Diary Ke Panne

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

प्रेम और स्त्री मन........







आज ट्विटर ओपन किया तो देखा कि प्रिंस हैरी और मेगन मार्कल की फोटो ट्रेंड कर रही है. इसमें प्रिंस हैरी डायस पे खड़े हैं और मेगन छाता लेकर खड़ी हैं. थोड़ा इन्टरनेट खंगालने पर पता चला कि प्रिंस हैरी और उनकी पत्नी मेगन मार्कल हाल ही में न्यू साउथ वेल्स गए थे जहां प्रिंस हैरी स्पीच दे रहे थे और बारिश शुरू हो गई. जहां वो खड़े थे उस जगह पर कोई शेड नहीं था. मेगन छाता लेकर पहुँच जाती हैं और स्पीच ख़त्म होते तक वहीं खड़ी रहती हैं, मुस्कुराती हुई. उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है और विडियो देख कर आपको ये अहसास होगा कि उनको ये करने में आनंद मिल रहा है.

लोग TWEET  करके अपनी ख़ुशी ज़ाहिर कर रहे हैं. कुछ लोगों को आश्चर्य है कि कोई राजघराने की किसी संभ्रांत महीला ने ऐसा पहली बार किया है. मेरे देखे स्त्री मन को समझना कठिन है. वस्तुतः स्त्री प्रेम करती है तो ऐसे ही करती है. पुरुष के प्रेम में ही सभी तरह के गुणा भाग होते हैं. स्त्री तो निस्वार्थ मन से बिना कुछ सोचे कूद पड़ती है प्रेम में, भिड़ जाती है यमराज से, छोड़ देती है महलों का वैभव.
   
प्रेम एक अद्भुत अहसास है, शारीरिक आकर्षण के परे, दिव्य. यह अनेक भावनाओं का एक ऐसा मिश्रण है जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता. कबीर ने इसे गूंगे का गुड़ कहा है. रातों की नीदों का उड़ जाना इसका एक आरंभिक लक्षण है.

प्राचीन ग्रीक लोगों ने चार तरह के प्रेम को पहचाना है. ये हैं - रिश्तेदारी, दोस्ती, वासना और दिव्य प्रेम. प्रेम को अक्सर वासना समझा जाता है या शारीरिक आकर्षण, लेकिन यह एक रसायन है. जिन्होंने अनुभव किया है वह सहमत होंगे क्योंकि यह यंत्र नहीं विलयन है जिसमें द्रष्टा और दृष्टि एक हो जाते हैं. सभी तरह की दुई खो जाती है. मन, शरीर और आत्मा एक हो जाते हैं. कोई मांग नहीं रह जाती.

सूफ़ियों ने इस प्रेम की अनुभूति की है. किसी सूफ़ी फ़क़ीर ने कहा है - तुझ हरजाई की बाँहों में और प्रेम परीत की राहों में / मैं सब कुछ बैठी हार वे.सब कुछ हार देना ही होता है तभी जीत मिलती है. अल्लामा इक़बाल ने कहीं लिखा है कि ये बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है, जो चाहे लगा दो डर कैसा.

तो मेरे देखे ये अनुभूति हर किसी को नहीं होती है. ये किसी  साधारण व्यक्ति का अनुभव नहीं हो सकता. अतीव साहसी लोग जीवन में इसका अनुभव करते हैं. आम लोग तो शारीरिक आकर्षण या मोह या आसक्ति को ही प्रेम मानकर चलते हैं. किसी शायर ने लिखा भी है

इश्क के लिए कुछ ख़ास दिल मखसूस होते हैं,
  ये वो नगमा है जो हर साज़ पे गाया नहीं जाता."

स्त्री स्वाधीन मन के साथ ही जन्म लेती है. आवश्यकता है कि पुरुष और समाज उसकी स्वाधीनता को अक्षुण्ण रहने दें. स्त्री का स्वाधीन मन और समर्पित प्रेम उसे स्वयं परेशानी में रह कर अपने प्रेमी को सुरक्षा प्रदान करने को प्रेरित करता है.

वाल्मीकि रामायण में उल्लेख मिलता है कि सीता, राम के साथ वन जाने की जिद करती है. राम पूछते हैं तुम मेरे साथ वन आकर क्या करोगी? वह कहती हैं – “अग्रतस्ते गमिष्यामि मृद्नन्ती कुशकण्टकान्” अर्थात- "मैं तुम्हारे रास्ते के कुश काँटे रौंदती हुई आगे-आगे चलूँगी."  यही स्त्री का प्रेम है.
    
- मनमोहन जोशी 

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

EAT, PRAY, LOVE.....




एलिज़ाबेथ गिल्बर्ट के  संस्मरणों को पेंगुइन बुक्स ने  Eat, Pray, Love के नाम से 2006 में उपन्यास के रूप में प्रकाशित किया था जो एक बेस्टसेलर बुक है. यदि आप जीवन के अर्थ को तलाश रहे हैं या जीवन में संतुलन को खोज रहे हैं तो तो यह किताब अवश्य पठनीय है. 

इस पुस्तक को पढ़ते हुए यकीन हो चलेगा की आतंरिक ख़ुशी ही सब कुछ है लेकिन वो ख़ुशी है कहाँ ?? समाज में ?? काम में ?? भोग विलास में ?? आध्यात्म में ?? या प्रेम में ??

 इस पुस्तक को रयान मर्फी ने 2010 में फिल्म का रूप दिया. जूलिया रॉबर्ट्स इसमें एलिज़ाबेथ के किरदार में हैं जिनका नाम है “लिज़” अद्भुत किताब पर कमाल की फिल्म है यह. और जूलिया रोबर्ट्स तो हैं ही बेहतरीन.

फिल्म के तीन हिस्से हैं सबसे पहले “ईट” जो की भोग की बात करता है. फिर है “प्रे” जहां भक्ति या आध्यात्म की बात होगी और फिर “लव”, विशुद्ध प्रेम की बात.

 इस कहानी को पढ़ते या देखते समय यकीन मानें आप एक दूसरी ही दुनिया में खो जायेंगे.   

एलिजाबेथ लिखती हैं - हमने अपनी संकुचित मान्यताओं में इश्वर का जो रूप गढ़ा है, शायद ईश्वर उससे कहीं ज्यादा असीम और विशालतम है.

कहानी कुछ ऐसी है कि 34 वर्षीय लिज़ के जीवन में सब ठीक चल रहा होता है. लेकिन वो अपने वर्तमान जीवन से खुश नहीं है और तलाक के बाद पूरा एक वर्ष दुनिया देखने में बीता देती है. शुरू के चार महीने वो इटली में बीताती है भोग विलास में (EAT). इसके बाद तीन महीने भारत में अध्यात्म की तलाश में (PRAY) और फिर वर्ष के अंतिम महीने इंडोनेशिया के बाली द्वीप में दोनों के बीच संतुलन की तलाश में (LOVE).

मानो प्रेम ही भोग और अध्यात्म के बीच का संतुलन हो.
    
 जब वो इटली में होती है तो अपने इटैलियन दोस्त जूलियो से पूछती है कि रोम का उद्देश्य क्या है तो वह कहता है भोग और केवल भोग. जब वो उससे पूछता है कि तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या है? वो कहती है - मैं अभी तो नहीं जानती, लेकिन मुझे महसूस हो रहा है कि मेरा उद्देश्य जल्द ही मेरे सामने आएगा, और जब आएगा तो मैं पहचान लूंगी.

एक रोज़ वह योग पर एक पुराना लेख पढ़ रही होती है. तब उसे संस्कृत शब्द “अंतेवासिन” मिलता है जिसका अर्थ है: " वो जो सीमा पर गुरु के समीप रहता है." यह उस व्यक्ति की ओर इशारा करता है जिसने सांसारिक जीवन के दौड़-धूप को छोड़ दिया है और नगर की सीमा पर वन के समीप जाकर रहने लगा है. न तो वह पूरी तरह से सन्यासी है और न ही संसारी.
  
उसे उसके जीवन का उद्देश्य मिल जाता है. प्रेम में उसने भोग और अध्यात्म के संतुलन को पा लिया है.... वस्तुतः लिज़ एक अंतेवासिन ही है. जो अंतराल में  ठहर गई है.... प्रेम के अद्भुत, खूबसूरत और डरावने वन के समीप लगातार बदलती सीमा पर एक विद्यार्थी के रूप में...
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           - मनमोहन जोशी  

रविवार, 14 अक्तूबर 2018

दिशा हारा केमोन बोका मोंटा रे ......




संगीत मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा रहा है. जीवन के एक दौर में मैं चौबीसों घंटे संगीत में ही रमता था जटिल राग गायन , बेहतरीन बंदिशें , ग़ज़ल , दादरा, ठुमरी, टप्पा , ख्याल और तराना इन सबको बेहद करीब से देखा, सुना और समझा है.

वैसे तो कहा जाता है कि “म्यूजिक हेज़ नो लैंग्वेज” लेकिन फिर भी मुझे  लगता है कि अगर राग, ताल और शब्दों की समझ हो तो आनंद कई गुना हो जाता है. कई बार इन बारीकियों में उलझने का मन नहीं होता तो कोई ऐसी भाषा का गाना उठा लेता हूँ जो मुझे समझ नहीं आता लेकिन फिर जुट जाता हूँ उस भाषा के शब्दों को समझने और संगीत की बारीकियों को जानने में.

मैं एक डाइवर्सिफाइड लिसनर हूँ कुछ भी  सकता हूँ बस दिल तक उतरना चाहिए... तमिल और तेलुगु मुझे नहीं आती लेकिन इल्या राजा और रहमान की तेलुगु कम्पोजीशन मज़े से सुन सकता हूँ और यहाँ आकर यह धारणा ठीक मालूम पड़ती हैं की “म्यूजिक हेज़ नो लैंग्वेज”.

एक घटना याद आती है – मैं और मित्र सुनील तिवारी एक यात्रा पर थे. जिस शहर हम पहुँचने वाले थे वहां एक पत्रकार मित्र नौशाद खान हमारा इंतज़ार कर रहे थे लंच के लिए. हम जैसे ही शहर में इंटर हुए वो मित्र हमें चौराहे पर ही दिख गए अपनी बाइक के पास खड़े हुए. कार मैं ड्राइव कर रहा था और किशोरी अमोनकर की आवाज में श्री गणेश अथर्व शीर्ष का पाठ चल रहा था (कभी समय निकाल कर किशोरी अमोणकर को सुनिए आवाज़ दिल को चीरती हुई पार निकल जाएगी आत्मा के, कभी किशोरी पर भी कुछ लिखूंगा). मित्र सुनील जी ने कहा अरे इसे बंद कर दो वो आ रहा है भाई, अच्छा नहीं मालूम पड़ता. लेकिन मैं भी कहाँ मानने वाला था मैंने और वॉल्यूम तेज़ कर दी. क्या संगीत का भी कोई जाती, धर्म होता है?? मेरे देखे तो नहीं?? नौशाद जी आकर गाडी में बैठ गए कुछ देर में अथर्व शीर्ष का पाठ ख़त्म हुआ और जो अगला गाना मेरे खजाने से निकल कर बजा वह नुसरत साहब का गाया नात था बोल थे अल्लाहू -अल्लाहू –अल्लाहू.

 तो मेरे सुनने का कोई पैटर्न नहीं है मैं रिहाना से लेकर एड शीरन तक को सूनता हूँ और स्वानंद किरकिरे से लेकर पंडित कुमार गन्धर्व तक को. मेरे देखे किसी गाने या संगीत में उतर जाने के दो तरीके हैं एक हेड फ़ोन ऑन कर लीजिये और दूसरा कार में सुनिए. हेड फ़ोन में भी मेरे देखे सोनी का हेड फ़ोन सबसे शानदार अनुभव देता है.                     

आजकल मैं एड शीरन के गाने सुन रहा हूँ वैसे तो उनका गाया शेप ऑफ़ यू बहुत फेमस हुआ है लेकिन उनके गाये सारे गाने बेहतरीन हैं “परफेक्ट” सुन कर देखें. मेरे आल टाइम पसंदीदा गानों की लिस्ट बहुत लम्बी है लेकिन स्वानंद किरकिरे के गाए गाने अद्भुत हैं. अपने आप में एक फलसफा लिए उनकी लेखनी और आवाज़ आपको दूसरी दुनिया में ले जाते हैं. जैसे लूटेरा फिल्म ( यह ओ हेनरी के उपन्यास पर आधारित है,कभी इस पर भी कुछ लिखूंगा)  का एक गाना है मोंटा रे...  अमिताभ भट्टाचार्य और स्वानंद किरकिरे ने अपनी आवाज़ दी है और शब्द भी अमिताभ भटाचार्य के ही हैं जिसमें वो बीच बीच में बांग्ला के शब्द भी पिरो देते हैं जिसके कारण गीत और भी मधुर मालूम पड़ता है शब्द हैं -

कागज़ के दो पंख ले के उड़ा चला जाये रे
जहां नहीं जाना था ये वहीं चला हाये रे
उमर का ये ताना बाना समझ ना पाए रे
जुबां पे जो मोह माया नमक लगाये रे
के देखे ना भाले ना जाने ना दाये रे
“दिशा हारा केमोन बोका मोंटा रे”

“दिशा हारा” का अर्थ है भटका हुआ, “केमोन” मतलब किधर चला और “मोंटा रे” का अर्थ है मन रे. गीत कार अपने मन से बात कर रहा है की कागज़ के पंख लेके तू कहाँ भटक रहा है? बुद्धि कहती है जिधर नहीं जाना उधर क्यूँ जाता है?? पूरा गीत सुनें. एक -एक अंतरे पर एक ब्लॉग लिखा जा सकता है, अद्भुत !!   

इसी ज़मीन पर स्वानंद किरकिरे ने फिल्म हजारों ख्वाहिशें ऐसी में एक खूबसूरत गीत लिखा और गाया है बोल हैं -

बावरा मन देखने चला एक सपना
बावरे से मन की देखो बावरी हैं बातें
बावरी सी धड़कने हैं बावरी हैं साँसें
बावरी सी करवटों से निंदिया दूर भागे

सुनें इन बेहतरीन नगमों को और करें आज अपने बावरे मन से कुछ बावरी सी बातें... कौन कहता है आजकल अच्छे गाने नहीं बन रहे या नहीं गाये जा रहे.

-मनमोहन जोशी

ओ रंगरेज़....





फिल्म भाग मिल्खा भाग में एक बेहद खूबसूरत सूफी गाना है “ओ रंगरेज़”.. जावेद बशीर और श्रेया घोषाल की जादुई आवाज़ में इसे सुनिए, शर्त लगा सकता हूँ कि दुबारा सुने बिना नहीं रह पाएंगे. शंकर एहसान लोय की तिकड़ी ने अद्भुत सुरों से सजाया है इस गाने को. और प्रसून जोशी ने क्रिएट किया है शब्दों का मैजिक.
  
ओ रंगरेज़
ओ रंगरेज़ तेरे रंग दरिया में
डूबना है बस तेरा बन के
 नहीं रहना दूजा बन के

एक भी सांस अलग नहीं लेनी
खींच लेना प्राण इस तन के
हाय, नहीं रहना दूजा बन के
अपने ही रंग में मुझको रंग दे
धीमे धीमे रंग में मुझको रंग दे
सोंधे सोंधे रंग में मुझको रंग दे
रंग देना, रंग देना, रंग दे
ना

इस गाने को समझने के लिए ये जानना ज़रूरी है कि ये रंगरेज़ कौन है? और किस सन्दर्भ में यहाँ रंगरेज़ शब्द का उपयोग किया गया है.

रंगरेज़, शब्द फारसी भाषा का है जिसका अर्थ है रंग में रंगने वाला. प्राचीन समय में भारत का नील और रंगों का व्यापार पूरी दुनिया में हुआ करता था. इरान, इराक और मिश्र में भी हमारा व्यापार होता था. वहां के लोगों द्वारा ही हमे रंगरेज कहा जाता था. जिसका अर्थ कपडे रंगने वाले होता है. 

रंगरेजों के पूर्वज मुशरिक थे. तनु वेड्स मनु के एक गाने में जो महान वडाली बंधू की कंपोज़ की हुई कवाली है, जिसमें कुछ लाइनें आती है – “मेरा मुशरिक तू, मेरा मग़रिब तू”. मुहम्मद बिन कासिम के सिंध के राजा दाहिर को पराजित करने के बाद 9वी 10वी शताब्दी में मुस्लिम समुदाय के संपर्क में आने के बाद तथा सूफी संतो से प्रभावित होकर इन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया.

लेकिन सुफिस्म में रंगरेज़ शब्द का उपयोग एक अलग ही ढंग से किया जाता है उस एक व्यक्ति के लिए जिसने आपको अपने रंग में रंग दिया हो या आप जिसके रंग में रंग जाना चाहते हैं. आप जिसके प्रेम में हों उसके लिए रंगरेज़ शब्द का उपयोग करते हैं. गुलाम फरीद खुदा के लिए रंगरेज़ शब्द का उपयोग करते हैं तो रूमी इस रहस्यमयी संसार को चलाने वाली उस परम शक्ति को रंगरेज़ कहते हैं. 

कबीर ने गुरु को रंगरेज़ कहा है. अपने एक पद में कबीर लिखते हैं “सद्गुरु मेरे रंगरेज़ मेरी चुनर रंग डाली.” यहाँ रंगरेज़ गुरु हैं और चुनर का अर्थ आत्मा से है.

तो रंगरेज़ का एक अर्थ निकलता है ऐसा शख्स जो आपकी आत्मा को रंग दे अपने ही रंग में.

सूरदास अपने एक पद में श्री कृष्ण को रंगरेज़ कहते हैं और रंग जाना चाहते हैं उनके ही रंग में :-
“श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया ।
ऐसी रंग दे
, के रंग नहीं छुटे ।
 धोबिया धोये चाहे सारी उमरिया ॥

लाल ना रंगाऊं मैं तो, हरी ना रंगाऊ।
अपने ही रंग में रंग दे चुनरिया ॥“

मेरे देखे कुछ चीज़ें समझने से ज्यादा महसूस करने की होती हैं. तो रंगरेज़ को समझने से ज्यादा अच्छा है महसूस करके देखा जाए. तो ढूंढें उस एक को जिसके रंग में आप रंग जाना चाहते हैं. अपने रंगरेज़ को. और तब तक वडाली बंधुओं की आवाज़ में खो जाइए और रंग जाइए राजशेखर जी के शब्दों के रंग में इस क़व्वाली के साथ. यू ट्यूब पर उपलब्ध है :

ऐ रंगरेज़ मेरे
, ऐ रंगरेज़ मेरे,
ये बात बता रंगरेज़ मेरे
ये कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला है
के दिल बन गया सौदाई....


✍️MJ