारण मेरी हिम्मत नहीं हो रही. अभिषेक, माया  और महेंद्र सबकी ज़िम्मेदारी लेकर उनके साथ चल देते हैं.

22-11-2018
सुबह नाश्ते के बाद हम सब संसद भवन और सर्वोच्च न्यायलय की विजिट के लिए निकल पड़ते हैं.               

नियत समय पर संसद भवन में ज़रूरी जांच के बाद हमारी एंट्री होती है. 

सिक्यूरिटी ऑफिसर श्री खुमान जी हमारे गाइड हैं. वो हमें बताते चलते हैं कि संसद एक ऐसा स्‍थान है जहाँ राष्‍ट्र के समग्र क्रियाकलापों पर चर्चा होती है और कानूनों का निर्माण होता है. संसद परिसर में बात करना मना है. जैसे ही हम मुख्य द्वार पर पहुँचते हैं मेरी निगाहें एक अद्भुत श्लोक पर पड़ती है:-
“लो ३ कद्धारमपावा ३ र्ण ३३
पश्येम त्वां वयं वेरा ३३३३३
(हुं ३ आ) ३३ ज्या ३ यो ३
आ ३२१११ इति।“

इस श्लोक से मैं परिचित हूँ यह छान्द्योग्योप्निषद से लिया गया है जिसका अर्थ है-
"द्वार खोल दो, लोगों के हित में ,
और दिखा दो झांकी।
जिससे प्राप्ति हो जाए
,
सार्वभौम प्रभुता की।"

भवन में प्रवेश करने के बाद दाहिनी ओर लिफ्ट संख्या 1 के पास हमें लोक सभा की धनुषाकार लॉबी दिखाई पड़ती है. यहाँ से मुड़ते ही सेन्ट्रल हॉल के मार्ग के गुम्बद पर अरबी भाषा का एक उद्धरण दिखाई पड़ता है :-
“इन्नलाहो ला युगय्यरो मा बिकौमिन्।
हत्ता युगय्यरो वा बिन नफसे हुम।।“

इसका  शब्दशः अनुवाद कुछ ऐसा होगा-

"खुदा ने आज तक उस कौम की हालत नहीं बदली,
न हो जिसको ख्याल खुद अपनी हालत बदलने का।" 

संक्षेप में कहूं तो ये बहुत ही खूबसूरत उद्धरण है जिसका अर्थ है कि आप स्वयं ही अपने भाग्य के निर्माता हैं।

हम लोक सभा चैम्बर के भीतर प्रवेश करते हैं जहां खुमान जी हमें उस चैम्बर के कोने कोने के बारे में विस्तार से समझाते हैं. मेरा ध्यान अध्यक्ष के आसन के ऊपर अंकित शब्द पर जाता है. लिखा है : धर्मचक्र-प्रवर्तनाय अर्थात "धर्म परायणता के चक्रावर्तन के लिए".

 हम यहाँ से निकल कर संसद भवन के द्वार संख्या 1 से केन्द्रीय कक्ष की ओर बढ़ते हैं तो उस कक्ष के द्वार के ऊपर अंकित पंचतंत्र के निम्नलिखित संस्कृत श्लोक की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है:-
“अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।“

एक स्टूडेंट के पूछने पर मैं बताता हूँ की यह पंचतंत्र से लिया गया है और इसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह है :-
"यह मेरा है , वह पराया है ,
ऐसा सोचना संकुचित विचार है।
उदारचित्त वालों के लिए ,
सम्पूर्ण विश्व ही परिवार है।"

आगे जाने पर लिफ्ट संख्या 1 के निकटवर्ती गुम्बद पर महाभारत का एक श्लोक अंकित पाता हूँ :-
“न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा,
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्म स नो यत्र न सत्यमस्ति
,
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति।।“

इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
"वह सभा नहीं है जिसमें वृद्ध न हों,
वे वृद्ध नहीं है जो धर्मानुसार न बोलें
,
जहां सत्य न हो वह धर्म नहीं है
,
जिसमें छल हो वह सत्य नहीं है।"

इन सभी श्लोकों और भवन की खूबसुरती के बीच खोया हुआ मैं जब अपने विद्यार्थियों के साथ राज्य सभा भवन में पहुँचता हूँ तो एक खूबसूरत घटना घटती है हमारे ड्रेस कोड (सफ़ेद शर्ट और ब्लैक कोट) को देख कर सिक्यूरिटी ऑफिसर खुमान जी पूछते हैं “फ्रॉम व्हिच डिपार्टमेंट यू आल आर?” मैं कहता हूँ हम लोग कौटिल्य अकैडमी इंदौर से आये हैं.. माय नाम इस मनमोहन जोशी एंड दे आर माय स्टूडेंट्स, प्रिपेयरिंग फॉर जुडिशल सर्विसेज”. वो एक दम जोश से कहते हैं सर हमने आपको you tube पर सुना है. और राज्य सभा में उपस्थित लोगों को वो एकेडमी और इसके कोर्सेज के बारे में बताने लगते हैं. गर्व से सीना फूला हुआ है.

 लेकिन असली गर्व का दिन वह होगा जब इन स्टूडेंट्स में से कोई एक भविष्य में किसी दिन सुप्रीम कोर्ट में शपथ ग्रहण कर रहा होगा या कर रही होगी .........

क्रमश:         

-मनमोहन जोशी          

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

शुभ दीपावली....





 दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों "दीप" अर्थात "दिया" व "आवली" अर्थात "श्रृंखला"  से हुई है. दीपावली को विभिन्न भाषाओं में लगभग मिलते जुलते नामों से जाना जाता है. लेकिन कब इसका अपभ्रंश रूप  दिवालीकब प्रचलित हो गया इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है.

जब हम बच्चे थे तो दीपावली का हमारे लिए मतलब होता था नए कपड़े, पटाखे, मिठाइयां और रंग बिरंगी रौशनियाँ. त्योहार की शुरुआत कई महीनों पहले बाबा(ताऊ जी)  की घोषणा से हो जाती थी वो लगातार सुबह-शाम, तारीख बताते रहते थे कि किस दिन धनतेरस होना है और किस दिन दीपावली.

कक्षा आठ में जाकर जब पहली बार हिंदी और इंग्लिश में दीपावली का निबंध याद किया वो भी बड़े बच्चों का निबंध जो बड़े भैया ने कॉलेज में तैयार किया था उन्होंने हमें याद करवा दिया. अच्छी बात ये रही की इसके बाद फिर कभी दीपावली का निबंध याद करने की ज़रूरत नहीं पड़ी. और हाँ इस त्यौहार के बारे में कई ऐसी जानकारी भी मिली जो साधारण तौर पर इस उम्र के बच्चों को नहीं होती है.

दीपावली का पर्व अंधकार पर प्रकाश के विजय के रूप में मनाया जाता है. लेकिन मेरे देखे अन्धकार और प्रकाश में कोई लड़ाई है ही नहीं. अन्धकार तो केवल प्रकाश का अभाव मात्र है जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं उससे कैसी लड़ाई?? मेरी समझ यह कहती है कि ये अन्धकार और प्रकाश प्रतीकात्मक हैं. यहाँ शायद अज्ञान रुपी अन्धकार और ज्ञान रुपी प्रकाश की बात हो रही है. वैसे तो इन दोनों में भी कोई लड़ाई नहीं है और अज्ञान भी केवल ज्ञान का अभाव मात्र ही है.

हिंदू दर्शन में योग, वेदांत और सांख्य सभी शाखाओं में यह विश्वास है कि इस भौतिक शरीर और मन से परे वहां कुछ है जो शुद्ध अनंत, और शाश्वत है जिसे आत्मन् या आत्मा कहा गया है. दीपावली, बाह्य अंधकार पर आंतरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है.

विभिन्न धर्मों में इस पर्व को मनाने के अपने धार्मिक कारण हैं एक मान्यता के अनुसार कार्तिक अमावस्या को भगवान श्री राम जी चौदह वर्ष का बनवास पूरा कर अयोध्या लौटे थे. अयोध्या वासियों ने अपने आराध्य का स्वागत दीप जलाकर किया था. बाबा तुलसी ने इस दिन का बेहद खूबसूरत वर्णन किया है:-

सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
 चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद॥
अर्थात:- आनन्दकन्द श्री रामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि से छा गया. नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं.

कंचन कलस बिचित्र सँवारे।सबहिं धरे सजि निज निजद्वारे॥
बन्दनवार पताका केतुसबन्हि बनाए मंगल हेतु 
  अर्थात:- सोने के कलशों को विचित्र रीति से सजाकर सब लोगों ने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया. सब लोगों ने बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगाईं.

बीथीं सकल सुगंध सिंचाई।गजमनि रचि बहु चौक पुराईं। 
नाना भाँतिसुमंगल साजे।हरषि नगर निसान बहु बाजे॥ 
अर्थात:- सारी गलियाँ सुगंधित द्रवों से धोई गईं. गजमुक्ताओं से रचकर बहुत सी चौकें पुराई गईं. अनेकों प्रकार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हर्षपूर्वक नगर में बहुत से डंके बजने लगे.
  
एक अद्भुत दोहे में प्रतीकों के माध्यम से बाबा तुलसी लिखते हैं कि ;-
 नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस। 
अस्त भएँबिगसत भईं निरखि राम राकेस॥अर्थात:- स्त्रियाँ कुमुदनी हैं,अयोध्या सरोवर है और श्री राम का विरह सूर्य है अर्थात इस विरह सूर्य के ताप से वे मुरझा गई थीं. अब उस विरह रूपी सूर्य के अस्त होने पर श्री राम रूपी पूर्णचन्द्र को देख कर वे खिल उठीं है.

बहरहाल भारत के कुछ क्षेत्रों में दीपावली के इस पर्व को को यम और नचिकेता की कथा के साथ भी जोड़ा जाता है.यह अद्भुत  कथा कठोपनिषद नामक ग्रन्थ में मिलती है.

सातवीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने इस पर्व का उल्लेख दीपप्रतिपादुत्सव: के नाम से किया है. जिसमें दिये जलाये जाते थे और नव दंपत्ति को उपहार दिए जाते थे.

नवीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इस पर्व को  दीपमालिका कहा है जिसमें घरों की पुताई की जाती थी और तेल के दीयों से रात में घरों, सड़कों और बाजारों सजाया जाता था.

फारसी यात्री और इतिहासकार अलबरुनी, ने भारत पर अपने ग्यारहवीं सदी के संस्मरण में, दीवाली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार वर्णीत किया है.

महाभारत के अनुसार बारह वर्षों के वनवास व एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडव आज ही के दिन वापस लौटे थे अतः उनके वापसी के प्रतीक रूप में दीपावली मनाई जाती है.

फिर एक प्रश्न यह उठता है कि दीपवाली के दिन लक्ष्मी पुजन क्यूँ किया जाता है ?? इसका कारण यह है कि दीपावली के दिन ही पांच दिवसीय सागर मंथन के पश्चात लक्ष्मी जी ने जन्म लिया था. और दीपावली की रात वह क्षण है जब लक्ष्मी जी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे विवाह बंधन में बंधीं अर्थात यह प्रेम दिवस भी है.

आज के दिन लोग लक्ष्मी जी की मूर्ति ला कर उसे घर में स्थापित करते हैं. मेरे देखे हमें विष्णु जी की मूर्ति लाकर उसकी स्थापना करनी चाहिए लक्ष्मी जी तो पीछे पीछे चली आएंगी.

भारत के पूर्वी क्षेत्र उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में लक्ष्मी जी की जगह माँ  काली की पूजा की जाती है और इस त्योहार को काली पूजा कहते हैं.

जैन मतावलंबियों के अनुसार जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर, महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी. इसी दिन उनके प्रथम शिष्य, गौतम गणधर को कैवल्य प्राप्त हुआ था.

सिक्खों के लिए भी आज का दिन महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आज ही के दिन अमृतसर में 1577 को स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था.

बहरहाल केवल मिट्टी के दिए जला देने भर से ही मन का अंधियारा नहीं मिटेगा.. ज्ञान प्राप्ति की ललक जगानी होगी. उद्यम करना होगा धरती पाताल एक कर देना पड़ेगा...

इस दीपावाली मनुष्यता के लिए प्रार्थना करता हूँ कि मनुष्य मन का अँधेरा छंटे और प्रेम का प्रकाश चहूँ  फैले.... नीरज साहब की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं :-

 दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा,
 धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ !
  
 बहुत बार आई-गई यह दिवाली
 मगर तम जहाँ था वहीं पर खड़ा है, बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
 कफन रात का हर चमन पर पड़ा है,
 न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
 ऊषा को जगाओ, निशा को सुलाओ !
  
 दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा
 धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!

  
-मनमोहन जोशी


रविवार, 21 अक्तूबर 2018

प्रेम और स्त्री मन........







आज ट्विटर ओपन किया तो देखा कि प्रिंस हैरी और मेगन मार्कल की फोटो ट्रेंड कर रही है. इसमें प्रिंस हैरी डायस पे खड़े हैं और मेगन छाता लेकर खड़ी हैं. थोड़ा इन्टरनेट खंगालने पर पता चला कि प्रिंस हैरी और उनकी पत्नी मेगन मार्कल हाल ही में न्यू साउथ वेल्स गए थे जहां प्रिंस हैरी स्पीच दे रहे थे और बारिश शुरू हो गई. जहां वो खड़े थे उस जगह पर कोई शेड नहीं था. मेगन छाता लेकर पहुँच जाती हैं और स्पीच ख़त्म होते तक वहीं खड़ी रहती हैं, मुस्कुराती हुई. उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है और विडियो देख कर आपको ये अहसास होगा कि उनको ये करने में आनंद मिल रहा है.

लोग TWEET  करके अपनी ख़ुशी ज़ाहिर कर रहे हैं. कुछ लोगों को आश्चर्य है कि कोई राजघराने की किसी संभ्रांत महीला ने ऐसा पहली बार किया है. मेरे देखे स्त्री मन को समझना कठिन है. वस्तुतः स्त्री प्रेम करती है तो ऐसे ही करती है. पुरुष के प्रेम में ही सभी तरह के गुणा भाग होते हैं. स्त्री तो निस्वार्थ मन से बिना कुछ सोचे कूद पड़ती है प्रेम में, भिड़ जाती है यमराज से, छोड़ देती है महलों का वैभव.
   
प्रेम एक अद्भुत अहसास है, शारीरिक आकर्षण के परे, दिव्य. यह अनेक भावनाओं का एक ऐसा मिश्रण है जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता. कबीर ने इसे गूंगे का गुड़ कहा है. रातों की नीदों का उड़ जाना इसका एक आरंभिक लक्षण है.

प्राचीन ग्रीक लोगों ने चार तरह के प्रेम को पहचाना है. ये हैं - रिश्तेदारी, दोस्ती, वासना और दिव्य प्रेम. प्रेम को अक्सर वासना समझा जाता है या शारीरिक आकर्षण, लेकिन यह एक रसायन है. जिन्होंने अनुभव किया है वह सहमत होंगे क्योंकि यह यंत्र नहीं विलयन है जिसमें द्रष्टा और दृष्टि एक हो जाते हैं. सभी तरह की दुई खो जाती है. मन, शरीर और आत्मा एक हो जाते हैं. कोई मांग नहीं रह जाती.

सूफ़ियों ने इस प्रेम की अनुभूति की है. किसी सूफ़ी फ़क़ीर ने कहा है - तुझ हरजाई की बाँहों में और प्रेम परीत की राहों में / मैं सब कुछ बैठी हार वे.सब कुछ हार देना ही होता है तभी जीत मिलती है. अल्लामा इक़बाल ने कहीं लिखा है कि ये बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है, जो चाहे लगा दो डर कैसा.

तो मेरे देखे ये अनुभूति हर किसी को नहीं होती है. ये किसी  साधारण व्यक्ति का अनुभव नहीं हो सकता. अतीव साहसी लोग जीवन में इसका अनुभव करते हैं. आम लोग तो शारीरिक आकर्षण या मोह या आसक्ति को ही प्रेम मानकर चलते हैं. किसी शायर ने लिखा भी है

इश्क के लिए कुछ ख़ास दिल मखसूस होते हैं,
  ये वो नगमा है जो हर साज़ पे गाया नहीं जाता."

स्त्री स्वाधीन मन के साथ ही जन्म लेती है. आवश्यकता है कि पुरुष और समाज उसकी स्वाधीनता को अक्षुण्ण रहने दें. स्त्री का स्वाधीन मन और समर्पित प्रेम उसे स्वयं परेशानी में रह कर अपने प्रेमी को सुरक्षा प्रदान करने को प्रेरित करता है.

वाल्मीकि रामायण में उल्लेख मिलता है कि सीता, राम के साथ वन जाने की जिद करती है. राम पूछते हैं तुम मेरे साथ वन आकर क्या करोगी? वह कहती हैं – “अग्रतस्ते गमिष्यामि मृद्नन्ती कुशकण्टकान्” अर्थात- "मैं तुम्हारे रास्ते के कुश काँटे रौंदती हुई आगे-आगे चलूँगी."  यही स्त्री का प्रेम है.
    
- मनमोहन जोशी 

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

EAT, PRAY, LOVE.....




एलिज़ाबेथ गिल्बर्ट के  संस्मरणों को पेंगुइन बुक्स ने  Eat, Pray, Love के नाम से 2006 में उपन्यास के रूप में प्रकाशित किया था जो एक बेस्टसेलर बुक है. यदि आप जीवन के अर्थ को तलाश रहे हैं या जीवन में संतुलन को खोज रहे हैं तो तो यह किताब अवश्य पठनीय है. 

इस पुस्तक को पढ़ते हुए यकीन हो चलेगा की आतंरिक ख़ुशी ही सब कुछ है लेकिन वो ख़ुशी है कहाँ ?? समाज में ?? काम में ?? भोग विलास में ?? आध्यात्म में ?? या प्रेम में ??

 इस पुस्तक को रयान मर्फी ने 2010 में फिल्म का रूप दिया. जूलिया रॉबर्ट्स इसमें एलिज़ाबेथ के किरदार में हैं जिनका नाम है “लिज़” अद्भुत किताब पर कमाल की फिल्म है यह. और जूलिया रोबर्ट्स तो हैं ही बेहतरीन.

फिल्म के तीन हिस्से हैं सबसे पहले “ईट” जो की भोग की बात करता है. फिर है “प्रे” जहां भक्ति या आध्यात्म की बात होगी और फिर “लव”, विशुद्ध प्रेम की बात.

 इस कहानी को पढ़ते या देखते समय यकीन मानें आप एक दूसरी ही दुनिया में खो जायेंगे.   

एलिजाबेथ लिखती हैं - हमने अपनी संकुचित मान्यताओं में इश्वर का जो रूप गढ़ा है, शायद ईश्वर उससे कहीं ज्यादा असीम और विशालतम है.

कहानी कुछ ऐसी है कि 34 वर्षीय लिज़ के जीवन में सब ठीक चल रहा होता है. लेकिन वो अपने वर्तमान जीवन से खुश नहीं है और तलाक के बाद पूरा एक वर्ष दुनिया देखने में बीता देती है. शुरू के चार महीने वो इटली में बीताती है भोग विलास में (EAT). इसके बाद तीन महीने भारत में अध्यात्म की तलाश में (PRAY) और फिर वर्ष के अंतिम महीने इंडोनेशिया के बाली द्वीप में दोनों के बीच संतुलन की तलाश में (LOVE).

मानो प्रेम ही भोग और अध्यात्म के बीच का संतुलन हो.
    
 जब वो इटली में होती है तो अपने इटैलियन दोस्त जूलियो से पूछती है कि रोम का उद्देश्य क्या है तो वह कहता है भोग और केवल भोग. जब वो उससे पूछता है कि तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या है? वो कहती है - मैं अभी तो नहीं जानती, लेकिन मुझे महसूस हो रहा है कि मेरा उद्देश्य जल्द ही मेरे सामने आएगा, और जब आएगा तो मैं पहचान लूंगी.

एक रोज़ वह योग पर एक पुराना लेख पढ़ रही होती है. तब उसे संस्कृत शब्द “अंतेवासिन” मिलता है जिसका अर्थ है: " वो जो सीमा पर गुरु के समीप रहता है." यह उस व्यक्ति की ओर इशारा करता है जिसने सांसारिक जीवन के दौड़-धूप को छोड़ दिया है और नगर की सीमा पर वन के समीप जाकर रहने लगा है. न तो वह पूरी तरह से सन्यासी है और न ही संसारी.
  
उसे उसके जीवन का उद्देश्य मिल जाता है. प्रेम में उसने भोग और अध्यात्म के संतुलन को पा लिया है.... वस्तुतः लिज़ एक अंतेवासिन ही है. जो अंतराल में  ठहर गई है.... प्रेम के अद्भुत, खूबसूरत और डरावने वन के समीप लगातार बदलती सीमा पर एक विद्यार्थी के रूप में...
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           - मनमोहन जोशी  

रविवार, 14 अक्तूबर 2018

दिशा हारा केमोन बोका मोंटा रे ......




संगीत मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा रहा है. जीवन के एक दौर में मैं चौबीसों घंटे संगीत में ही रमता था जटिल राग गायन , बेहतरीन बंदिशें , ग़ज़ल , दादरा, ठुमरी, टप्पा , ख्याल और तराना इन सबको बेहद करीब से देखा, सुना और समझा है.

वैसे तो कहा जाता है कि “म्यूजिक हेज़ नो लैंग्वेज” लेकिन फिर भी मुझे  लगता है कि अगर राग, ताल और शब्दों की समझ हो तो आनंद कई गुना हो जाता है. कई बार इन बारीकियों में उलझने का मन नहीं होता तो कोई ऐसी भाषा का गाना उठा लेता हूँ जो मुझे समझ नहीं आता लेकिन फिर जुट जाता हूँ उस भाषा के शब्दों को समझने और संगीत की बारीकियों को जानने में.

मैं एक डाइवर्सिफाइड लिसनर हूँ कुछ भी  सकता हूँ बस दिल तक उतरना चाहिए... तमिल और तेलुगु मुझे नहीं आती लेकिन इल्या राजा और रहमान की तेलुगु कम्पोजीशन मज़े से सुन सकता हूँ और यहाँ आकर यह धारणा ठीक मालूम पड़ती हैं की “म्यूजिक हेज़ नो लैंग्वेज”.

एक घटना याद आती है – मैं और मित्र सुनील तिवारी एक यात्रा पर थे. जिस शहर हम पहुँचने वाले थे वहां एक पत्रकार मित्र नौशाद खान हमारा इंतज़ार कर रहे थे लंच के लिए. हम जैसे ही शहर में इंटर हुए वो मित्र हमें चौराहे पर ही दिख गए अपनी बाइक के पास खड़े हुए. कार मैं ड्राइव कर रहा था और किशोरी अमोनकर की आवाज में श्री गणेश अथर्व शीर्ष का पाठ चल रहा था (कभी समय निकाल कर किशोरी अमोणकर को सुनिए आवाज़ दिल को चीरती हुई पार निकल जाएगी आत्मा के, कभी किशोरी पर भी कुछ लिखूंगा). मित्र सुनील जी ने कहा अरे इसे बंद कर दो वो आ रहा है भाई, अच्छा नहीं मालूम पड़ता. लेकिन मैं भी कहाँ मानने वाला था मैंने और वॉल्यूम तेज़ कर दी. क्या संगीत का भी कोई जाती, धर्म होता है?? मेरे देखे तो नहीं?? नौशाद जी आकर गाडी में बैठ गए कुछ देर में अथर्व शीर्ष का पाठ ख़त्म हुआ और जो अगला गाना मेरे खजाने से निकल कर बजा वह नुसरत साहब का गाया नात था बोल थे अल्लाहू -अल्लाहू –अल्लाहू.

 तो मेरे सुनने का कोई पैटर्न नहीं है मैं रिहाना से लेकर एड शीरन तक को सूनता हूँ और स्वानंद किरकिरे से लेकर पंडित कुमार गन्धर्व तक को. मेरे देखे किसी गाने या संगीत में उतर जाने के दो तरीके हैं एक हेड फ़ोन ऑन कर लीजिये और दूसरा कार में सुनिए. हेड फ़ोन में भी मेरे देखे सोनी का हेड फ़ोन सबसे शानदार अनुभव देता है.                     

आजकल मैं एड शीरन के गाने सुन रहा हूँ वैसे तो उनका गाया शेप ऑफ़ यू बहुत फेमस हुआ है लेकिन उनके गाये सारे गाने बेहतरीन हैं “परफेक्ट” सुन कर देखें. मेरे आल टाइम पसंदीदा गानों की लिस्ट बहुत लम्बी है लेकिन स्वानंद किरकिरे के गाए गाने अद्भुत हैं. अपने आप में एक फलसफा लिए उनकी लेखनी और आवाज़ आपको दूसरी दुनिया में ले जाते हैं. जैसे लूटेरा फिल्म ( यह ओ हेनरी के उपन्यास पर आधारित है,कभी इस पर भी कुछ लिखूंगा)  का एक गाना है मोंटा रे...  अमिताभ भट्टाचार्य और स्वानंद किरकिरे ने अपनी आवाज़ दी है और शब्द भी अमिताभ भटाचार्य के ही हैं जिसमें वो बीच बीच में बांग्ला के शब्द भी पिरो देते हैं जिसके कारण गीत और भी मधुर मालूम पड़ता है शब्द हैं -

कागज़ के दो पंख ले के उड़ा चला जाये रे
जहां नहीं जाना था ये वहीं चला हाये रे
उमर का ये ताना बाना समझ ना पाए रे
जुबां पे जो मोह माया नमक लगाये रे
के देखे ना भाले ना जाने ना दाये रे
“दिशा हारा केमोन बोका मोंटा रे”

“दिशा हारा” का अर्थ है भटका हुआ, “केमोन” मतलब किधर चला और “मोंटा रे” का अर्थ है मन रे. गीत कार अपने मन से बात कर रहा है की कागज़ के पंख लेके तू कहाँ भटक रहा है? बुद्धि कहती है जिधर नहीं जाना उधर क्यूँ जाता है?? पूरा गीत सुनें. एक -एक अंतरे पर एक ब्लॉग लिखा जा सकता है, अद्भुत !!   

इसी ज़मीन पर स्वानंद किरकिरे ने फिल्म हजारों ख्वाहिशें ऐसी में एक खूबसूरत गीत लिखा और गाया है बोल हैं -

बावरा मन देखने चला एक सपना
बावरे से मन की देखो बावरी हैं बातें
बावरी सी धड़कने हैं बावरी हैं साँसें
बावरी सी करवटों से निंदिया दूर भागे

सुनें इन बेहतरीन नगमों को और करें आज अपने बावरे मन से कुछ बावरी सी बातें... कौन कहता है आजकल अच्छे गाने नहीं बन रहे या नहीं गाये जा रहे.

-मनमोहन जोशी