Diary Ke Panne

रविवार, 24 जून 2018

झींगुर गान ......







             पिछले कुछ दिनों से हमारे घर एक महान संगीतज्ञ ठहरे हुए हैं. श्रीमती जी कहती हैं उसे भगाओ या मार डालो. मैं कहता हूँ ये पर्यावरण जितना हमारा है उतना ही उसका भी और वैसे भी उसके होने से कोई नुकसान नहीं. और फिर वो रात भर संगीत परफोर्मेंस दे रहा है वो भी फ्री ऑफ़ कास्ट. ये संगीतज्ञ महाशय हैं झींगुर.
  
            झींगुर द्वारा उत्पन्न संगीत को ही झींगुर गान कहते हैं . झींगुर गानशब्द का उपयोग हमेशा किसी कर्कश ध्वनि के सम्बन्ध में मुहावरे के रूप में भी किया जाता है. या ऐसे व्यक्तियों के लिए भी जो अनर्गल बात करते रहते हैं, कहा जाता है, झींगुर गानहो रहा है.

           बहरहाल झींगुर एक बरसाती कीट है जो महान संगीतज्ञ कीटों की श्रेणी में आते हैं. झींगुरों द्वारा संगीत उत्पन्न करने की इस प्रक्रिया को स्ट्रिडुलेशनकहा जाता है. इन्हें एक और करामात आती है जिसे वेन्ट्रीलोक्विजमकहते हैं. यह एक ऐसी आश्चर्यजनक क्षमता है जिससे आवाज को उसके निकलने के मूल स्थान के बजाय किसी और स्थान से निकलने का आभास होता है. यही कारण है कि जब भी कोई झींगुर आवाजें निकाल रहा हो तो उसे आसानी से ढूंढ नहीं सकते क्योंकि आवाज कहीं और से निकलती मालूम पड़ती है.


           झींगुर की ही तरह अन्य बहुत से कीट, संगीतज्ञ होते हैं. कीट वाणीहीन होते हैं, इसलिए इनका संगीत वाद्य संगीत होता है. इसे नाद संगीत भी कहते हैं. नाद का शाब्दिक अर्थ होता है ध्वनि या आवाज. संगीत के आचार्यों के अनुसार अग्नि और वायु  के संयोग से नाद उत्पन्न होता है.  जहाँ प्राण (वायु) की स्थिति रहती है उसे ब्रह्मग्रंथि कहते हैं. संगीतदर्पण में लिखा है कि आत्मा के द्वरा प्रेरित होकर चित्त शरीर की  अग्नि पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्म ग्रंथि  में स्थित प्राण को प्रेरित करती है. अग्नि द्वारा प्रेरित प्राण फिर ऊपर चढ़ने लगता है इससे ही नाद की उत्पत्ति होती है. संगीत दामोदर में नाद तीन प्रकार का माना गया हैप्राणिभव, अप्राणिभव और उभयसंभव. जो अंगों से उत्पन्न किया जाता है वह प्राणिभव, जो वीणा, सितार , संतूर  आदि वाद्यों से निकलता है वह अप्राणिभव और जो बाँसुरी, सेक्सोफोन, क्लार्नेट जैसे वाद्यों  से निकाला जाता है वह उभय-संभव कहलाता है .  फिर ये कौन सा नाद है जो झींगुर बजा रहा है?? कहाँ से सीखा होगा इसने??? कौन है इसका गुरु?? हमें ही क्यूँ सुना रहा है ???

           विज्ञान की पड़ताल करें तो पता चलता है, ये कीट केवल प्रौढ़ावस्था में पहुँच कर ही संगीतज्ञ  होते हैं. प्राय: नर कीट ही संभवत: मादा को आकर्षित करने के लिए या शत्रुओं को खुद से दूर रखने के लिए संगीत उत्पन्न करते हैं. संगीत उत्पन्न करने की दो विधियाँ है. एक भाग को दूसरे भाग पर रगड़कर ध्वनि उत्पन्न की जाती है या   शरीर किसी अंग को सिकोड़कर और और छोड़कर कम्पन्न उत्पन्न किया जाता है. झींगुर, कीटों के ऑर्केस्ट्रा का एक महत्वपूर्ण सदस्य है जो अपने आगे के आरीनुमा पंखों को रगड़ कर ( वायलिन बजाने की तरह ) यह संगीत उत्पन्न करते हैं.


एक कहानी मैंने कभी सुनी  थी जो कुछ ऐसी है:

मुंबई के ट्रैफिक वाले इलाके में दो मित्र घूम रहे थे. शाम का वक़्त था और भीड़ ज्यादा थी. चारों ओर से गाड़ियों के हॉर्न, ब्रेक, सायरन की आवाजें आ रहीं थीं. साथ चलते हुए व्यक्ति की बातें सुन पाना भी मुश्किल लग रहा था.
  
ऐसे में एक  मित्र ने  पूछा – “तुम्हें झींगुर की आवाज़ सुनाई दी?”

दूसरा – “कैसी बात करते हो! इतने शोरगुल में तुम्हें झींगुर की आवाज़ सुनाई दे रही है!

मैं यकीन से कह सकता हूँ कि मैंने झींगुर की आवाज़ सुनी है.

तुम्हारे कान खराब हो गए हैं” – मित्र ने कहा.

पहला मित्र एक पल के लिए रूका . फिर वह सड़क के पार एक दूकान के पास गया जहाँ कुछ पौधे उगे हुए थे. उसने उन  पौधों के आगे-पीछे देखा और उसे एक छोटा सा झींगुर दिखाई दिया. दूसरा मित्र यह देखकर अचंभित था.

कमाल की बात है!” – मित्र ने कहा – “तुम्हारे कान तो बिलकुल कुत्ते के कानों की तरह हैं!

नहीं यार!” – पहला मित्र बोला – “मेरे कानों में और तुम्हारे कानों में कोई अंतर नहीं है! असल में जो कुछ हम सुनना चाहते  हैं हमें वही सुनाई देता है”. देखो, मैं तुम्हें बतलाता हूँ कैसे”.

उसने अपनी जेब से दो सिक्के निकाले और उन्हें फूटपाथ पर गिरा दिया. उन्होंने देखा कि चारों ओर जारी शोर के बावजूद फूटपाथ पर करीब चल रहे लगभग हर व्यक्ति ने ठिठककर देखा कि कहीं उनके सिक्के तो नहीं गिर गए हैं.


जावेद अख्तर याद आते हैं :

आवारा भँवरे जो हौले हौले गाये
फूलों के तन पे हवाएं सरसराएं

कोयल की कुहू कुहू
पपीहे की पिहू पिहू
जंगल में झींगुर की झाँय झाँय
नदिया में लहरें आयें
बलखायें छलकी जायें
भीगी होंठों से वो गुनगुनाएं

रात जो आये तो सन्नाटा छाये तो
टिक-टिक करे घड़ी, सुनो
दूर कहीं गुज़रे रेल किसी पुल पे
गूँजे धड़धड़ी, सुनो
संगीत है ये, संगीत है
मन का संगीत सुनो

-       - मनमोहन जोशी

21 जून - योग दिवस


बुधवार, 13 जून 2018

लद्दाख में अंतिम दिन ...




पत्थर साहिब गुरुद्वारा 


                              आज 30 मई है. लद्दाख की धरती पर हमारा अंतिम दिन. यहाँ आने पर यह अहसास हुआ कि सिर्फ समुद्र तट को छोड़ दें तो प्रकृति ने इस जगह को हर खूबसूरती दी है. कहीं बर्फीली घाटियों से ढंके पहाड़ हैं तो कहीं  हरियाली चुनर ओढ़े धरती. प्रत्येक दस किलोमीटर के बाद दृश्य बदल जाता है. भूरे, बंजर, पत्थरों से पटी विशाल पर्वत श्रृंखलाएं, हजारों फीट की ऊंचाई वाले पर्वतों के बीच बेहद खूबसूरत घाटियां, कल-कल बहते ठंडे पहाड़ी झरने, कांच की तरह साफ और मटमैली दोनों तरह की नदियां,  रेगिस्तान की तरह बिछी रेत, पठार और पठारों पर खूबसूरत झील, रंग बदलते पहाड़, सर्पीले घुमावदार रास्ते ये सब कुदरत की खूबसूरत कारीगरी है, जो यहाँ यत्र-तत्र देखने को मिलती है. अद्भुत... अविस्मरणीय... अप्रतिम... सौंदर्य से भरपूर... इतनी सारी विविधता अपने विशाल आंचल में समेटे ये क्षेत्र है लद्दाख.

                              बहरहाल आज हम ज़न्स्कार नदी में रिवर राफ्टिंग के रोमांच का अनुभव कर आगे चल पड़ते हैं, पत्थर साहिब गुरूद्वारे की ओर. लेह से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है पत्थर साहिब गुरुद्वारा. इस गुरुद्वारे पर एक पत्थर रखा है जिसमें एक इंसानी आकृति और एक पैंर का निशान साफ दिखाई पड़ता है. माना जाता है की गुरुनानक जी जब इस क्षेत्र में आये थे तो उनपर किसी राक्षस ने पहाड़ से एक विशाल पत्थर लुढका दिया था जो उनसे टकराते ही मोम की तरह मुलायम हो गया. जब राक्षस ने उस पर पांव रखा तो उसका पैंर भी उस पर धंस गया. पत्थर पर बनी मनुष्य की आकृति बाबा नानक की है और पैंर की आकृति राक्षस की है.

                           गुरू नानक सिखों के प्रथम गुरु हैं. इन्हें गुरु नानक, गुरु नानक देव जी, बाबा नानक और नानक शाह नामों से संबोधित किया जाता है.  लद्दाख में लोग इन्हें नानक लामा कहते हैं.  गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक व कवि थे.

                             हम सब गुरूद्वारे पर मत्था टेक कर पवित्र पत्थर के दर्शन करते हैं. दर्शन के बाद मेरा प्रिय कडाह प्रसाद लेकर हम बाहर आते हैं. बाहर आने पर पता चलता है की यहाँ एक चौबीसों घंटे का लंगर चल रहा है. यहाँ लंगर में गरमा गरम  चाय और टोस्ट बांटी जा रही है. हम लंगर चख कर बाहर आ जाते हैं.  ऐसा माना जाता है कि एक बार बाबा नानक को उनके पिता ने व्यापार करने के लिए कुछ पैसे दिए और कहा कि वो बाज़ार से सौदा करके कुछ लाभ कमा लाये. नानक देव जी इन पैसों को लेकर जा ही रहे थे कि उन्होंने कुछ भिखारियों और भूखों को देखा, उन्होंने वो पैसे भूखों को खिलाने में खर्च कर दिए और खाली हाथ घर लौट आये. नानक जी की इस हरकत से उनके पिता बहुत नाराज़ हुए. सफ़ाई में बाबा नानक ने कहा कि सच्चा लाभ तो सेवा करने में है. और इस तरह लंगर की शुरुआत हुई. नत मस्तक हूँ सिक्ख भाइयों के इस व्यवहार के प्रति. इस दुरूह क्षेत्र में भी जिस सेवा भाव से ये काम कर रहे हैं वो तो बस कमाल ही है.

                           शाम के 6:00  बज रहे हैं. हम लोग लेह मार्केट में हैं. सोच रहे हैं कुछ शौपिंग कर लें. यहाँ सब कुछ महंगा है. महंगाई का कारण यह है कि यहाँ केवल तीन महीने ही टूरिस्ट आते हैं. यही यहाँ के व्यापारियों के कमाने का सीजन है. दो घंटे की शॉपिंग के बाद हम होटल वापस आ गए हैं. श्रीमती जी और मैं सामानों की पैकिंग करते हुए बात कर रहे हैं कि जीवन में एक बार हर किसी को लद्दाख की यात्रा करनी ही चाहिए. अगर किसी ने लद्दाख नहीं देखा तो फिर क्या देखा???              

-       - मन मोहन जोशी

रविवार, 10 जून 2018

रिवर राफ्टिंग – एक रोमांचक अनुभव






                                                               



                         आज 30 मई है. रात्री सोने से पहले हम मित्रों ने यह डिसाईड किया था की सुबह देर से चलेंगे घुमने. हम लद्दाख की राजधानी लेह में हैं . हमारा सफ़र रोज़ सुबह नाश्ता करने के बाद 8 – 8:30 बजे शुरू हो जाता है. सुबह के 4:00 बज रहे हैं. हैवी ब्रीदिंग के कारण नींद खुल गई है. इन्हेलर से सांस लेने की कोशिश करता हूँ. एक तो ऊंचाई के कारण ऑक्सीजन की कमी है और दुसरे ज़ुकाम के कारण नाक बंद हो रही है.

                      6:00 बज रहे हैं. नींद पूरी तरह से खुल चुकी है. फ्रेश होकर नीचे आ जाता हूँ. बहुत ही ज्यादा ठण्ड है. आज घुमने की जगहों में से दो बहुत ही खास जगह हैं. पहला पत्थर साहिब गुरुद्वारा और दूसरा ज़न्स्कार रिवर. वापसी में लेह मार्केट से शौपिंग करते हुए आने की प्लानिंग है. कल सुबह हमें वापसी की फ्लाइट पकड़नी है.

                    सुबह के 8:00 बज रहे हैं. राहुल से चाय मंगवाता हूँ. धुप में बैठ कर चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहा हूँ. गेल्सन आ गया है. गेल्सन हमारा गाइड है. पूछता हूँ आज बाइक्स कितने बजे तक आएँगी. वो कहता है आज 9:00 बजे का बोला है. 

                 8:30 बजे गाड़ियां आ जाती हैं. मैं चाबी और ज़रूरी दस्तावेज रिसीव करता हूँ. रिसेप्शन में डोल्मा से जानकारी मिलती है कि रूम नंबर 103 में एक डॉक्टर ठहरे हैं. उनसे मिलता हूँ डॉक्टर दिल्ली के रहने वाले हैं. वो मुझे कुछ ज़रूरी दवाइयां देते हैं.

                9:15  हो रहे हैं. हम सब तैयार हैं. ज़ुकाम होने के बावजूद मैं कहता हूँ कि मैं ज़न्स्कार में रिवर राफ्टिंग भी करूँगा आप में से कौन- कौन तैयार हैं?? ये जानते हुए भी कि वहां का पानी बर्फीला है सभी हामी भरते हैं. मित्र राजीव जी और उनकी फॅमिली ने कभी रिवर राफ्टिंग नहीं की है जबकि मित्र राजेश और उनकी वाइफ पहले रिवर राफ्टिंग कर चुके हैं.

                हम अपने - अपने बाइक पर सवार हो कर चल देते हैं लद्दाख की घुमावदार सड़कों पर ठंडी हवा के झोंकों से बातें करते हुए. हमारे साथ गेल्सन सारा ज़रूरी सामान ट्रैवलर में लेकर आगे चल रहा है. लगभाग 1 घंटे की राइड के बाद हम एक जगह पहुँचते हैं. यहाँ हमें रिवर राफ्टिंग के लिए अपनी टिकट्स लेनी है और वार्म सूट पहन कर चौदह किलोमीटर दूर राफ्टिंग के लिए, "बिगिनिंग पॉइंट" पर पहुंचना है. 

               हम सब कपड़े बदलकर वार्म सूट पहन लेते हैं. ज़न्स्कार नदी में ग्लेशियर का पानी आता है जो बहुत ही ठंडा होता है इसलिए वार्म सूट पहनना आवश्यक है.  रिवर राफ्टिंग से पहले हमें ट्रेनिंग दी जाती है. एक बार पहले मैं और श्रीमती जी ब्यास नदी में रिवर राफ्टिंग की ट्रेनिंग ले चुके हैं. लगता है यहाँ का अनुभव कुछ अलग होने वाला है. वहाँ हमारे हाथों में पतवार नहीं थी. लेकिन यहाँ दी जा रही है. 

               रिवर राफ्टिंग की कुछ विशेष टर्मिनोलॉजी होती है जिसे तुरंत याद करना होता है. क्यूंकि गाइड लगातार कमांड देता है जिसे हर एक को फॉलो करना ज़रूरी है. ये एक खतरनाक स्पोर्ट्स है लेकिन मुझे बहुत ही पसंद है. भारत में इसकी शुरुआत कुछ 15 वर्ष पहले ही हुई है. हाल के कुछ वर्षों में रिवर राफ्टिंग ने खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है. ऋषिकेष के पास गंगा नदी, लद्दाख में सिंध और ज़न्स्कार नदी, सिक्किम में तीस्ता, हिमाचल में ब्यास नदी और उत्तराखंड में अलकनंदा नदी आदि कुछ ऐसे स्थान हैं जहां इस रोमांचक लेकिन खतरनाक खेल का आनंद लिया जा सकता है.

                राफ्टिंग आउटडोर मनोरंजक गतिविधि है जिसमें एक हवा वाले बेड़े का उपयोग कर नदी में नेविगेट किया जाता है.  यह अक्सर किसी साफ और उथले पानी वाली जगह पर किया जाता है. आम तौर पर इस खेल में  भाग लेने वालों के लिए एक नया और चुनौतीपूर्ण अनुभव होता है. जोखिम से निपटने और टीम वर्क की जरूरत इस खेल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. अंतरराष्ट्रीय राफ्टिंग संघ, जो आईआरएफ के नाम से दुनिया भर में जाना जाता है, इस खेल के सभी पहलुओं की देखरेख करता है.

                 बहरहाल राफ्टिंग से पहले गाइड की बातों को ध्यान से सुनना और गाइड के दिशा- निर्देशों का पालन करना बहुत ही ज़रूरी है. प्रॉपर ट्रेनिंग के बाद हम अपनी हवा भरी डोंगी में सवार होकर चल देते हैं लहरों से जूझने. सामने ही तेज़ उथल- पुथल वाली जगह दिखाई पड़ती है. दोनों ओर  खतरनाक पहाड़ और बीच-बीच में उभरी चट्टानें रोमांच को कई गुना बढ़ा  देती हैं. 

             हमारे बेड़े को नदी में उतार दिया गया है. सामने से एक खतरनाक लहर आती दिख रही है.  गाइड चिल्ला कर इंस्ट्रक्शन देता है मूव फॉरवर्ड... लेकिन मैं उससे ज्यादा जोर से चीखता हूँ होल्ड द रोप, होल्ड द  रोप.... पता नहीं क्यूँ लेकिन सारे लोग मेरे कमांड को फॉलो करते हैं.... हमारी डोंगी अनियंत्रित होकर चट्टान से जा टकराती है. डोंगी पूरी तरह से हिल जाती है. हम डोंगी समेत पानी के भीतर जाकर फिर बाहर निकलते हैं. श्रीमती जी चीखती हैं गिरिजा कहाँ है.... अरे वो तो पानी में गिर गई है... आनन फानन में हम गिरिजा को डोंगी में खींचते हैं. गाइड मुझ पर नाराज़ होता है. कहता है कि सिर्फ मैं ही कमांड करूँगा. जहां मूव फॉरवर्ड करना है अगर वहाँ रोप होल्ड करोगे तो यही होगा.... हम लोग सही सलामत नहीं पहुँच पायेंगे. मैं सभी से माफ़ी मांगता हूँ और कहता हूँ प्लीज गाइड के कमांड को ही फॉलो करें.

              हमारा 14 किलोमीटर का ये रोमांचक सफ़र शानदार तरीके से पूरा होता है. हम एंड पॉइंट पर पहुँच कर विजेता की तरह महसूस कर रहे हैं. ऊँची-नीची लहरो से एक छोटी सी नाव में जूझना एक अलग तरह का अनुभव है. मनोरंजन के साथ-साथ यह हमें साहसी और जूझारु बनाती है. इसके अलावा एक साथ काम करने के कारण आपसी सहयोग की भावना बढ़ती है. जब बड़ी- बड़ी लहरें तीव्र वेग के साथ हमारी ओर आती हैं, तो कुछ क्षणों के लिए सब कुछ भूल जाता है.उस समय केवल परस्पर सहयोग से इन लहरों को जीतने की इच्छा होती है. यात्रा पूरी करने पर उस जीत की जो खुशी होती है, उसका वर्णन शब्दों में करना असम्भव है.

                      ---- क्रमश:

- मन मोहन जोशी  

एक बेहतरीन दिन....




                        जन्म दिवस मनाने का चलन कबसे शुरू हुआ इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है. लेकिन इतना तय है की प्रत्येक देश व संस्कृति में जन्मोत्सव मनाया जाता है. यह बाजारवाद की देन नहीं है. शायद जन्मोत्सव मनाना उस समय शुरू हुआ होगा जब व्यक्ति की जीवन प्रत्याशा बहुत कम थी. कई कारण से मनुष्य कालग्रस्त हो जाते थे जैसे भुखमरी, महामारी, सूखा, अकाल, युद्ध आदि. उस दौर में एक वर्ष भी यदि कोई स्नेही जी जाए तो एक उपलब्धि की तरह उसका उत्सव मनाया जाता रहा होगा.
   
                       शुरुआत में राजा, महाराजा व अभिजात्य वर्ग के लोग ही जन्मोत्सव मनाते होंगे और कालांतर में इसका चलन आम लोगों तक पहुंचा होगा.  अब तो जन- जन तक पहुँच चुका है. बस मनाने के सबके तरीके अलग हैं. जब हम छोटे थे तब घर में एक नियम यह था की जन्मदिन को हम सुबह नए कपड़े पहन कर तैयार हो जाते थे और सभी को यह बता कर कि  आज हमारा जन्म दिन है आशीर्वाद लेते थे. 

                   शुरुआत में किसी बुद्धिमान बुजुर्ग ने यह नियम बनाया होगा ताकि सभी का जन्म दिन याद रखने से मुक्ति मिले. बच्चे होते भी तो कई थे. हमारे परिवार में ही अगर सिर्फ चाचाओं, बुआओं के बच्चों और हम भाइयों की गणना करूँ तो कठिन है ये बता पाना कि हम लोग कितने भाई बहन हैं? कितने दुनिया से चले गए और अभी कितने बचे हैं? सोचता हूँ कभी इस पर भी एक आलेख लिखूंगा. इसी बहाने भाई बहनों की गिनती पूरी होगी.
  
                      बहरहाल मैं बात कर रहा था अपने जन्मदिन की. तो 9 जून के दिन जन्म हुआ था मेरा. मम्मी बताती है कि शाम 4 बजकर 45 मिनट का समय था. और ज्यादा कुछ उनको याद नहीं. भारतीय समाज में वर्तमान समय तक लड़के से एक ही अपेक्षा होती है कि वह पैदा हो जाए बस, और लड़कों से ये भी नहीं हो रहा. अगर किसी घर में पहला बच्चा लड़का हो जाए तो घर वालों की दो तमन्नाएं एक साथ पूरी हो जाती हैं. 1.) बच्चा होने की और 2.) लड़का होने की. मैं अपने माता पिता की तीसरी संतान हूँ और पहले दो लड़कों के बाद तीसरा. शायद उस समय हम दो हमारे तीन का चलन था.सबसे छोटा होने के कई नुकसान और बहुत से फायदे हैं. समस्या ये है कि नुकसान तुरंत दिखाई पड़ते हैं और फायदों का पता देर से चलता है. इन फायदों और नुकसानों की बात फिर कभी.
  
                       खैर जन्मदिन का इंतज़ार मुझे हमेशा रहता था उसके दो कारण थे- 1) नए कपडे मिलते थे और 2) कई उपहार मिलते थे. स्कूल के दिनों में अपना जन्मदिन मैं बड़े धूम धाम से मानता था. पार्टी घर पर ही होती थी. सभी दोस्तों के लिए खाने और नाश्ते का इंतजाम मम्मी ही करती थी. मिठाई पापा बाज़ार से लाते थे. लेकिन एक समय बाद मैंने जन्म दिन मनाना बंद कर दिया था ये सोचकर की पैदा होकर कौन सा महान काम कर दिया है?? क्या कॉट्रीब्युशन है मेरा इस धरती, देश या विश्व के लिए ?? ऐसे बकवास ख़यालात भी मेरे ज़हन में आते रहे हैं??
  
                   एक बार की बात है.. मेरा जन्मदिन किसी को भी याद नहीं था... घर वालों को भी नहीं.... सुबह से शाम तक मैं ये सोचता रहा कि कोई तो याद कर ले और विश करे. शाम होते ही मैं मंदिर गया, उस दिन के लिए दाता को धन्यवाद दिया. बाहर बैठे सभी भिखारियों को मिठाई खिलाई और घर वापस आ गया. दुसरे दिन सुबह मम्मी ने याद किया, अरे कल तो इसका जन्मदिन था. और मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था. ये सोचकर कि खुद से बोलकर जन्मदिन मनाने से बेहतर है कि कुछ ऐसा करो कि सारी दुनिया तुम्हारा जन्म दिन मनाये.
  
                    उसके बाद मैं काम के सिलसिले में घर से बहार निकला और विभिन्न कम्पनीज में जॉब किया. एक नियम ये बना लिया था कि  जन्मदिन कहीं अकेले में मनाता रहा फ़ोन स्विच ऑफ कर के, प्रकृति के बीच या किताबों के साथ. वापस जब जन्मदिन के बाद ऑफिस पहुँचता तो ख़ास मित्रों और शुभचिंतकों की शुभकामनाएँ मिलतीं जिन्हें मैं सहर्ष स्वीकार करता रहा. 

                      विवाह के बाद  सभी तरह के सरप्राइज प्लान श्रीमती जी करती रहीं. एक बार तो रात भर उसने घर सजाया था. सुबह जब मैं सो कर उठा तो हैरान रह गया था कि रात में किस तरह अकेले घर सजाया होगा? कमाल की प्लानर है वो. अभी पिछले ही महीने मम्मी पापा की एनिवर्सरी थी. महीने भर से प्लानिंग करती रही. कई लोगों से संपर्क किया ताकि किसी तरह केक और फूलों का गुलदस्ता घर तक भिजवा सके. केक डिजाईन की और पापा मम्मी को भिजवाया.  
   
                         बहरहाल इस वर्ष भी जन्मदिन कहीं बाहर मनाने की प्लानिंग थी. सोचा था कि मेरे प्रिय लेखक रस्किन बांड के साथ देहरादून में उनकी किताबों के बारे में बात करते हुए उनके साथ बिताऊंगा. उनसे बात भी हो गई और तैयारी भी कर ली थी. लेकिन फिर रस्किन जी की ओर से ये सन्देश प्राप्त हुआ कि उनकी तबीअत नासाज़ है और मिलना नहीं हो पायेगा. श्रीमती जी से पता चला कि 9 जून को उनकी भी छुट्टी नहीं है. तो सोचा घर पर रहकर कुछ लिखते पढ़ते हुए ही दिन बिताऊंगा.

                         ऑफिस के सारे काम मैनेज कर मैं 8 जून की शाम को घर आ गया. तबियत थोड़ी नासाज़ लग रही थी तो जल्द ही सो गया. रात लगभग 11:30 बजे दरवाज़े की घंटी बजती है. दरवाज़े पर मेरा ही परिवार है. बड़े भैया भाभी, मुकेश, अद्वैता, शाश्वत, और स्निग्धा. खूबसूरत सा गिफ्ट, केक और फूलों का गुलदस्ता हाथ में लिए. उनके जाते ही प्रिय अनुज शुकान्तो और विधान्त आ गए. रात 12 बजे केक काटने का सिलसिला शुरू हुआ. एक केक साली साहिबा ने छिंदवाड़ा से भिजवाया, प्रिय रोहित और अन्य मित्र भी केक लेकर आये. दिन भर केक काटने का सिलसिला चला.

                         प्रिय अभिषेक के साथ खजराना गणेश के विशेष पूजन से दिन की शुरुआत हुई. ऑफिस में मित्र सुनील तिवारी के नेतृत्व में स्टाफ (जो मेरा दूसरा परिवार है)  द्वारा फूलों और गुब्बारों से की गई बेहतरीन तैयारी ने मन मोह लिया. दिन भर स्नेही मित्रों से मिलता रहा. शाम को लगभग 7:30 बजे श्रीमती जी के साथ आईटी पार्क चौराहे पर एक और केक काटा जहां प्रिय अनुज, भारत, केक के साथ मेरा इंतज़ार कर रहे थे. तो कुछ यूँ बीता एक बेहतरीन दिन.    

                          हजारों शुभकामना सन्देश, कई माध्यमों से मुझ तक पहुंचे हैं. समझ में नहीं आता कि इन संदेशों का शब्दों में उत्तर कैसे दिया जाए. मेरे देखे प्रेम का उत्तर तो शायद मन का भाव-विभोर हो जाना ही होता है. और मैं भाव विभोर हूँ.

  --- मन मोहन जोशी

बुधवार, 6 जून 2018

सुमूर.....







                       25 तारीख की सुबह 8:30 बजे हम निकले हैं, लेह से नुब्रा घाटी के लिए. 3:30 बज रहे हैं. हमारा ग्रुप, गाइड गेल्सन के साथ सुमूर नामक खूबसूरत से गाँव में पहुंचा है. विरल आबादी वाला यह गाँव चारों और हरियाली और पहाड़ों से घिरा हुआ है. पता चलता है कि हम लद्दाख की सबसे हरियाली वाले गाँव में हैं. जहां हमारा कैंप लगा हुआ है इस जगह आस पास कोई घर नहीं हैं. पूछने पर पता चलता है कि निकटतम क़स्बा 20 किलोमीटर दूर है.
        
                  सुमूर, दिस्कित क्षेत्र से एक दम विपरीत दिशा में है. यहाँ पहुँचने के लिए  दिस्कित से आगे बढ़ते हुए 17-18 किलोमीटर की दूरी पर दाई ओर एक मोड़ पर मुड़ना पड़ता है. यहीं से सुमूर की यात्रा शुरू होती है. सुमूर में भी बहुत बड़ी मोनेस्टरी है जिसका नाम समस्तलिंग गोन्पा है. यह स्थान सुमूर से लगभग आधे घंटे की पैदल दूरी पर स्थित है.

                   बहरहाल सुमूर में हम कोई मोनेस्ट्री विजिट करने के प्लान से नहीं आये हैं यहाँ आने का  उद्देश्य है रस्ते में पड़ने वाले विभिन्न खूबसूरत स्थानों का भ्रमण करना, खूबसूरत घुमावदार रस्ते में ड्राइविंग का आनंद लेना और सबसे महत्वपूर्ण स्टार गेजिंग करना.     

                   जाने कब से मनुष्य सूर्य और चंद्रमा के उदय और आकाश में उनकी तथा तारों की आभासी रात्रि गति तथा विभिन्न  आकाशीय घटनाओं पर आश्चर्य करता रहा है. इन गतियों से ही मानव ने धीरे-धीरे विभिन्न ऋतुओं का ज्ञान प्राप्त किया. चंद्रमा की कलाओं, सूर्य की स्थिति में क्रमिक विचलन, विशिष्ट तारों के उदय, सूर्य की ऊँचाई और उसके उदय  तथा अस्त होने के स्थान में परिवर्तन को भी लेख बद्ध किया गया. इनके आधार पर ही पंचांग तैयार किए गए.

                     ये निरीक्षण केवल आँखों से ही नहीं किए जा सकते थे. ज़रूर हमारे पूर्वजों के पास शक्तिशाली उपकरण रहे होंगे.  जैसे मिस्रवासियों का साहुल, जिसे मेरखेट (Merkhet) कहते हैं एक प्राचीन ज्योतिष उपकरण था.
                        बहरहाल इंदौर में कृतिम रौशनी और प्रदुषण के चलते आसमान साफ नहीं दिखाई पड़ता है. लेकिन दूर दराज़ की यात्रा करते हुए कई बार रात में सोते हुए आसमान को तारों से जगमगाते हुए देखा है. सुमूर में यह अनुभव थोड़ा अलग और अनोखा हो सकता है ऐसे उम्मीद है.  यह जगह बेहद ही खूबसूरत है , साथ ही बेहद कम प्रदूषित है. प्रकृति की खूबसूरती को इतने पास से निहारते हुए हमें पता ही नहीं चला कब शाम हो गई.

                    शाम के  6:00 बज रहे हैं. कैंप में ही किचन है जहां हम चाय पीने पहुँचते हैं. विनोद, जो नेपाल का रहने वाला है, यहाँ काम करता है. वह बताता है कि यहाँ बिजली नहीं रहती है. रात में केवल 8:00 बजे से लेकर 11:00 बजे तक लाइट्स जलाने का इन्तेजाम होगा, जिससे हम सब आराम से खाना खा सकें. वह बताता है कि रात में 9 बजे से कैंप फायर का आनंद लेने के बाद हम लोग जितनी देर चाहे स्टार गेजिंग कर सकते हैं और फिर  सोने के लिए जा सकते हैं.

                     खाना खा कर हम लोग कैंप फायर की जगह पर आ गये हैं. आज हमारे मित्र राजेश और उनकी पत्नी गिरिजा की मैरिज एनिवर्सरी है. कैंप फायर की जगह पर ही केक कटिंग का भी इंतज़ाम किया गया है. केक कटिंग के बाद हम सब डांस का आनंद लेते हैं. ठण्ड बहुत ज्यादा है. आग के पास से उठने का मन ही नहीं हो रहा है.

                   कुछ परिवार अपने साथ छोटे टेलिस्कोप भी लेकर आये हैं... हम नंगी आँखों से अनंत मणियों से जड़ित  इस थाल को अपने में समेटने की नाकाम कोशिश करते हैं.

                   प्रकृति और ब्रह्माण्ड की इस अथाह ख़ूबसूरती को आँखों में समेटते हुए मैं इस सोच में पड़ जाता हूँ कि इस अथाह ब्रह्माण्ड में क्या- क्या कुछ है, जो क्षुद्र मानव की समझ से परे है ???.                
  --------क्रमश:

- मन मोहन जोशी 

मंगलवार, 5 जून 2018

ओत्मा खुखुर...


                                                            





          होटल के रूम में फ़ोन की घंटी की आवाज़ से जागता हूँ. आज 26 मई है सुबह के 7:30 हो रहे हैं. फ़ोन पर डोल्मा है .. कह रही है ब्रेक फ़ास्ट का टाइम हो गया है नीचे आ जाइए . फिर याद दिलाती है की आज आपको नुब्रा वैली जाना है, समय पर निकलना ठीक होगा.

          नुब्रा घाटी एक तीन भुजाओं वाली घाटी है जो लद्दाख  के उत्तर-पूर्व में स्थित है, यह श्योक और नुब्रा नदियों के संगम से बनती है.  श्योक नदी उत्तर पश्चिम की ओर बहती है और नुब्रा नदी एक न्यूनकोण बनाते हुए इसमें उत्तर-उत्तर पश्चिम से आ कर मिलती है. श्योक नदी आगे जाकर सिन्धु नदी में मिलती है. इस घाटी की ऊँचाई लगभग 10,000 फीट है. यहाँ के स्थानीय लोगों के अनुसार इसका प्राचीन नाम डुमरा (फूलों की घाटी) था. जो कालांतर में नुब्रा नदी के नाम पर नुब्रा ही पड़ गया.  यहाँ पहुँचने के लिये लेह के खर्दुन्गला दर्रे से होकर जाया जाता है.

                    सुबह के 8:30 बज रहे हैं. हम नाश्ता करके तैयार हैं, आज की रोमांचक यात्रा के लिए. आज हमारे साथ गाइड के रूप में गेल्सन हैं जो लेह के ही रहने वाले हैं. दो बोट्टल्स पानी और कुछ सुखा नाश्ता साथ में लेकर हम चल देते हैं नुब्रा की ओर. हम सूमूर नामक एक गाँव में पहुँच कर कैंप में ठहरते हैं. दुसरे दिन सुबह उठ कर हम चल पड़ते हैं नुब्रा घाटी घुमने.

                 लेह से नुब्रा तक की यात्रा बहुत आकर्षक है. सबसे पहला आकर्षण खारदुंग ला दर्रा है. यह हिमालय स्थित एक दर्रा है जो समुद्र तल से लगभग 18,380 फीट की ऊँचाई पर स्थित है. यह परिवहन योग्य, विश्व का सबसे ऊँचा दर्रा है, परन्तु इसकी ऊँचाई विवादित है. लद्दाख क्षेत्र में लेह के पास स्थित यह दर्रा “श्योक” और “नुब्रा” घाटियों को जोड़ता है. यहाँ पर साल भर कई मोटर साइकिल रैलीयाँ होती रहती हैं.

                   खारदुंग ला में दुनिया का सबसे ऊंचा कैफ़े भी स्थित है.... जैसे ही हम  खारदुंग ला  पहुँचते हैं. ठण्ड के मारे हालत खराब होने लगती है. हम कैफ़े में  नूडल्स और गरमागरम चाय लेकर थोड़ी राहत महसूस करते हैं. फिर दौर शुरू होता है फोटोग्राफी का... चारों ओर बर्फ से ढंके हुए पहाड़ और खूबसूरत वादी के बीच हम अतिशय ठण्ड का आनंद लेने लगते हैं. बदन को काटने वाली तेज़ ठंडी हवाएं हमें गुदगुदा रही हैं. हम फोटोग्राफी के बाद चल देते हैं अपने अगले पड़ाव की ओर .   
 

               इस यात्रा में हमारा अगला पड़ाव है, दिस्कित मोनेस्ट्री . इस मोनेस्ट्री की स्थापना चोंगज़ेम सिरेब झांगपो ने 14 वीं शताब्दी में की थी. यह मठ लेह में स्थित है.”तिब्बत समर्थन समूह” के सहयोग से यह मठ तिब्बती बच्चों के लिए एक स्कूल भी चलाता है. दलाई लामा अपने कुछ दिन की यात्रा पर जब भारत आये थे, तब उन्होंने यहाँ स्थित 120  फुट की ऊंची “मैत्रेय” की प्रतिमा का उद्घाटन किया था, जो इस मठ के आकर्षण का केंद्र है. इस मूर्ति का निर्माण बौद्ध संघ और लद्दाख के पर्यटन कार्यालय द्वारा मिलकर करवाया गया है.

              बौद्ध मान्यताओं के अनुसार मैत्रेय भविष्य के बुद्ध हैं. कुछ बौद्ध ग्रन्थों, जैसे अमिताभ सूत्र और सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र में इनका एक नाम “अजीत” भी मिलता है. "मैत्रेय" शब्द संस्कृत के "मित्र" अथवा "मित्रता" से निकला है. पालि भाषा में यह "मेत्तेय" है. पालि शाखा के दीघ निकाय और बुद्धवंश नामक ग्रन्थ में इनका उल्लेख मिलता है. बौद्ध परम्पराओं के अनुसार, मैत्रेय एक बोधिसत्व हैं जो पृथ्वी पर भविष्य में अवतरित होंगे और बुद्धत्व प्राप्त करेंगे तथा विशुद्ध धर्म की शिक्षा देंगे.

              मोनेस्टरी घूमते हुए हमारी मुलाक़ात एक लामा से होती है जो बताते हैं कि आमतौर पर मैत्रेय बुद्ध को बैठी हुई अवस्था में निरूपित किया जाता है. उन्हें सिंहासन पर, या तो दोनों पाँव धरती पर रखे हुए अथवा एक पाँव घुटने से मुड़ा हुआ दूसरे पाँव पर रखे हुए, अपने समय की प्रतीक्षा में बैठा हुआ निरूपित किया जाता है. यहाँ जो मूर्ति स्थापित है उसमें इन्हें सर पर स्तूपाकार मुकुट धारण किये हुए दिखाया गया है. यह स्तूप गौतम बुद्ध के अवशेषों का निरूपण करता है, जिनके द्वारा मैत्रेय अपने उत्तराधिकारी होने की पहचान साबित करेंगे और श्वेत कमल पर रखे धर्मचक्र को पुनः प्राप्त करेंगे.

                     मैत्रेय की खूबसूरत विशालकाय प्रतिमा और दिस्कित मोनेस्टरी के साथ बहुत सारी फोटो खिंचवाने के बाद हम अगले पड़ाव की ओर बढ़ते हैं.

                      गेल्सन हमें बताता है कि अगले पड़ाव में हम ATB राइड्स के लिए जा रहे हैं. ATB एक किस्म की चार पहिया बाइक होती है जो रेत, बर्फ, कीचड़ और पथरीली ज़मीन पर भी आसानी से चल सकती है. मैं और श्रीमती जी दोनों ही ATB चलाने का आनंद लेते हैं. ATB की रोमांचक राइड के बाद हम चल पड़ते हैं अगले आकर्षण की ओर दो कूबड़ वाले ऊंटों की सवारी के लिए.

                     दो कूबड़ वाले ऊंट को जीव विज्ञान में camelus bactrianus कहते हैं. आम भाषा में इन्हें बैक्ट्रियन ऊंट कहा जाता है. यह लगभग 40 - 50 साल तक जीता है. वयस्क ऊंट के कूबड़ तक की ऊंचाई दो मीटर से ऊपर भी जा सकती है. सिर्फ कूबड़ ही 30 इंच तक का हो जाता है. इसका वजन सात सौ से लेकर एक हजार किलो तक हो सकता है. रेगिस्तान का ये जहाज 60 - 65 किमी प्रति घंटे की दौड़ भी लगा लेता है. घाटी में नदी के किनारों पर हरियाली है जहां ये दो कूबड़ वाले ऊंट चरते हुए देखे जा सकते हैं.
      
                      ऊँट कैमुलस जीनस के अंतर्गत आने वाला एक खुरधारी जीव है. अरबी ऊँट के एक कूबड़ जबकि बैकट्रियन ऊँट के दो कूबड़ होते हैं. अरबी ऊँट पश्चिमी एशिया के सूखे रेगिस्तान क्षेत्रों के जबकि बैकट्रियन ऊँट मध्य और पूर्व एशिया में पाए जाते हैं. ऊँट शब्द का प्रयोग मोटे तौर पर ऊँट परिवार के छह ऊँट जैसे प्राणियों के लिए किया जाता है, इनमें से  दो वास्तविक ऊँट और चार दक्षिण अमेरिकी ऊँट जैसे जीव है जो हैं लामा, अलपाका, गुआनाको और विकुना कहलाते हैं.

                  भारत में ये दो कूबड़ वाले ऊँट  केवल लद्दाख की नुब्रा घाटी में ही पाए जाते हैं. वैसे भी दुनिया में दो कूबड़ वाले ऊंट कम ही स्थानों पर पाए जाते हैं और ये सभी स्थान ठन्डे रेगिस्तान हैं. वे स्थान जहां दो कूबड़ वाले ऊँट पाए जाते हैं,  गोबी मरुस्थल मंगोलिया, अल्ताई पहाड़ियां रूस और तक्लामाकन मरुस्थल चीन, हैं.

                  इन ऊंटों को देखना और इनकी सवारी करने का रोमांच मुझसे नहीं संवर रहा था. हम गाड़ी से उतर कर सीधे ऊंटों के मालिक के पास पहुँचते हैं. कई ऊंटों के समूह यहाँ हैं जिनके अलग –अलग मालिक हैं . हम जिससे मिल रहे हैं उसका नाम अब्दुल है. वो हमें ऊंटों के एक समूह के पास ले जाता है. इसमें से एक ऊँट की और मैं बढ़ता हूँ और उसकी लगाम पकड़ कर बैठ जाता हूँ. सभी मित्र अलग – अलग ऊंटों पर सवार हो जाते हैं. मैं अब्दुल से पूछता हूँ जिस ऊँट पर मैं बैठा हूँ उसका नाम क्या है?? अब्दुल बताता है साहब इसका नाम है “ओत्मा खुखुर”.   
                             -------------क्रमश:

-मनमोहन जोशी


P.S.
नुब्रा घाटी का मनोहारी दृश्य 

राहुल मैं और डोल्मा 

मित्रों के साथ 

मैत्रेय बुद्धा की 120 फीट ऊंची मूर्ती