Diary Ke Panne

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

Flight Number 6E 708

19-February-2017



              स्वामी विवेकानंद एअरपोर्ट, माना, शाम 5.00 बजे ....... अनाउंसमेंट सुनाई पड़ती है की इंदौर के लिए उड़ान भरने वाले यात्री जो उड़ान संख्या 6E 708 से उड़ान भरने वाले हैं गेट नंबर 6 पर पहुँच जाएं...... मैं गेट नंबर 6 पर पहुँच गया हूँ.... सामने कुछ लोग हैं और पीछे भी लम्बी लाइन है.... पीछे से कुछ लड़कों के हंसने की आवाजें आ रही हैं... शायद कॉलेज का कोई ग्रुप है.... सामने एक लड़की को CISF का सिपाही रोक लेता है... पीछे से लड़कों का कमेंट आता है मैडम की स्पेशल चेकिंग चल रही है क्या ???... गार्ड कहता है कि आपके बैग में जो टैग लगा है उसमें सील नहीं लगी है आप सील लगवा आयें... फिर लड़कों का एक तीखा कमेंट और ज़ोरों से हंसने की आवाज़... मुझे नहीं पता की उस लड़की तक लड़कों की आवाज़ पहुंची या नहीं... मुझ तक तो पहुंची... मैं पीछे मुड़कर उनको घूरता हूँ... लड़कों के कमेंट तो बंद हो गए हैं लेकिन रूक-रूक कर उनकी जोर से हंसने की आवाजें आ रही हैं... मैं अपनी सीट पर पहुँच गया हूँ... सोचता हूँ इतनी टाइट सिक्यूरिटी और एअरपोर्ट जैसी जगह पर जो लड़के कमेंट करने से नहीं चूक रहे वो किसी एकांत गली में “बेंगलुरु” करने से भी नहीं चुकेंगे |

                    हम सबने पढ़ा है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवताः” मेरे मन में हमेशा प्रश्न उठता रहा है, तत्र क्यूँ रमन्ते देवता ??? देवता वहां क्यूँ निवास करते हैं जहां नारी की पूजा होती है ?? मुझे लगता है देवताओं को वहाँ होना चाहिए जहां नारी मात्र का अपमान हो रहा हो ताकि नारी के सम्मान की रक्षा की जा सके...
                    
                     बहरहाल क्या इन सबके पीछे कोई पुरुषवादी मानसिकता जैसी चीज़ है? मेरे देखे नहीं यहाँ सिर्फ एक ही सिद्धांत काम करता है वो है अधिक ताकतवर द्वारा कम ताकतवर को दबाने की कोशिश... अभी पुरुषों का वर्चश्व है तो महिलाओं को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है | जब महिलाओं का वर्चश्व होगा तो पुरुषों को परेशानियों का सामना करना पड़ेगा....सिंपल है| एक उदाहरण से समझते हैं..... हम जब बॉयज स्कूल में पढ़ते थे तब लड़कों का एक समूह किसी ऐसे लड़के को परेशान करने में लगा रहता था जो कमजोर है या जो किसी ग्रुप का भाग नहीं है..... लड़के कमेंट करने के लिए लड़कियों को ढूंढने नहीं जाते थे.... ये जो कम ताकतवर को दबाने या डराने की मानसिकता वाले लोग हैं ऐसे लोगों के बारे में  ही खलील जिब्रान ने कहा है कि इनके अंदर घास फूस भरा होता है | ऐसे लोगों को काक भगोड़े की संज्ञा दी है महान दार्शनिक ने | क्यूंकि डराने का काम तो काक भगोड़ा ही करता है....
  
                  आज कल टीवी पर एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है जिसका पञ्च लाइन है जितनी ज्यादा महिलायें होंगी समाज उतना ज्यादा सुरक्षित होगा.... फिर एक ग़लत बात लोगों के दिमाग में डाली जा रही है..... मेरे देखे कोई भी व्यक्ति किसी लिंग, जाति, धर्म, भाषा, देश या समुदाय विशेष से आने के कारण  अच्छा या बुरा नहीं हो जाता.... उसका अच्छा या बुरा होना केवल उसकी मानसिकता पर निर्भर करता है | 

कहा भी गया है: “न सूरत बुरी है न सीरत बुरी है , बुरा है वही जिसकी नियत बुरी है.... 

                        -मन मोहन जोशी "मन"  

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

नीड़ का निर्माण.....

17 February 2017








                      शाम के 7:30 बजे हैं ..... श्रीमती जी ने फ़ोन किया है .... फ़ोन उठाते ही कहती हैं.... Happy Anniversary To You...... मैं सोचता हूँ आज कौन सी एनिवर्सरी है... शादी की साल गिरह? नहीं वो तो दिसम्बर में आती है...... क्या आज ही के दिन हम मिले थे ?? वो दिन मुझे याद तो नहीं लेकिन इतना तय है आज की तारिख वो तारिख नहीं है ... फिर क्या ??? मैं पूछता हूँ किस चीज़ की एनिवर्सरी? ..... वो नाराज़ होने की जगह उत्सुकता  से चहकते हुए कहती है याद करो आज ही के दिन हमने  अपने घर में प्रवेश किया था...... राहत की सांस लेता हूँ.....

                    याद आता है बचपन में हम जिस पुश्तैनी मकान में रहते थे उसके पीछे बहुत बड़ा बगीचा था और घर के सामने बहुत बड़ी खाली जगह जिसे हम खेल के मैदान के रूप में उपयोग में लेते थे और चारों ओर बहुत सी खुली जगह.... सारे मित्र खेलने हमारे ही तो घर आते थे | घर मिट्टी और खप्पर का था जिसे हम लगातार रिपेयर करवाते रहते थे.... साल भर कोई न कोई काम चलता ही रहता था... बाद में उसे तुडवा कर छत वाला मकान बनवा लिया गया था...

                   मैं 2005 में काम के सिलसिले में घर से निकला था फिर लौटना नहीं हुआ....”हम तो भये परदेशी”.... लेकिन इन कुछ वर्षों में विभिन्न शहरों में भाँती भाँती  के मकानों में रहा कुछ एम्प्लोयेर्स के दिए हुए फ्लैट्स थे तो कुछ में खुद ही किराये से रहा....”मैं कहाँ हूँ कहाँ वतन मेरा, दश्त मेरा न ये चमन मेरा “......मैं सोचा करता था कि एक दिन ये दुनिया छोड़ कर जाना ही है और जब इस शरीर में ही हम किराएदार हैं तो फिर काहे का खुद का मकान??  मैं कभी स्वयं का मकान नहीं बनवाऊंगा |... ये बात मैंने अपने मन को तो समझा ही रखी थी शादी के बाद पत्नी को भी समझाने में कामयाब रहा ..... कुछ तर्क जो मैं दिया करता था यूँ थे :
       
       1.  किराए के मकान में रहना इसीलिए ठीक है कि जब एक जगह रहने से मन भर जाए तो दूसरी जगह मकान ले कर रहने लगो.
       2.  एक दिन सब कुछ छोड़ कर जाना है.
       3.  फ्लैट नहीं खरीदेंगे ( और बड़ा बंगलो खरीदने का बजट नहीं )
       4.  किश्त चुकाने के लिए थोड़े ही इस दुनिया में आये हैं (क्यूंकि होम लोन की किश्त 20 साल चलती है) | आदि आदि.

            लेकिन नियति ने अपना खेल दिखाया और 2016 की 17 फ़रवरी के दिन शुभ मुहूर्त में हमने अपने फ्लैट में प्रवेश किया...फिर मेरे उसूलों और तर्कों का क्या हुआ?? “उम्र भर काम आये मेरे उसूल, एक एक करके इन्हें बेचा किया |” सारे उसूल और तर्क पत्नी की जिद और पत्नी द्वारा अक्सर दुहराए जाने वाले महा वाक्य “आप कुछ भी कर सकते हो मन” के आगे फीके पड़  गए और घर खरीद लिया गया | इस एहसास के साथ कि :

 “बड़ी कठिन है डगर सफलता की, एक जूनून सा दिल में जगाना पड़ता है|
 पूछा जो चिड़िया से कि घोंसला कैसे बनाया अपना ,
 बोली कई उड़ाने भरनी पड़ती है तिनका तिनका उठाना पड़ता है”

           मेरे साथ अच्छा ये रहा कि तिनका उठाने वाला मैं अकेला नहीं था पत्नी ,परिवार और मित्र हमेशा साथ रहे...ये और बात है कि कुछ तकनीकी करणों के चलते पहले लोन में दिक्कतें आ रही थीं और फिर कुछ और परिस्थितिगत परेशानियों के चलते नीड़ के निर्माण के बाद उसे बेचने का ख्याल भी मन में आया...लेकिन अंत में सब ठीक हो गया और हमने आखिरकार अपना घर खरीद ही लिया.... 

          मैंने घर के आगे अपने नाम का कोई बोर्ड नहीं लगवाया है | घर के  के बाहर जो नाम लिखा है वो है “श्री नारायणम” अर्थात घर तो लक्ष्मी और नारायण का है और हम यहाँ मेहमान हैं.... एक फलसफा मेरे साथ चलता रहता है कि जीवन ही एक सराय है यहाँ रहने के लिए साँसों की किश्त लगातार चुकानी पड़ती है और जिस रोज़ किश्त में चूक हुई आप शरीर से बाहर.... तो जब तक हैं... हँसते रहें, मुस्कुराते रहें ,प्यार बांटते रहें और हाँ सबसे महत्वपूर्ण है साँसों की किश्त चुकाना न भूलें........

बरबस ही श्री हरिवंश राय जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं :

   नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्णान फिर-फिर!
क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों में उषा है मुस्कुराती,
घोर गर्जनमय गगन के कंठ में खग पंक्ति गाती;
      एक चिड़िया चोंच में तिनका लि‌ए जो जा रही है,
      वह सहज में ही पवन उंचास को नीचा दिखाती!
 नाश के दुख से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से सृष्टि का नव गान फिर-फिर!
     नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्णान फिर-फिर!


                                       -मन मोहन जोशी “मन”

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

दुनिया मेरे आगे.....

  17 February 2017





  ऑफिसियल टूर पे हूँ रायपुर आया हुआ हूँ.... सुबह-सुबह न्यूज़ उठाकर देखा तो दो खबरों पर नज़र गई
      
        1)     सुप्रीम कोर्ट ने शशिकला को सजा सुनाई है और कहा है की उपहारों को काले धन से बाहर नहीं रखा जा सकता.... एक अखबार के columnist  ने इसे लोकसेवकों के लिए आँखें खोल देनें वाला जजमेंट बताया है|          
       
          2) सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक के मामले में संवैधानिक पीठ बैठाने की बात की है क्यूंकि धार्मिक स्वतंत्रता एक मूल अधिकार है और सुप्रीम कोर्ट मूल अधिकारों का संरक्षक है....
  
           पहली खबर के बारे में बात करूँ तो 1988 के प्रिवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट सेक्शन 11 में स्पष्ट लिखा है की बिना प्रतिफल के कुछ लेना अर्थात उपहार का स्वीकार  करना भ्रष्टाचार की कोटि में आता है... 1988 के पहले जब आय  से अधिक संपत्ति की बात आती होगी तो सरकारी अधिकारी या बाबू उस संपत्ति को उपहार में प्राप्त संपत्ति बता कर मुक्त हो जाते होंगे .... वाकई में शानदार निर्णय लेकिन निर्णय में कुछ भी नया नहीं है....
       
           दूसरी खबर लगातार बुद्धिजीवी वर्ग के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है.... तीन तलाक.... मुझे याद आता है LL.B. के पहले ही वर्ष में मैं बड़े भैया के पास इंदौर भ्रमण के लिए आया था और यहाँ के चमत्कारी सेकंड हैण्ड बुक मार्केट से तीनों वर्षों  की किताबें बहुत ही कम दाम में खरीद लीं थी| इनमें से एक किताब थी "मुस्लिम विधि" ....याद्दश्त पर जोर डालता हूँ तो लगता है इस्लाम में तलाक की अवधारणा बिलकुल स्पष्ट है और लोग बिना पढ़े फालतू की बहसों में अनर्गल बोलते रहते हैं....

       कुरान शरीफ के अनुसार:  सूरेह निसा-35 में लिखा है : और अगर तुम्हें शौहर बीवी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुक़र्रर कर दो, अगर शौहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब की खबर रखने वाला है
     
         जब किसी पति-पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखाई दे तो कुरान में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायतें दी है कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें। इसका तरीका कुरान ने यह बतलाया है कि  एक फैसला करने वाला शौहर के खानदान में से नियुक्त करें और एक फैसला करने वाला बीवी के खानदान में से चुने और वो दोनों पक्ष मिल कर उनमे सुलह कराने की कोशिश करें। इससे उम्मीद है कि जिस झगड़े को पति पत्नी नहीं सुलझा सके वो खानदान के बुज़ुर्ग और दूसरे हमदर्द लोगों के बीच में आने से सुलझ जाए।
        
             इसके बावजूद भी अगर शौहर और बीवी दोनों या दोनों में से किसी एक ने तलाक का फैसला कर ही लिया है, तो शौहर बीवी के खास दिनों (Menstruation) के आने का इंतजार करे, और खास दिनों के गुज़र जाने के बाद  कम से कम दो जुम्मेदार लोगों को गवाह बना कर उनके सामने बीवी को एक तलाक देयानी शौहर बीवी से सिर्फ इतना कहे कि मैं तुम्हे तलाक देता हूं

              तलाक हर हाल में एक ही दी जाएगी दो या तीन या सौ नहीं  तीन तलाक का प्रावधान इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ अमल है और बहुत बड़ा गुनाह है। इस एक तलाक के बाद बीवी 3 महीने यानी 3 तीन हैज़ (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और अगर वो प्रेग्नेंट है तो बच्चा होने तक) शौहर ही के घर रहेगी और उसका खर्च भी शौहर ही के जिम्‍मे रहेगा|  कुरान ने सूरेह तलाक में हुक्म फ़रमाया है कि इद्दत पूरी होने से पहले ना तो बीवी को ससुराल से निकाला जाए और ना ही वो खुद निकले, इसकी वजह कुरान ने यह बतलाई है कि इससे उम्मीद है कि इद्दत के दौरान शौहर बीवी में सुलह हो जाए और वो तलाक का फैसला वापस लेने को तैयार हो जाएं।

              सूरेह बक्राह-229 में कहा गया है : फिर अगर शौहर बीवी में इद्दत के दौरान सुलह हो जाए, तो फिर से वो दोनों बिना कुछ किए शौहर और बीवी की हैसियत से रह सकते हैं। इसके लिए उन्हें सिर्फ इतना करना होगा कि जिन गवाहों के सामने तलाक दी थी, उन्‍हें खबर कर दें कि हमने अपना फैसला बदल लिया है, कानून में इसे ही रुजूकरना कहते हैं और यह ज़िन्दगी में दो बार किया जा सकता है, इससे ज्यादा नहीं।

सारे प्रावधान स्पष्ट हैं... 

             1:30 बज रहे हैं थोड़ी देर पहले ही मीटिंग्स से फ्री हुआ हूँ ..... खाने का आर्डर किया था सोचा जब तक खाना आ रहा है तब तक कुछ लिख ही लूं .......खाना लग गया है |


                                -मन मोहन जोशी “मन”

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

हर एक से अपनी भी तबीअ'त नहीं मिलती.....

14 February 2017



                    शाम के 5.50  बजे हैं ... valentine’s day सेलिब्रेट करने वाइफ के साथ अभी ऑफिस से निकला हूँ.... एक फ़ोन कॉल आता है....... निश्छल खिलखिलाती हुई हंसी के साथ आवाज़ कान में पड़ती है.... मनमोहन?.... मैं कहता हूँ, हाँ!.....आवाज़ आती है  कैसा है??..... मैं पूछता हूँ कौन अनुराग??...... एक बचपन का मित्र जिसने एक दिन पहले फेस बुक पर मेरा नंबर लिया था उसने फ़ोन किया है.....कई सालों बाद हमने फ़ोन पर एक दुसरे की आवाज़ सुनी........ मिले तो कई साल बीत गए.... लगता है जैसे कई जन्म बीत गए हों.... लेकिन जब याद करता हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है की कल ही की तो बात थी जब हम एक ही स्कूल के एक ही क्लास  में पढ़ते थे (पढ़ते तो क्या थे बदमाशियां करते थे) ..... मैं कहता हूँ तेरी आवाज़ तो बदली ही नहीं... और जवाब में वही जानी पहचानी हंसी.....

              सोचता हूँ की जीवन की असली कमाई ये दोस्त ही तो हैं...... याद आता है मैं एक बार जोधपुर (राजस्थान का एक शहर) में बीमार पड़ा था, सात दिनों तक हॉस्पिटल में एडमिट रहा था और सात दिन बाद जब डॉक्टर ने डिस्चार्ज करने की बात की तो मैंने पूछा था क्या एक आध दिन और रह सकता हूँ?? कारण थे वो मित्र जिन्होंने सुबह शाम हॉस्पिटल में मेरा ख्याल रखा ... घर वालों की तो याद ही नहीं आई.....

             ये फ्रेंडशिप या मित्रता आखिर क्या बला है ?? मेरे देखे ये ऐसा प्रगाढ़ सम्बन्ध है जो देश, काल, परिस्थिति , लिंग , वंश, जन्मस्थान, जाति आदि से परे है.....  मित्रता की अवधारणा, स्वरूप और उसके सामाजिक-मनोवैज्ञानिक पक्षों का समाजशास्त्र, सामाजिक मनोविज्ञान, नृतत्वशास्त्र, दर्शन, साहित्य आदि आकादमिक अनुशासनों में अध्ययन किया जाता रहा है। इससे संबंधित अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि सामाजिक विनिमय सिद्धांत, साम्य सिद्धांत, संबंधात्मक द्वंद्ववाद, आसक्ति पद्धति आदि। 

विश्व खुशहाली डाटाबेस के अध्ययनों में पाया गया है कि जिनके अधिक मित्र होते हैं वे तुलनात्मक रूप से ज्यादा खुशहाल रहते हैं ।

            मेरे देखे दुनिया की कोई भी ख़ुशी परिपूर्ण नहीं होती, जब तक कि उसमें मित्रों का साथ न हो । आचार्य श्री रामचंद्र शुक्ल ने कहा है, “सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की सी निपुणता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती है, ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक को करना चाहिए।" सोचता हूँ क्या मित्रता भी प्रयत्न करने से हो सकती है????

            एक बार किसी व्यक्ति ने गौतम बुद्ध से पूछा कि क्या बुद्धपुरुष के भी मित्र होते हैं? उन्होंने जवाब दिया: नहीं। प्रश्नकर्ता अचंभित रह गया, क्योंकि वह सोच रहा था कि जो व्यक्ति स्वयं बुद्ध हो चुका उसके लिए सारा संसार ही मित्र होना चाहिए। पर मेरे देखे गौतम बुद्ध बिलकुल सही कह रहे हैं। जब वे कहते हैं कि बुद्धपुरुष के मित्र नहीं होते, तब वे कह रहे हैं कि उनका कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि उनका कोई शत्रु भी नहीं होता। ये दोनों चीजें एक साथ आती हैं। इससे ये बात तो साफ़ हुई की बुद्ध बनने की राह पर चलते हुए अपन महावीर के स्यात वाद तक भी नहीं पहुँच पाए  .... क्यूंकि अपने तो मित्र हैं....

             बरबस ही निदा फाजली की कुछ पंक्तियाँ मन के द्वार पर दस्तक दे रही हैं :

“हँसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत,
रोने की यहाँ वैसे भी फ़ुर्सत नहीं मिलती |

कुछ लोग यूँही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं,
हर एक से अपनी भी तबीअ'त नहीं मिलती ||”


         -       मन मोहन जोशी “मन”

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

प्रेम न बाड़ी उपजे.......


14 February 2017

                   वैलेंटाइन वीक चल रहा है..... अच्छा है इसी बहाने कम से कम लोग प्रेम के बारे में बात तो करते हैं.... हमारे समाज में प्रेम हमेशा से एक निषिद्ध विषय रहा है और मुर्खता का आलम ये है की एक संगठन विशेष ने इस दिन मातृ-पितृ दिवस मनाने का आह्वान किया है और कुछ संगठन विशेष वैलेंटाइन्स डे का विरोध करने की योजना बना चुके हैं. मेरे देखे इस विरोध का एक कारण यह भी है कि वर्तमान समय में प्रेम का समानार्थी हो गया है केवल शारीरिक आकर्षण और इसके लिए एक शब्द गढ़ दिया गया है  लफड़ा |

              खैर खाप पंचायतों के इस दौर में लगातार ऐसी ख़बरें भी आती रहती हैं की प्रेम विवाह करने के कारण लडके या लड़की वालों ने नव विवाहित दंपत्ति को मौत के घाट उतार दिया | फिर सभ्य समाज ने ऐसे घ्रिणीत कृत्य  के लिए बड़ा ही सुन्दर शब्द भी गढ़ा है “ मान हत्या (honour killing)”....

               सोचता हूँ समाज को हो क्या गया है?? लोगों को ये समझना होगा कि प्रेम किया नहीं जाता है.... ये तो होता है... अगर किया जाता तो शायद लड़का या लड़की पहले एक दुसरे  का इंटरव्यू ले लेते और जब सब चीज़ें ठीक परिवार या समाज के अनुकूल होती तब प्रेम करते | लेकिन संयोग वश ऐसा नहीं है........ हमारा समाज किस तरह बंटा  हुआ है ये जानना हो तो किसी भी अखबार को खोलकर उसका वैवाहिक विज्ञापन देख लीजिये.....

बहरहाल मैंने जितना प्रेम को पढ़ा है उससे कई गुना ज्यादा जिया है ......  मेरे देखे प्रेम तीन तरह का होता है:
       
        1.  Fall in Love: प्रेम में गिरना या प्रेम में पड़ना..... शायद यही वाला प्रेम है जिसे लफड़े की संज्ञा दी जाती है..... यह निकृष्ट कोटि का होता है जिसमें केवल मांग होती है.... ऐसे प्रेम में ही मन में प्रश्न  उठता है do you love me??

         2.   Being in Love: प्रेम में होना.....इस तरह के प्रेम में व्यक्ति महत्वपूर्ण हो जाता है और चीज़ें छोड़ने लायक हो जाती हैं , यही कारण है की प्रेमी प्रेमिका एक दुसरे को गिफ्ट देते रहते हैं...... प्रेमी कुछ छोड़ता तो है लेकिन हिसाब भी रखता है की बदले में उसे क्या मिला......
         
        3. Rise in Love: प्रेम में उठना.....यह प्रेम का उत्कृष्ट रूप है इस तरह के प्रेम में दूसरा ही महत्वपूर्ण होता है या ये कहना ठीक होगा की इसमें दुई खो जाती है सिर्फ एक ही बचता है...... ऐसे प्रेम के बारे में नारद कहते हैं “सा परम प्रेम स्वरूपा भक्ति.......” या कबीर ने कहा " प्रेम गली ऐसी संकरी जा में दुई न समाई."

              या इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं: पहले किसी को प्रेम होता है फिर वो प्रेम में होता है और अंत में प्रेम ही होता  है व्यक्ति खो जाता है.... बचपन में हम सभी ने कबीर और रहीम को पढ़ा “ ढाई आखर प्रेम का.....”  या  “रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो .....” ये कुछ ऐसे पद हैं जो प्रेम की गहनतम अनुभूति में लिखे गए हैं और हिंदी के ऐसे मास्टर हमें मिले जिन्होंने इस अनुभूति को समझाने के बजाय हमें प्रश्नोत्तर रटवा  दिए.... अन्यथा प्रेम , प्रेम ही रहता लफड़ा नहीं बन जाता.....
       
              अब प्रश्न ये उठता है कि कैसे ये समझ में आये कि  वास्तविक प्रेम हुआ है या केवल शारीरिक आकर्षण है... रहीम का एक पद बचपन में पढ़ा था  “अमी झरत बिगसत कँवल चहूं दिसी बास सुबास”..... अर्थात जिस घडी आपको प्रेम होता है उस घडी अमृत की वर्षा होने लगती है, चारों ओर कमल खिलने लगते हैं और एक किस्म की सुगंध फैल जाती है.... ये सब मैंने अनुभव किया है | 

            कबीर के अनुसार प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सकता उन्होंने इसे गूंगे के गुड़ की संज्ञा दी है.... सामान्यतः हर कोई प्रेम को परिभाषित करने से  बचता रहा है.....लेकिन वर्तमान समय के ख्यात गीतकार अनुज “अमन अक्षर” ने प्रेम को बड़ी खूबसूरती से परिभाषित करते हुए कहा है:

”प्यार है बारिशों का भरम पालना, भीगना तो हमें रोज़ भीतर से है |
प्यार संध्या के इक दीप का है सफ़र, बस निकलना हमें रात के डर  से है ||”

              मुझे याद आता है मेरा पहला प्रेम संगीत ही था... एक समय मैं चौबीसों घंटे शास्त्रीय संगीत में ही रमता था.... फिर मेरा परिचय किताबों से हुआ..... दोनों ही प्रेम अनवरत जारी हैं... वर्ष 2005 में मुझे विधिवत एक  लड़की से प्रेम हुआ जो वर्तमान में मेरी धर्म पत्नी है.... प्रेम की गहन अनुभूति के क्षण थे वे.... “ये दिन क्या आये लगे फूल हंसने, देखो बसंती बसंती होने लगे मेरे सपने....” टाइप के विचार मन में आते... ऐसी बातें मन के सागर में हिलोरें लेने लगती जिसे किसी से कह देना चाहता था... लेकिन किसी ने कहा है “कौन कहता है मोहब्बत की जुबां होती, ये हकीक़त तो निगाहों से बयां होती है....” सो किसी से कह तो नहीं पाया लेकिन अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए डायरी लिखने की शुरुआत की....उम्र के किसी पड़ाव में डायरी के उन अवाचित पन्नों को भी प्रकाशित किया जाएगा...
   
"प्रेम न बाड़ी उपजे , प्रेम न हाट बिकाय |
राजा परजा जेहि रुचे , शीश देई लेई जाय ||"

  प्रेम दिवस की शुभकामनाएँ |
                                         -मन मोहन जोशी “मन”



गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

मेरी मंजिलें कहीं और हैं ... मुझे रास्तों की तलाश है.

02 Feb 2017



                           अक्सर  काम करते हुए जब आप एक ढर्रे में सिमट जाते हैं और ठीक-ठाक आमदनी होने लगती है तो मन में "जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ" टाइप के ख्याल आने लगते हैं...... लेकिन परमपिता समय - समय पर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करते हैं कि आपको ये सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या यही आपकी मंजिल है ...क्या यही आपकी नियति है... क्या आप सही जगह पर  हैं???

                        मेरे देखे इसके लिए ईश्वर की अपनी प्लानिंग और तरीके होते हैं कई बार ये आपको ऐसे बॉस  के सामने खड़ा  कर देते हैं जो कहता है कि कुछ वर्ष और मेहनत करो फिर तुम मेरी तरह बन सकते हो और आपकी नींद हराम हो जाती है ये सोच कर कि क्या मैं इसके जैसा बनना भी चाहता हूं???... या  कई बार आपके सहकर्मी के रूप में ऐसे  किसी व्यक्ति को ला खड़ा करते हैं जो लगातार आपके काम में बाधक बनता है या भरी सभा में व्यवस्था का चीर हरण करता है और आप सोच में पड़ जाते हैं... जो भी हो मेरे देखे तो ये परमपिता का प्रेम है और अपने प्रिय पुत्र को जगाने हेतु वो ये हथकंडे अपनाते हैं....

                       एक अध्ययन के मुताबिक  कार्य  क्षेत्र एक ऐसी जगह होती है जहां आप अपने जीवन के जागते हुए हिस्से का लगभग  75%  वक्त बिताते हैं.....मेरे देखे प्रत्येक व्यक्ति को वर्ष में एक बार यह समीक्षा ज़रूर करनी चाहिए कि  क्या वो सही लोगों के बीच सही जगह पर अपने जीवन के 75 % हिस्से का निवेश कर रहा है.........

                       मैंने भिन्न-भिन्न राज्यों में विभिन्न संस्थानों में भाँती भाँती के लोगों के साथ कई तरह के काम किये हैं... याद आता है पहला काम गुरुद्वारे में तबला वादक का मिला था... 10 वीं कक्षा की छुट्टियाँ चल रही थीं और  रु. 550 के मासिक वेतन के साथ यह मेरा पहला काम था .... सुबह 1.00 घंटे गुरुबानी के साथ तबला बजाना होता था और हर महीने पैसे मिल जाते थे जिससे जेब खर्च चलता रहता था........ मैंने "विआनी" चर्च में पादरी बनने की ट्रेनिंग लेने वाले बच्चों को फिजिक्स और मैथ्स पढ़ाया... छत्तीसगढ़ के सुदूर अंचल कांगेर घाटी  नेशनल पार्क में आदिवासी बच्चों को कंप्यूटर सिखाया ...... खुद का कोचिंग इंस्टिट्यूट M M Tutorials चलाया.... दूरदर्शन में एनाउंसर का काम किया.... आकाशवाणी में Com-parer का काम किया..... कोर्ट में प्रैक्टिस की.... मल्टीनेशनल कम्पनीज में सेल्स एग्जीक्यूटिव से लेकर Area Head, HR Head जैसे विभिन्न  पदों पर रहा.... और वर्तमान में एक शैक्षणिक संस्थान के साथ सीईओ के पद पर कार्यरत हूँ......इन सबके  साथ-साथ लेखन, और अन्य रचनात्मक कार्य तो चलते ही रहे.......

 उक्त सभी कार्यों में दो बातें समान रहीं :

1) मुझे टीम हमेशा कमाल की मिली :  शायद दुनिया की बेहतरीन टीमों  के साथ मैंने काम किया है और वर्तमान में भी कर रहा हूँ ...... यही कारण है कि  हमेशा परिणाम बेहतर मिले......शुरू से लेकर आज तक के सारे टीम मेम्बेर्स मेरे ज़ेहन में हैं उनमें से अधिकतर के साथ मैं आज भी संपर्क में हूँ...... टॉप ब्रांच हेड से लेकर टॉप एरिया हेड तक के अवार्ड से नवाज़ा गया हूँ और ये सारे अवार्ड मैं अपने टीम मेम्बेर्स को समर्पित करता हूँ.

2) ईश्वर का साथ : हमेशा परम पिता का साथ बना रहा .... मैं लगातार उनकी उपस्थिति महसूस कर सकता हूँ कठिन समय में उनकी उपस्थिति और प्रगाढ़ हो जाती है और भीतर से  एक आवाज़  गूंजती है ... मैं हूँ .......सिर्फ इस आवाज़ के चलते मैं जीवन के कठिन समयों में दृढ रहा हूँ और तनाव वाले दौर में आनंद के सागर में ....... कई बार वो कहते हैं  बस तेरी ज़रूरत यहीं तक थी अब कुछ दूसरा कर..... मैं किसी एक काम को शिखर तक पहुंचा कर किसी नए तरह के काम में लग जाता हूँ....... कमाल की अनुभूति  है....

 इसीलिए कभी कोई मेरे वर्क एक्सपीरियंस के बारे में पूछता है तो बरबस ही ये लाइनें याद आ जाती हैं

" मेरी उम्र से मेरे तजुर्बे का अंदाज़ा न लगा ,
यूँ चुल्लू से समंदर न खंगाला जाएगा."

                                          - मन मोहन जोशी "मन"

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

शिशुपाल वध , माघ और मैं......

31 January 2017



         तबीअत नासाज़ है छुट्टी पर चल रहा हूँ और छुट्टियों का सदुपयोग कैसे किया जाय ये मुझसे अच्छा भला कौन जानता होगा ...... जी हाँ पढ और लिख कर.... शायद इस तरह से छुट्टियों का ही नहीं जीवन का भी सदुपयोग किया जा सकता है.... तो क्या? महाकवि माघ की रचना उठा ली पढने के लिए “शिशुपाल वध”... अहा! क्या शिल्प है... वाह! क्या काव्य है... ऐसा लगा जैसे मेरे हाथ कोई खजाना लग गया हो.... यदि आप संस्कृत भाषा से प्रेम करते हैं और आपने माघ को नहीं पढ़ा तो फिर आपका प्रेम अधुरा है..........

           मुझे याद आता है संस्कृत से मेरा विधिवत परिचय कक्षा छठी में हुआ.... शाला उत्सव में मुझे कार्यक्रम की शुरुआत सरस्वती वंदना से करनी थी और बड़े भैया ने उस समय के कक्षा आठ का पहला पाठ मुझे कंठस्थ करने को कहा.... कठिन शब्दावली..... जिसे पढ़ते न बने उसे याद करना बाप रे बाप!! .... मझले भैया  की मदद से याद कर पाया.... और मुझे वो अभी भी याद है :

या कुंदेंदु तुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता | या वीणावर दण्डमंडितकरा, या श्वेतपद्मासना ||
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता | सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्यापहा ||
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमां आद्यां जगद्व्यापिनीं| वीणा पुस्तक धारिणीं अभयदां जाड्यान्धकारापाहां||
हस्ते स्फटिक मालीकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां| वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धि प्रदां शारदां||

            यहाँ से वंदना शुरू होती थी और समाप्त होती थी ...... “नाद ब्रहम मई जय वागीश्वरी तव चरणौ प्रणमामः “ शब्दों के साथ ...... पहली मंचीय प्रस्तुति भी मेरे जीवन में यही रही जैसा मुझे याद है... बड़ी जन सभा के सामने मंच पर जाने का साहस मैं नहीं जुटा पा रहा था..... बड़े भैया ने कहा मैं मंच पर रहूँगा और कुछ भूल जाएगा तो याद दिला दूंगा.... इस बात से मुझे बड़ा संबल मिला.... फिर क्या था वंदना मैंने पढ़ी और पूरा सभाग्रह तालियों की अनुगूँज से भर गया.... यहाँ से शुरू होता है मेरा संस्कृत प्रेम.......

         बहरहाल मैं शिशुपाल वध पढ़ रहा हूँ ..... पूरा पढ़ लूँगा तो शायद कुछ लिखने की स्थिति में नहीं बचूंगा इसीलिए कुछ ख़ास बातें जो मैंने पढ़ीं और समझी सोचता हूँ डायरी में उतार लूं | इस महा काव्य  को पढ़कर मैं संस्कृत  साहित्य की अनंतता को भी  समझ रहा हूँ... एक श्लोक जो मुझे  प्रिय लगा कुछ इस तरह है:
           "चतुर्थोपायसाध्ये तु शत्रौ सान्त्वमपक्रिया। 
           स्वेधमामज्वरं प्राज्ञः कोऽम्भसा परिषिञ्चति।।"
अर्थात: दण्ड के द्वारा वश में आने वाले लोगों  के साथ शान्तिपूर्ण व्यवहार करना अंततः हानि ही पहुंचता है, क्योंकि पसीना लाने वाले ज्वर को कौन सा चिकित्सक पानी छिड़ककर शान्त करता है ? अर्थात् कोई नहीं।

             इस महाकाव्य को पढ़ते हुए  पहली बार मेरा परिचय एकाक्षर श्लोक से हुआ.... एकाक्षर श्लोक ऐसा श्लोक होता है जिसमें केवल एक ही अक्षर से शब्दों की रचना और फिर श्लोक भी रच दी जाते हैं देखिये महाकवि माघ की विद्वत्ता का एक और परिचय...... अद्भुत श्लोक .
         “दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः|
           दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः||”
         इस श्लोक में  केवल द अक्षर का ही प्रयोग किया गया है .... अद्भुत

अर्थ  : दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खण्डन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया|  इस अद्भुत श्लोक के माध्यम से महाकवि ने उस समय का वर्णन करने हेतु द वर्ण के प्रयोग से चमत्कार उत्पन्न किया है जब शिशुपाल का वध करने हेतु श्री कृष्ण खड़े हुए और हाथ में सुदर्शन चक्र ले लिया...... वाह!

आनंद के सागर में गोते लगा रहा हूँ ....


                                   -मन मोहन जोशी "मन"