Diary Ke Panne

रविवार, 10 जून 2018

एक बेहतरीन दिन....




                        जन्म दिवस मनाने का चलन कबसे शुरू हुआ इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है. लेकिन इतना तय है की प्रत्येक देश व संस्कृति में जन्मोत्सव मनाया जाता है. यह बाजारवाद की देन नहीं है. शायद जन्मोत्सव मनाना उस समय शुरू हुआ होगा जब व्यक्ति की जीवन प्रत्याशा बहुत कम थी. कई कारण से मनुष्य कालग्रस्त हो जाते थे जैसे भुखमरी, महामारी, सूखा, अकाल, युद्ध आदि. उस दौर में एक वर्ष भी यदि कोई स्नेही जी जाए तो एक उपलब्धि की तरह उसका उत्सव मनाया जाता रहा होगा.
   
                       शुरुआत में राजा, महाराजा व अभिजात्य वर्ग के लोग ही जन्मोत्सव मनाते होंगे और कालांतर में इसका चलन आम लोगों तक पहुंचा होगा.  अब तो जन- जन तक पहुँच चुका है. बस मनाने के सबके तरीके अलग हैं. जब हम छोटे थे तब घर में एक नियम यह था की जन्मदिन को हम सुबह नए कपड़े पहन कर तैयार हो जाते थे और सभी को यह बता कर कि  आज हमारा जन्म दिन है आशीर्वाद लेते थे. 

                   शुरुआत में किसी बुद्धिमान बुजुर्ग ने यह नियम बनाया होगा ताकि सभी का जन्म दिन याद रखने से मुक्ति मिले. बच्चे होते भी तो कई थे. हमारे परिवार में ही अगर सिर्फ चाचाओं, बुआओं के बच्चों और हम भाइयों की गणना करूँ तो कठिन है ये बता पाना कि हम लोग कितने भाई बहन हैं? कितने दुनिया से चले गए और अभी कितने बचे हैं? सोचता हूँ कभी इस पर भी एक आलेख लिखूंगा. इसी बहाने भाई बहनों की गिनती पूरी होगी.
  
                      बहरहाल मैं बात कर रहा था अपने जन्मदिन की. तो 9 जून के दिन जन्म हुआ था मेरा. मम्मी बताती है कि शाम 4 बजकर 45 मिनट का समय था. और ज्यादा कुछ उनको याद नहीं. भारतीय समाज में वर्तमान समय तक लड़के से एक ही अपेक्षा होती है कि वह पैदा हो जाए बस, और लड़कों से ये भी नहीं हो रहा. अगर किसी घर में पहला बच्चा लड़का हो जाए तो घर वालों की दो तमन्नाएं एक साथ पूरी हो जाती हैं. 1.) बच्चा होने की और 2.) लड़का होने की. मैं अपने माता पिता की तीसरी संतान हूँ और पहले दो लड़कों के बाद तीसरा. शायद उस समय हम दो हमारे तीन का चलन था.सबसे छोटा होने के कई नुकसान और बहुत से फायदे हैं. समस्या ये है कि नुकसान तुरंत दिखाई पड़ते हैं और फायदों का पता देर से चलता है. इन फायदों और नुकसानों की बात फिर कभी.
  
                       खैर जन्मदिन का इंतज़ार मुझे हमेशा रहता था उसके दो कारण थे- 1) नए कपडे मिलते थे और 2) कई उपहार मिलते थे. स्कूल के दिनों में अपना जन्मदिन मैं बड़े धूम धाम से मानता था. पार्टी घर पर ही होती थी. सभी दोस्तों के लिए खाने और नाश्ते का इंतजाम मम्मी ही करती थी. मिठाई पापा बाज़ार से लाते थे. लेकिन एक समय बाद मैंने जन्म दिन मनाना बंद कर दिया था ये सोचकर की पैदा होकर कौन सा महान काम कर दिया है?? क्या कॉट्रीब्युशन है मेरा इस धरती, देश या विश्व के लिए ?? ऐसे बकवास ख़यालात भी मेरे ज़हन में आते रहे हैं??
  
                   एक बार की बात है.. मेरा जन्मदिन किसी को भी याद नहीं था... घर वालों को भी नहीं.... सुबह से शाम तक मैं ये सोचता रहा कि कोई तो याद कर ले और विश करे. शाम होते ही मैं मंदिर गया, उस दिन के लिए दाता को धन्यवाद दिया. बाहर बैठे सभी भिखारियों को मिठाई खिलाई और घर वापस आ गया. दुसरे दिन सुबह मम्मी ने याद किया, अरे कल तो इसका जन्मदिन था. और मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था. ये सोचकर कि खुद से बोलकर जन्मदिन मनाने से बेहतर है कि कुछ ऐसा करो कि सारी दुनिया तुम्हारा जन्म दिन मनाये.
  
                    उसके बाद मैं काम के सिलसिले में घर से बहार निकला और विभिन्न कम्पनीज में जॉब किया. एक नियम ये बना लिया था कि  जन्मदिन कहीं अकेले में मनाता रहा फ़ोन स्विच ऑफ कर के, प्रकृति के बीच या किताबों के साथ. वापस जब जन्मदिन के बाद ऑफिस पहुँचता तो ख़ास मित्रों और शुभचिंतकों की शुभकामनाएँ मिलतीं जिन्हें मैं सहर्ष स्वीकार करता रहा. 

                      विवाह के बाद  सभी तरह के सरप्राइज प्लान श्रीमती जी करती रहीं. एक बार तो रात भर उसने घर सजाया था. सुबह जब मैं सो कर उठा तो हैरान रह गया था कि रात में किस तरह अकेले घर सजाया होगा? कमाल की प्लानर है वो. अभी पिछले ही महीने मम्मी पापा की एनिवर्सरी थी. महीने भर से प्लानिंग करती रही. कई लोगों से संपर्क किया ताकि किसी तरह केक और फूलों का गुलदस्ता घर तक भिजवा सके. केक डिजाईन की और पापा मम्मी को भिजवाया.  
   
                         बहरहाल इस वर्ष भी जन्मदिन कहीं बाहर मनाने की प्लानिंग थी. सोचा था कि मेरे प्रिय लेखक रस्किन बांड के साथ देहरादून में उनकी किताबों के बारे में बात करते हुए उनके साथ बिताऊंगा. उनसे बात भी हो गई और तैयारी भी कर ली थी. लेकिन फिर रस्किन जी की ओर से ये सन्देश प्राप्त हुआ कि उनकी तबीअत नासाज़ है और मिलना नहीं हो पायेगा. श्रीमती जी से पता चला कि 9 जून को उनकी भी छुट्टी नहीं है. तो सोचा घर पर रहकर कुछ लिखते पढ़ते हुए ही दिन बिताऊंगा.

                         ऑफिस के सारे काम मैनेज कर मैं 8 जून की शाम को घर आ गया. तबियत थोड़ी नासाज़ लग रही थी तो जल्द ही सो गया. रात लगभग 11:30 बजे दरवाज़े की घंटी बजती है. दरवाज़े पर मेरा ही परिवार है. बड़े भैया भाभी, मुकेश, अद्वैता, शाश्वत, और स्निग्धा. खूबसूरत सा गिफ्ट, केक और फूलों का गुलदस्ता हाथ में लिए. उनके जाते ही प्रिय अनुज शुकान्तो और विधान्त आ गए. रात 12 बजे केक काटने का सिलसिला शुरू हुआ. एक केक साली साहिबा ने छिंदवाड़ा से भिजवाया, प्रिय रोहित और अन्य मित्र भी केक लेकर आये. दिन भर केक काटने का सिलसिला चला.

                         प्रिय अभिषेक के साथ खजराना गणेश के विशेष पूजन से दिन की शुरुआत हुई. ऑफिस में मित्र सुनील तिवारी के नेतृत्व में स्टाफ (जो मेरा दूसरा परिवार है)  द्वारा फूलों और गुब्बारों से की गई बेहतरीन तैयारी ने मन मोह लिया. दिन भर स्नेही मित्रों से मिलता रहा. शाम को लगभग 7:30 बजे श्रीमती जी के साथ आईटी पार्क चौराहे पर एक और केक काटा जहां प्रिय अनुज, भारत, केक के साथ मेरा इंतज़ार कर रहे थे. तो कुछ यूँ बीता एक बेहतरीन दिन.    

                          हजारों शुभकामना सन्देश, कई माध्यमों से मुझ तक पहुंचे हैं. समझ में नहीं आता कि इन संदेशों का शब्दों में उत्तर कैसे दिया जाए. मेरे देखे प्रेम का उत्तर तो शायद मन का भाव-विभोर हो जाना ही होता है. और मैं भाव विभोर हूँ.

  --- मन मोहन जोशी

12 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
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  2. व्यस्त जिन्दगी में से समय निकालकर इतने अच्छे विचार, और भाषा पर अधिकार, प्रशंसनीय ��

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    1. प्रशंसा के लिए आपका शुक्रिया। लिखना और पढ़ना ही मेरी हॉबी है, घूमने के अलावा।

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