Diary Ke Panne

शनिवार, 30 दिसंबर 2017

स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया- वर्ष का अंतिम दिन




आज वर्ष का अंतिम दिन है ...
 
            पिछले वर्ष आज ही के दिन मैंने इस ब्लॉग को लिखना शुरू किया था....देखता हूँ तो लगता है क्षण भर पहले ही तो पिछला साल आया था और पलक झपकते ही बीत चला. जीवन भी कुछ ऐसे ही बीत रहा है. क्या इसे ही बुद्ध ने क्षणिक वाद कहा है. कोई भी वस्तु या पदार्थ स्थायी नहीं है वह क्षण प्रति-क्षण परिवर्तित होती रहती है. बुद्ध ने इसकी तुलना दीपशिखा की लौ से की और कहा कि प्रत्येक पदार्थ अनित्य है, यह संसार अनित्य है. मेरे देखे यही क्षणिकवाद का सार है... पहले कहीं पढ़ा था आज अनुभूति हो रही है.

         समय सापेक्ष होता है अगर इसके सापेक्ष कुछ न हो तो हमें समय के बीतने का पता ही न चले. सुखद समय जल्दी बीत जाता है और दुःख का समय लम्बा होता है. लेकिन समय सुख का हो या दुःख का इसकी अच्छी आदत यह है की यह बीतता ज़रूर है.

        जब मैं छोटा था तो नए वर्ष का बेसब्री से इंतज़ार होता था क्यूंकि मेरा न्यू इयर सेलिब्रेशन सबसे लम्बा चलता था... शुरुआत, महीनों पहले पिकनिक की प्लानिंग से होती थी. कई यादें हैं. एक बार मैं अपने संगीत स्कूल के मित्रों के साथ पिकनिक पर गया था. वर्ष का पहला दिन हमने कांगेर घाटी नेशनल पार्क में मनाने का फैसला किया.. कांगेर घाटी नेशनल पार्क, छत्तीसगढ के बस्तर में स्थित है. कांगेर घाटी में वन देवी अपने पूरे श्रृंगार मे मंत्रमुग्ध कर देने वाली दृश्यावलियों को समेटे, भूमिगर्भित गुफाओ को सीने से लगाकर यूं खडी रहती है मानो आपके आगमन का इंतजार कर रही हो.

         उन दिनों मैं कक्षा 9 में पढता था. हम कांगेर घाटी नेशनल पार्क में कैलाश गुफा देखकर दोपहर तक भोजन पकाने व खाने हेतु  घने जंगले के बीच पहुँच गए... हमारे ग्रुप में लडकियां, बच्चे तथा वृद्ध भी थे. पूरी प्लानिंग हमारे शिक्षक रामदास वैष्णव सर के हाथों में थी. सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक तेज़ बारिश शुरू हो गई. हम एक खुले ट्रक में गए थे.. जिसमें गद्दे बिछाए हुए थे . पानी ट्रक में भर रहा था और हम असहाय थे. अब सब कुछ हॉलीवुड फिल्म की तरह लग रहा था. घने जंगले में शाम घिरने को थी. जंगली जानवरों का डर और तेज़ बारिश. ड्राईवर गाड़ी घुमा कर बाहर की ओर  निकालने की कोशिश करने लगा. लेकिन गाडी कच्चे रस्ते में फंस गई.
सभी ने निर्णय लिया की गाड़ी को वहीँ छोड़ कर पैदल चलना चाहिए.लेकिन कितनी दूर चलना होगा ? क्या शाम ढलने से पहले बाहर निकल पाएंगे ?

         हम लोग बहुत देर चलते रहे .. पूरी तरह से भीग चुके थे. रास्ता नहीं सूझ रहा था कि  तभी फ़िल्मी स्टाइल में एक झोपड़ी दिख पड़ी ... हम सब झोपड़ी में समां गए.. अलाव जलाई गई.... और पता नहीं कब मुझे नींद आ गई ... आधी रात में मुझे लगा जैसे पापा पुकार रहे हों ( पापा हमारे रियल हीरो रहे हैं). आँख खोली तो देखा पापा सामने खड़े थे. हमें खोजते हुए वो यहाँ तक पहुंचे थे. बहुत सारा खाने का सामान पापा साथ लाये थे... उन्होंने हमें रेस्क्यू किया.. रस्ते भर वो मास्साब को फटकार लगाते रहे. ऐसी कई यादें हैं नए साल को लेकर, जो कभी फिर प्रसंग वश शब्दों में उतारी जायेगी.

 
       बहरहाल वर्ष के इस अंतिम दिन पिछला वर्ष मेरे सामने है क्या खोया क्या पाया वाले अंदाज़ में. मेरे देखे इस दुनिया में कुछ भी खोने जैसा नहीं है क्यूंकि खाली हाथ ही तो आये थे इस दुनिया में..... और खाली हाथ ही जाना है . लेकिन इस आने और जाने के क्रम में जीवन पथ पर बढ़ते जाना और हर क्षण कुछ नया सीखना महत्वपूर्ण है. महत्वपूर्ण यह भी है की हम बेहतर और बेहतर होते चले जाएँ और अपने आप को जान सकें.
      
         सीखना एक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली प्रक्रिया है. जीव गर्भ में आने के साथ ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है. धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है. इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं.

          जीवन पथ में जो कुछ भी मिला है आज उसका शुक्रिया अदा करता हूँ और जो कुछ भी आने वाला है मुस्कुराकर उसका स्वागत करने को तैयार हूँ ....

बकौल कुंवर बेचैन साहब :
“चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया.

जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया.

आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों,
मेरी राह में आने का शुक्रिया.

सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया.”

आज बचे हुए शेष जीवन का पहला दिन है ......


(c) मनमोहन जोशी 

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

अनुभव का “अ”





              दो रोज़ पहले परीक्षाओं के रिजल्ट घोषित हुए. जैसा कि हमेशा ही होता है सफल प्रतिभागियों की संख्या असफल प्रतिभागियों से कम है इसका कारण यह है कि पद संख्या से प्रतिभागियों की संख्या हमेशा ही कई गुना होती है.देखता हूँ कि कीमती जीवन केवल परीक्षा की तैयारी और सिलेबस पूरा करने में खर्च हो रहा है. उस पर तुर्रा यह की ये दौड़ कभी ख़त्म नहीं होती. जो जिस पद को प्राप्त कर चुका है वह उससे संतुष्ट नहीं है, बड़े पद की चाह रखता है गोया कि दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, जो मिल जाए वो मिट्टी है, जो खो जाए वो सोना है.

            मेरे देखे युवाओं को आत्ममंथन की आवश्यकता है. ये ठीक है कि सफल व्यक्ति को सभी सलाम करते हैं. सभी सफलता पाना चाहते हैं. लेकिन सफलता का अर्थ क्या है
? क्या कोई परीक्षा पास कर लेना? कुछ बन जाना ? बहुत सारे पैसे कमा लेना ? विख्यात होना ? तय करना होगा.

           फिर उन लोगों का क्या जो असफल हो गए हैं
? उनकी संख्या तो कहीं ज्यादा है. ये वर्ग उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण निराशा व हताशा में चला जाता है. इनमें से अधिकतर के पास कोई कौशल नहीं होता, तो ढंग की नौकरी मिलने के आसार भी ख़त्म हो जाते हैं. लेकिन युवा वर्ग को ध्यान रखना चाहिए कि युवा ही वायु हैं, हर चीज़ का रूख मोड़ने की शक्ति रखता है युवा. मैं अपने लेक्चर्स में हमेशा यही कहता हूँ कि कोई परीक्षा तुम्हारी क्षमताओं को नहीं तय कर सकती. तुममें असीम शक्ति है उसे पहचानो. तुम  इस विराट अस्तित्व का भाग ही नहीं हो बल्कि तुम ही विराट अस्तित्व हो. तुम सागर में एक बूँद नहीं हो तुम ही सागर हो.

        मैं अक्सर कहता रहता हूँ नदी क्यूँ मैली नहीं होती
? क्योंकि वह बहती रहती है. पानी अपने मार्ग में आने वाले चट्टानों का सीना कैसे चीर देती है. क्योंकि वह निरंतर आगे बढती रहती है. पानी का एक बिन्दु झरने से नदी, नदी से महानदी और महानदी से समुद्र क्यों बन जाता है? क्योंकि वह बहता है. इसलिए हे जीवन! तुम रुको मत, बहते रहो. जीवन में कुछ असफलताएं आती हैं किंतु तुम उनसे घबराओ मत. उन्हें लांघकर दुगनी मेहनत करते चलो. बहना और चलना ही जीवन है. एक असफलता से भी घबरा कर रुक गए तो उसी तरह सड़ जाओगे जिस तरह रुका हुआ पानी सड़ जाता है. अपने आपको इतना मज़बूत बनाओ की भाग्य की छाती पर लात रख कर मंज़िल तक पहुँच  सको.

          मन को उठाने के लिए मूल मन्त्र हैं ये
, असफलता कहती है सबक अभी बाकी है, जिन्दगी अभी तराश रही है, प्राण-शक्ति के इम्तिहान अभी बाकी हैं.मंजिलें अभी दूर हैं और रस्ते पुकार रहे हैं. असफलता में से अनुभव का निचोड़ लो फिर देखो विशुद्ध सफलता ही बचेगी.


(c) मनमोहन जोशी (MJ)

रविवार, 3 दिसंबर 2017

अधिवक्ता दिवस की शुभकामनाएं.....




                            अधिवक्ता, बैरिस्टर, सॉलिसिटर, अटोर्नी, प्लीडर यही कुछ नाम हैं उस वर्ग के जिसे साधारणतः लोग वकील के नाम से जानते हैं. आज वकील दिवस है. स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद का जन्मदिन हर वर्ष अधिवक्ता  दिवस के रूप में मनाया जाता है. गर्व का विषय है कि मैं भी इस वर्ग का एक हिस्सा हूँ. बीएससी मैथमेटिक्स करने के दौरान भैया के एक मित्र से परिचय हुआ जो वकालत की पढ़ाई कर रहे थे और उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त कर मैंने भी प. रविशंकर विश्वविद्यालय से वकालत के कोर्स में दाखिला ले लिया. क्यूँ ? इसका कोई उत्तर मेरे पास तब न था. लेकिन नियति के पास ज़रूर रहा होगा.

                  कुछ समय प्रैक्टिस भी किया छतीसगढ़ में अधिवक्ता श्री संतोष मिश्र जी के सानिध्य में और कुछ समय जोधपुर उच्च न्यायालय में अधिवक्ता घनश्याम लाल जी जोशी के सानिध्य में. वर्तमान में से. नि. न्यायाधीश लक्ष्मीकांत भार्गव जी व विभिन्न विधिवेत्ताओं से उनकी किताबों के माध्यम  से सीख रहा हूँ. कानून की चंद किताबें भी नियंता ने मुझसे लिखवा ली हैं. सीखना, सीखाना और लिखना लगातार जारी है.     
                
                आरंभ में लॉ प्रोफेशन का उपयोग न्यायालय में विधि के गूढ़ार्थ को स्पष्ट करने में किया जाता था. आज भी इसका मुख्य कार्य यही है. मेरे देखे  आधुनिक समाज का स्वरूप एवं प्रगति मुख्यत: विधि द्वारा नियंत्रित होती है. लॉ प्रोफेशन को आधुनिक समाज का मुख्य आधार स्तंभ कहा जा सकता है.

                प्राचीन समय में समाज की संपूर्ण क्रियाशक्ति मुखिया के हाथ में होती थी. तब विधि का स्वरूप बहुत आदिम था. ज्योंही न्यायप्रशासन व्यक्ति के हाथ से समुदायों के हाथ में आया, विधि का रूप निखरने लगा. मध्य एशिया, मिस्र, रोम  मेसोपोटामिया में न्यायाधीशों ने , ग्रीस में अधिवक्ताओं और पंचों ने, मध्यकालीन ब्रिटेन और फ्रांस में विधिवेत्ताओं और अधिवक्ताओं ने तथा भारत में विधिपंडितों ने सर्वप्रथम विधि को समुचित आकार दिया.
    
           शुरुआत में पक्षकार न्यायालय में स्वयं अपना पक्ष रखते थे. कालांतर में विधि का रूप ज्यों ज्यों परिष्कृत हुआ उसमें जटिलता और प्राविधिकता आती चली गई. अत: पक्षकारों के लिए यह आवश्यक हो गया था कि विधि के गूढ़ तत्वों को वह किसी विशेषज्ञ द्वारा समझे तथा न्यायालय में उसका पक्ष विधिवत रूप से रखा जाए. व्यक्ति की निजी कठिनाइयों के कारण भी कभी - कभी यह आवश्यक हो जाता था कि वह अपनी अनुपस्थिति में किसी प्रतिनिधि को न्यायालय में भेजे. मेरे देखे वैयक्तिक सुविधा और विधि के प्राविधिक स्वरूप ने ही अधिवक्ताओं को जन्म दिया होगा. एक समय  पाश्चात्य एवं पूर्वी देशों में विधिज्ञाताओं ने बड़ा सम्मान प्राप्त किया.

                 भारतीय आर्य परंपरा के अनुसार आदिकाल से ही विधिपूर्ण न्याय की अपेक्षा की जाती रही. न्यायाधीश के रूप में राजा हमेशा विधि-आबद्ध होता था. विधिक वृत्ति या लॉ प्रोफेशन की शुरुआत कब से हुई इसका ठीक - ठीक प्रमाण तो कहीं नहीं मिलता लेकिन  ऋग्वैदिक काल में पुरोहित, विधिज्ञाता, एवं विधिपंडितों की सहायता से न्यायप्रशासन किया जाता था. गौतमसूत्र में इस प्रकार के विधिज्ञाता को प्राङ्विवाक कहा गया है.

                  मुस्लिमों  के आगमन के पश्चात् न्यायप्रशासन शर्रियत के अनुसार होने लगा. काजी, मुफ्ती, मुज्तहिद आदि  विधिज्ञाता होते थे, जिनकी सहायता से कुरान एवं इज्मा के अनुकूल न्याय किया जाता था. सुबुक्तगीन, महमूद गजनी तथा मोहम्मद गोरी ने यह प्रथा भारत में प्रचलित की. इब्नबतूता के अनुसार तुगलक काल में वकील शब्द का सर्वप्रथम वर्णन मिलता है. अकबर के राज्यकाल में वकील प्रथा थी या नहीं, इसपर विद्वानों में मतभेद है. औरंगजेब के शासनकाल  में वकील प्रथा का प्रमाण मिलता है. औरंगजेब के दरबार में यह नियम था कि दोनों पक्षों तथा उनके वकीलों की अनुपस्थिति में दावा अस्वीकृत हो जाता था. भारत के अंतिम स्वतंत्र शासक बहादुरशाह के समय में किसी व्यक्ति को अधिवक्ता होने के लिए वकालत खाँ की उपाधि दी जाती थी. 

              ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान विधि व्यवसाय को व्यवस्थित करने के प्रयास किये गए. सर्वप्रथम 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने विधिक वृत्ति को  व्यवस्थित करेने के लिए आवश्यक कदम उठाये. 1923 में पहली बार स्त्रियों को अधिवक्ता होने का अधिकार प्राप्त हुआ. कालांतर में देश के विभिन्न श्रेणियों के अधिवक्ताओं में समानता लाने  हेतु 1926 में इंडियन बार काउंसिल क्ट पारित किया गया.

              एक समय वकालत का पेशा बड़े ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था. यहाँ तक की यदि किसी घर का कोई सदस्य वकील हो तो लोग उस घर को  वकील साहब के घर के नाम से जानते थे. लेकिन वर्तमान समय में इस पेशे में गिरावट आई है. सिविल जज परीक्षा की तैयारी कर रहा एक छात्र बता रहा था कि उसके शहर में यदि कोई पूछता है कि आप क्या करते हैं? यदि जवाब में यह कहे की वकील हूँ तो पूछने वाला यह कहता है कि वकील हो वो तो ठीक है लेकिन करते क्या हो??

इस पेशे को सम्मान दिलवाना सभी अधिवक्ताओं की ज़िम्मेदारी है. अधिवक्ता दिवस की शुभकामनाएँ.


 (C) मनमोहन जोशी (MJ)

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

बचपन .....





                  पिछले दिनों बच्चों से जुड़े दो कार्यक्रमों में शिरकत करने का सुअवसर मिला. पहला श्री कैलाश सत्यार्थी जी द्वारा आयोजित बचपन बचाओ , भारत यात्राऔर दूसरा कौटिल्य एकेडमीद्वारा आयोजित नन्ही खुशियाँ”. पहला बच्चों से जुडी विभिन्न समस्याओं के प्रति जन जागरूकता फैलाने से सम्बंधित था और दूसरा बच्चों को एक दिन विलासिता की जीवन शैली के माध्यम से खुशियाँ प्रदान करने के लिए था. वैसे बच्चों से जुड़े कई संगठनों के साथ मैं लम्बे समय से काम कर रहा हूँ. उनमें से एक संगठन है वर्ल्ड विज़न इंडिया.
                 दुनिया भर के बुद्धिजीवी, बचपन बचाने के लिए संघर्ष रत हैं जिनमें भारत के कैलाश सत्यार्थी अग्रणी हैं. लेकिन आम भारतीय एक कदम आगे सोचता है, बच्चे होंगे तभी तो बचपन बचाया जायेगा. अतः हम एकमेव प्रक्रिया में लगे हुए हैं बच्चे पैदा करने के. 2012 में किसी संस्था द्वारा इकठ्ठा किये गए 10 वर्ष के आंकड़ों के शोध से एक डरावना सच  सामने आया कि भारत में औसतन 6700 बच्चे हर वर्ष केवल रोड एक्सीडेंट में मर जाते हैं. किसे फिक्र है ??? लाखों बच्चों के पास उचित जीवन स्तर नहीं है. करोड़ों बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और पूरा देश आबादी बढ़ाने के एकसूत्रीय कार्यक्रम में लगा हुआ है. पिछले वर्ष तक सरकार केवल एक ही बात पर जोर दे रही थी कि दूसरा बच्चा कब..... पहला स्कूल जाए तब. भला हो वर्तमान  सरकार का जिसने इस एड को हटा दिया है. अब दूरदर्शन पर एड आ रहा है पहले साल में बच्चा, बच्चों का काम है.
                      
                हाल ही में कैंब्रिज के एक रिसर्च में यह बात सामने आई है कि  विवाह की सही आयु टीन एज है. लेकिन हमने विवाह का एक गलत अर्थ लगा लिया. हमने समझा विवाह का मतलब बच्चा. और यह बात लोगों के मन में ऐसे घर कर गई है कि अगर विवाह के पहले साल बच्चा नहीं हुआ तो लोग यह समझने लगते हैं कि कहीं कोई प्रॉब्लम होगी. इसका कारण यह है कि अधिकतर लोगों के यहाँ बच्चे किसी परेशानी की वजह से ही नहीं हैं. अन्यथा प्रयास रत तो वे पहले दिन से ही हैं. बहुत कम समझदार लोग हैं जो परिवार नियोजन अपनाकर संतान विहीन हैं. समाज शास्त्रियों  को इस सामाजिक मनोविज्ञान पर शोध करना चाहिए. मेरे देखे  शोध का विषय तो यह भी है  की एक कमरे के मकान में पति पत्नी और सास-ससुर रहते हैं पति पत्नी दिन भर पेट पालने के लिए मजदूरी करते हैं और इनके एक के बाद एक पांच बच्चे हो जाते हैं कैसे
? मेरे देखे ये गणित का भी प्रश्न है.  गणितज्ञों को भी सोचना चाहिए कि इस मामले में गणित का कौन सा फार्मूला काम कर रहा है ? सारे गणितज्ञ अभी भी इसी गणना में लगे हुए हैं की एक पानी की टंकी में दो छेद  हैं जिनसे पानी बाहर गिर रहा है . ये दोनों छेद टंकी को एक घंटे में खाली कर देते हैं नल टंकी को तीन घंटे में भर सकता है. गणना करो की टंकी कितनी देर में भरेगी. मेरे देखे पहले छेद बंद कर दो प्रश्न अपने आप हल हो जाएगा. गणितज्ञों को कुछ और काम दिया जाना चाहिए . देश की बड़ी उर्जा इन मुर्खता पूर्ण सवालों को हल करने में खराब हो रही है. 
              
                   बचपन क्या है इस पर कई शोध हुए हैं. यह तर्क दिया जाता रहा है कि बचपन एक प्राकृतिक घटना न होकर समाज की रचना है. इतिहासकार फिलिप एरीस ने अपनी पुस्तक "सेंचुरीज़ ऑफ़ चाइल्डहुड" में इस बात पर विस्तार से चर्चा की है.  इस विषय को
कनिंघमने  अपनी पुस्तक इनवेन्शन ऑफ़ चाइल्डहुड में आगे बढ़ाया जो मध्यकाल से बचपन के ऐतिहासिक पहलुओं पर नज़र डालता है. एरीस के  पेंटिग, समाधि-पत्थर, फ़र्नीचर तथा स्कूल-अभिलेखों के अध्ययन को 1961 में प्रकाशित किया गया था. उन्होने पाया कि 17वीं शताब्दी से पहले किसी मनुष्य को वयस्क तथा अल्प-वयस्क के दो आयु वर्गों में विभाजित किया जाता था . एरीस के पहले जार्ज बोआसने अपनी कृति दी कल्ट आफ़ चाइल्डहुडमें बचपन पर विस्तार से चर्चा की है.

                 नवजागरण काल के दौरान
, यूरोप में बच्चों का कलात्मक प्रदर्शन नाटकीय रूप से बढ गया था. जीन जैक्स रूसोको  बचपन की आधुनिक धारणा की उत्पत्ति का श्रेय दिया जाता है. जान लॉक तथा अन्य 17वीं सदी के अन्य उदार विचारकों के विचार के आधार पर रूसो ने बचपन को वयस्कता के ख़तरों और कठिनाइयों से मुठभेड़ से पहले की लघु अवधि कहा है. रूसो ने कहा है  कि  "शुरुआती बचपन के जल्दी निकल जाने वाले दिनों को  कड़वाहट से बचाना होगा , जो दिन न उनके लिए और ना ही आपके लिए कभी लौट कर आने वाले हैं?"

                  विक्टोरिया काल को बचपन की आधुनिक संस्था के स्रोत के रूप में जाना जाता है . जब  कि इस काल की औद्योगिक क्रांति ने बाल श्रम को बढ़ा दिया था. चार्ल्स डिकेन्स तथा अन्य समाज सुधारकों के प्रयासों के चलते  बाल मजदूरी उत्तरोत्तर कम होती गई और 1802-1878 के कारख़ाना अधिनियम द्वारा समाप्त हुई . भारत में अभी तक नहीं हो पाई .

               “एल.किन्चेलोऔर शर्ली आर.स्टीनबर्गने बचपन और बचपन की शिक्षा पर एक आलोचनात्मक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है  जिसे किंडरकल्चरके नाम से जाना जाता है. किन्चेलो और स्टीनबर्ग ने बचपन के अध्ययन के लिए कई अनुसंधान और सैद्धांतिक विमर्शों का उपयोग विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर किया. और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आधुनिक काल ने बचपन के नए युग में प्रवेश किया है. इस नाटकीय परिवर्तन के साक्ष्य सर्वव्यापी हैं . जब किन्चेलो और स्टीनबर्ग ने किंडरकल्चर का पहला संस्करण लिखा, "दी कोर्पोरेट कल्चर ऑफ़ चाइल्डहुड"  तब दुनिया भर में लोग इस परिवर्तन के साक्षी बन रहे थे. किन्चेलो और स्टीनबर्ग का मानना है कि  सूचना प्रौद्योगिकी ने अकेले ही बचपन के एक नए युग का सूत्रपात नहीं किया है अपितु कई सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों ने इस तरह के परिवर्तनों को संचालित किया है. किंडरकल्चर का मुख्य प्रयोजन, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से बचपन की बदलती ऐतिहासिक स्थिति को स्थापित करना तथा उन कारकों को विशेष रूप से जांचना है जिसे किन्चेलो तथा स्टीनबर्ग "नया बचपन" कहते हैं.

               वर्तमान इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के युग में बच्चे घर के बाहर कम समय बिता रहे हैं यह प्रवृत्ति खतरनाक है जिसे एक विकार के रूप में देखा जा रहा है.
रिचर्ड लउने अपनी कृति लास्ट चाइल्ड इन द वुड्समें  इस विकार को नेचर डेफ़िसिट डिसार्डरका नाम दिया है जो बच्चों द्वारा घर से बाहर कम समय व्यतीत करने की कथित प्रवृत्ति को निर्दिष्ट करता है. इस विकार के  परिणामस्वरूप विभिन्न व्यवहारपरक समस्याएं उत्पन्न होती हैं. बच्चों में संवेदनहीनता बढती जा रही है . पर्यावरण के प्रति उनकी समझ कम होती जा रही है. वे आभासी दुनिया में ज्यादा और वास्तविक दुनिया में कम समाय बिता रहे हैं.  कंप्यूटर, वीडियो गेम, इंटरनेट  और टेलीविज़न के आगमन के साथ, बच्चों को बाहर की छानबीन से अधिक, घर के अंदर रहने के अनेक कारण मिल गए हैं. माता-पिता भी बच्चों का (बढ़ते हुए ख़तरों से संबंधित भय के कारण, उनकी सुरक्षा की दृष्टि से) घर के भीतर ही रहना ठीक मान रहे हैं .

                अक्सर बुद्धिजीवी यह पूछते हुए मिल जाते हैं कि क्या हम आने वाली पीढ़ी के लिए अच्छी पृथ्वी छोड़ कर जा रहे हैं?? मैं ये पूछता हूँ कि  क्या हम भविष्य की पृथ्वी के लिए संवेदनशील/समझदार/ अच्छे बच्चे छोड़ कर जा रहे हैं
???


सोचिये ------
   

(c) मनमोहन जोशी "MJ"

बुधवार, 15 नवंबर 2017

ट्रेजेडी ऑफ एरर्स....



मन मोहन जोशी "MJ"


                               कुछ दिनों से लगातार न्यूज़ पेपर्स में बलात्कार सम्बंधित मामले पढ़ने में आ रहे हैं. भोपाल गैंगरेप मामले में जबलपुर हाईकोर्ट ने मध्यप्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाई है. सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस विजय शुक्ला की खंडपीठ ने सरकार के रवैये पर नाराजगी जताई. पीड़ि‍त छात्रा की एफआईआर दर्ज करने और मेडिकल जांच में हुई बड़ी ग़लती को गंभीरता से लेते हुए कोर्ट ने कहा कि इट्स ए ट्रेजेडी ऑफ एरर्स.इसके साथ ही सरकार को इस मामले में 15 दिन के अंदर एक्शन लेकर रिपोर्ट पेश करने के आदेश दिए गए हैं.

                       लगातार हो रहे अपराध के कारण को समझने के लिए बलात्कारी की मानसिकता को समझना आवश्यक है. निर्भया कांड पर बनी और भारत सरकार द्वारा बैन बीबीसी
4 की डॉक्यूमेंट्री इंडियाज़ डॉटर.बलात्कार के मनोविज्ञान पर कुछ प्रकाश डालती है. बलात्कारी मुकेश का सीना तानकर जेल से बाहर आना, रेप करने के पीछे दिये उसके तर्क, दूसरे बलात्कारी अक्षय का जेल के अन्दर भी पुलिस से तेवर में बात करना बलात्कारियों की कुत्सित मानसिकता को प्रकट करता है. इससे यह भी समझ में आता है अपराधियों के मन में क़ानून का खौफ नहीं रहा. मेरे देखे यह फिल्म बलात्कारी के मनोविज्ञान को समझने का मौका देती है. आरोपी मुकेश कह रहा है कि वो मौज मस्ती करने निकले थे, उन्हें जीबी रोड जाना था, जब निर्भया अपने पुरुष मित्र के साथ बस में चढ़ी तो उन्हे बहुत बुरा लगा कि देर रात कैसे एक लड़का लड़की साथ घूम रहे हैं.

                       मुकेश वारदात को बयान करने के जो तर्क दे रहा था उनसे हम सभी कहीं ना कहीं परिचित हैं
, वारदात को बयान करने के उसके शब्दों में जरा भी पश्चाताप नहीं दिख रहा था. वो पहला जवाब देता है ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. कोई शरीफ लड़की होगी तो वो रात के 9 बजे बाहर नहीं घूमेगी. लडकियां रेप के लिये लड़कों से ज्यादा जिम्मेदार हैं.वो कहता है लड़कियों को बनाया गया है घर में रहने के लिये, वो घर मे रहें घर का कामकाज देंखे, लेकिन वो बाहर घूमती हैं, डिस्को जाती हैं, बार जाती हैं”. ये सभी बातें बलात्कार जैसे अपराध के लिए ज़िम्मेदार हैं .

                         रेपिस्ट के वकील एमएल शर्मा की दलीलें सुन लें तो वकीलों से और वकालत के पेशे से नफरत हो जाए. हालांकि शर्मा न तो वकीलों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और न ही आम भारतीय का. शर्मा कहते हैं कि "शरीफ लड़की रात को
6:30, 7:30 या 8:30 बजे के बाद घर से नहीं निकलती." बचावपक्ष के दूसरे वकील एपी सिंह कहते हैं, "जरूरी हो तभी लड़की को रात में बाहर जाना चाहिये वो भी अपने रिश्तेदार के साथ, किसी ब्वॉयफ्रेंड के साथ नहीं."

                       ये पूछे जाने पर कि ये घटना क्यों हुई उसके जवाब में मुकेश कहता है कि कुछ साफ तो नहीं पर ये घटना एक सबक के रूप में हुई. मेरे भाई ने पहले भी ऐसा किया है, पर उस वक्त उसका विचार रेप करने का नहीं था. उसे लगा कि उसे समझाने का हक है. वो लड़के को समझाना चाह रहा था कि इतनी रात को लड़की लेकर कहां घूम रहा है. वो उनके कपड़े उतार कर उन्हें सबक सिखाना चाहते थे ताकि दोनों इतने शर्मिन्दा हो जाएँ कि किसी से कुछ कह ना सकें. लेकिन पीड़िता के विरोध ने उन्हें उकसा दिया. मुकेश कहता है कि उसे शांति से रेप करवा लेना चाहिये था. अगर वो हाथ पांव नहीं चलाती तो बच जाती. ये सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि हमारे बीच इस तरह की मानसिकता वाले नर पिशाच खुले आम घूम रहे हैं. जो  मौका मिलने पर लोगों को नैतिकता का सबक सिखाना चाहते हैं. बलात्कार के पीछे उनका मानना है कि इसके लिए पीड़िता ही ग़लत है.

           “इंडियाज़ डॉटरफिल्म समाज को बताती है कि रेपिस्ट की मानसिकता क्या हो सकती है, जो आमतौर पर एक छुपा पहलू है.  फिल्म बिना किसी नैरेशन के बताती है कि फांसी की सजा पाने के बाद भी वो जघन्य हत्या को गलत कामकहता है, उसे पश्चाताप नहीं है. फिल्म बताती है कि इनके चरित्र क्या रहे थे?? लड़कियों के पीछे जाना, बसों में उनके साथ सीट पर बैठ जाना छेड़खानी करना, मारपीट करना उनका शगल था.  राम सिंह तो पहले भी बलात्कार कर चुका था और बेखौफ घूम रहा था.

            हाल ही में एक मंत्री महोदय ने भी भोपाल रेप काण्ड के बाद एक स्टेटमेंट जारी कर कहा की लड़कियों को अकेले नहीं जाना चाहिए और रात के आठ बजे के बाद उनको ट्रैक किया जाना चाहिए. क्यूँ नहीं लड़कों को अकेले में जाने से रोका जाए और उन्हें ट्रैक किया जाए. अपराध तो ये ही कर रहे हैं. अगर महिलाएं राजधानी में सुरक्षित नहीं हैं तो फिर कहाँ हो सकती हैं 
?? इस तरह की घटनाओं को कैसे से रोका जा सकता है?? निवारण के उपाय क्या हैं??

              निर्भया काण्ड के बाद कहा जाता रहा की अगर बलात्कार के लिए मृत्यु दंड का प्रावधान कर दिया जाए तो शायद अपराध होने बंद हो जायेंगे.
3 अप्रैल 2013 को जस्टिस वर्मा कमिटी की रिपोर्ट पर रेप के लिए मृत्यु दंड का प्रावधान कर दिया गया. फिर क्या हुआ रेप होने बंद हो गए ?? अपराध को समाप्त करने के लिए अपराधी के मनोविज्ञान और उसके निदान तक पहुंचना आवश्यक है.  

                दो सौ वर्ष पूर्व तक संसार के सभी देशों की यह निश्चित्त नीति थी कि जिसने समाज के आदेशों की अवज्ञा की है
, उससे बदला लेना चाहिए. इसीलिए दंड का  प्रतिशोधात्मक सिद्धांत चलन में था और अपराधी को घोर यातना दी जाती थी. जेलों में उसके साथ पशु से भी बुरा व्यवहार किया जाता था. यह भावना अब बदल गई है. आज समाज की निश्चित धारणा है कि अपराध, शारीरिक तथा मानसिक  प्रकार का रोग है, इसलिए अपराधी को चिकित्सा की आवश्यकता है. अतः दंड के नए सिद्धांत सुधारात्मक सिद्धांत का प्रादुर्भाव हुआ.

              इटली के डॉ॰ लांब्रोजो पहले चिन्तक थे जिन्होने अपराध के बजाय
अपराधीको पहचानने का प्रयत्न किया.  मनःशारीरिक दृष्टि से अपराध पर विचार करते हुए लांब्रोजो ने काफी पहले कहा था कि अपराधी व्यक्ति के शरीर की विशेष बनावट होती हैं. परंतु उस समय उनके मत को मान्यता नहीं मिली. हाल में अपराधियों को लेकर कुछ प्रयोग किए गए जिनसे निष्कर्ष निकला कि 60 प्रतिशत अपराधियों के शरीर की बनावट असामान्य होती है. मनोविज्ञान के पिता फ्रायड के अनुसार प्रत्येक अपराध कामवासना का परिणाम है. हीली जैसे विद्वान अपराध को  सामाजिक वातावरण का परिणाम बताते हैं.

               सन्‌
1969  में डॉ॰ हरगोविंद खुराना ने आनुवंशिक संकेत (जेनेटिक कोड) सिद्धांत का प्रतिपादन करके नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया जिसके अनुसार व्यक्ति का आचरण उसके जीन समूह की बनावट पर निर्भर करता है और जीन समूह की बनावट वंशपरंपरा के आधार पर होती है. फलतः अपराधी मनोवृत्ति वंशानुगत भी हो सकती हैं.
     
              विधि शाष्त्री  डॉ॰ गुतनर ने जो बात उठाई थी वो आज हर एक न्यायालय द्वारा मान्य है. उनके अनुसार
जब तक मन अपराधी न हो कार्य अपराध नहीं होता.”  जैसे यदि छत पर पतंग उड़ाते समय किसी लड़के के पैर से एक पत्थर नीचे सड़क पर आ जाए और किसी दूसरे के सिर पर गिरकर उसके प्राण ले ले तो वह लड़का हत्या का अपराधी नहीं है. अतएव महत्व की वस्तु आशय है. आशय एक मानसिक तथ्य है. इस विश्लेषण से हम घूम फिर कर वापस हम वहीँ आ गए, अपराध मनोविज्ञान का विषय है.
    
             मनोविज्ञान अपराध को मनुष्य की मानसिक उलझनों का परिणाम मानता है. एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार जिस व्यक्ति का बाल्यकाल प्रेम ओर प्रोत्साहन के वातावरण में नहीं बीतता उसके मन में हीन भावना घर कर जाती हैं. डॉ॰ अलफ्रेड एडलर के अनुसार हीनता की यही ग्रंथि अपराध की जनक है. वहीँ दूसरी और जिस बालक को बड़े लाड़ प्यार से रखा जाता है और उसे सभी प्रकार के कामों को करने के लिए छूट दे दी जाती है
, उसकी  सामाजिक भावनाएँ अविकसित रह जाती हैं. इस कारण वह भले बुरे का विचार नहीं कर पाता. ऐसा व्यक्ति स्वयं को सदा चर्चा का विषय बनाए रखना चाहता है और अपराध करता है. मनोविज्ञान कहता है कि ऐसे अपराधियों का सुधार दंड से नहीं हो सकता, उन्हें तो उपचार की आवश्यकता है.
          
              यह तो तय है कि मृत्यु दंड भी अपराध को रोकने में कारगर नहीं हो पा रहा है. तो क्या मृत्यु दंड नहीं होना चाहिए? मेरे देखे मृत्यु दंड होना चाहिए और मृत्युदंड  का औचित्य केवल इतना है कि अब यह व्यक्ति समाज में रहने लायक नहीं रह गया इसे विदा हो जाना चाहिए. अपराध को रोकने के लिए हमें मनोविज्ञान का सहारा लेना होगा. आधुनिक मनोविज्ञान ने हमें बताया है कि अपराध को कम करने के लिए सुशिक्षा की आवश्यकता है. जब मनुष्य की कोई प्रवृति बचपन से ही प्रबल हो जाती है तो आगे चलकार वह विशेष प्रकार के कार्यो में प्रकाशित होती है. ये कार्य समाज के लिए हितकारी या अहितकारी हो सकते हैं. बालक के माता-पिता, आसपास का वातावारण और पाठशालाएँ इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं. उचित शिक्षा का एक उद्देश्य यही होना चाहिए कि मनुष्य सभी प्रकार की कुंठाओं से मुक्त हो. वह इंद्र जीत बने अर्थात अपने इन्द्रियों को नियंत्रण में रख सके. मनोविज्ञान कहता है  जिस व्यक्ति में आत्मनियंत्रण की स्थिति जितनी अधिक होगी उसके अपराध करने की संभावना उतनी ही कम हो जाएगी.
                
             -- मनमोहन जोशी (MJ)

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

अर्थशास्त्र का चमत्कार सिंगापुर – एक संस्मरण


National planetorium, Singapore

High rise building

The Lion 

Imperial Bus service, Malaysia to Singapore


                                28
अक्टूबर 2017 को सुबह 6 बजे ही हम तैयार हो कर ब्रेक फ़ास्ट के लिए होटल के ही रेस्तरां में  पहुँच जाते हैं. यहाँ ब्रेकफास्ट का समय सुबह 6 बजे से 9 बजे तक का है. हम मलेशिया में हैं और सड़क रस्ते से आज हमें सिंगापुर जाना है. ठीक 7 बजे हमें ड्राईवर रिसीव करने पहुँच जाता है. सुबह 7:30 बजे हम बस स्टॉप पर पहुँचते हैं . बस स्टॉप पर ही हमें इमीग्रेशन फॉर्म मिलता है . फॉर्म भर कर हम बस का इन्तजार करते हैं. 8:00 बजे हम बस में बैठ कर चल देते हैं सिंगापुर की ओर.

                             सिंगापुर, जिसे अंग्रेज़ी में  
Singapore सिंगपोर, चीनी भाषा में शीन्जियापो, मलय में  Singapore सिंगापुरा और तमिल में  चिंकाप्पूर के नाम से जाना जाता है, विश्व के प्रमुख बंदरगाहों और व्यापारिक केंद्रों में से एक है. यह दक्षिण एशिया में मलेशिया तथा इंडोनेशिया के बीच में स्थित है.
                            
                           सिंगापुर यानी सिंहों का शहर. यहाँ पर कई धर्मों में विश्वास रखने वाले, विभिन्न देशों की संस्कृति, इतिहास तथा भाषा के लोग एकजुट होकर रहते हैं. मुख्य रूप से यहाँ चीनी तथा अँग्रेजी दोनों भाषाएँ प्रचलित हैं. आकार में मुंबई से थोड़े छोटे इस देश  की आबादी करीब 35 लाख है.

                            आधुनिक सिंगापुर की स्थापना सन्‌ 1819 में सर स्टेमफ़ोर्ड रेफ़ल्स ने की थी, जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी के रूप में
, दिल्ली स्थित तत्कालीन वॉयसराय द्वारा, कंपनी का व्यापार बढ़ाने हेतु सिंगापुर भेजा गया था. आज भी सिंगापुर डॉलर व सेंट के सिक्कों पर आधुनिक नाम सिंगापुर व पुराना नाम सिंगापुरा अंकित रहता है. सन्‌ 1965 में मलेशिया से अलग होकर नए सिंगापुर राष्ट्र का उदय हुआ. किंवदंती है कि चौदहवीं शताब्दी में सुमात्रा द्वीप का एक राजकुमार जब शिकार हेतु सिंगापुर द्वीप पर गया तो वहाँ जंगल में सिंहों को देखकर उसने उक्त द्वीप का नामकरण सिंगापुरा अर्थात सिंहों का द्वीप कर दिया.

                           अर्थशास्त्रियों ने सिंगापुर को
'आधुनिक चमत्कार' की संज्ञा दी है. यहाँ पानी मलेशिया से, दूध, फल व सब्जियाँ न्यूजीलैंड व ऑस्ट्रेलिया से, दाल, चावल व अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएँ थाईलैंड, इंडोनेशिया से तथा मसाले भारत से आयात किये जाते हैं.

                            1970
के दशक से यहाँ के व्यवसाय ने ज़ोर पकड़ना शुरु किया जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा. आज मुख्य व्यवसायों में इलेक्ट्रॉनिक, रसायन और सेवाक्षेत्र की कंपनी जैसे होटल, कॉलसेंटर, बैकिंग, आउटसोर्सिंग इत्यादि प्रमुख हैं. यह विदेशी निवेश के लिये काफ़ी आकर्षक रहा है और हाल ही में यहाँ की कंपनियों ने विदेशों में अच्छा निवेश किया है.

                       सिंगापुर एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ पीपल्स एक्शन पार्टी का बोलबाला रहा है. ली कुआन यू इसके सबसे प्रभावशाली नेता थे जो
31 साल तक सत्ता में रहे (1959-90). इस दौरान सिंगापुर ने बहुत व्यावसायिक प्रगति की. यहाँ की संसद एक सदन वाली है जिसके पास कानून बनाने का अधिकार है. इसके अलावा यहाँ की सरकार में कार्य करने वाली कार्यपालिका तथा न्याय मामलों के लिए न्यायपालिका दो अन्य अंग हैं.

                      सिंगापुर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में यहाँ के तीन संग्रहालय
, जूरोंग बर्ड पार्क, रेप्टाइल पार्क, जूलॉजिकल गार्डन, साइंस सेंटर सेंटोसा आइलैंड आदि  देखने लायक हैं. सिंगापुर म्यूजियम में सिंगापुर की आजादी की कहानी आकर्षक थ्री-डी वीडियो शो द्वारा बताई जाती है. इस आजादी की लड़ाई में भारतीयों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है
. 600 प्रजातियों व 8000 से ज्यादापक्षियों के संग्रह के साथ जुरोंग बर्ड पार्क एशिया-प्रशांत क्षेत्र का सबसे बड़ा पक्षी पार्क है.  

                    सिंगापुर आने से पहले यहाँ के बारे में कुछ आश्चर्य जनक बातें मैंने पढ़ीं थी जिसका यथार्थ अनुभव 
सिंगापुर पहुँच के ही हुआ. कुछ ख़ास बातें यूँ हैं:

1.इस धरती पर सिंगापुर के लोग सबसे तेज चलते है.
2 यहाँ हर वर्ष इसकी जनसँख्या से तीन गुना ज्यादा लोग पर्यटन के लिए आते हैं .
3. सिंगापुर दुनिया का बहुत ही महंगा देश है. यहाँ हर छठा आदमी मिलिनेयर है.
4. सिंगापुर को सिंहो का शहर तो कहा जाता है लेकिन इस देश में शेर है ही नही.
5. सिंगापुर दुनिया का अकेला ऐसा देश है जिसे खुद की इच्छा के खिलाफ आजादी मिली. इसे 1965 में मलेशिया ने आजाद कर दिया था.
6. सिंगापुर की स्थापना
, 1819 में मलेशिया के एक शहर के रूप में हुई थी.
7. सिंगापुर 63 छोटे-छोटे द्विप समुहों 
से मिलकर बना हुआ है. एरिया के हिसाब से यह भारत से 4400 गुणा छोटा है.

8. सिंगापुर में खुले में पेशाब करने की सख्त मनाही है. कुछ लोग इससे बचने के लिए लिफ्टों में पेशाब करने लग गए थे लेकिन लिफ्टों में ऑटोमेटिक डिटेक्शन सिस्टम लगाए गए हैं.  जिससे पेशाब करते ही पुलिस के आने तक दरवाजें खुद बंद हो जाते है.
9. सिंगापुर में टायलेट फ्लश न करने पर $150 जुर्माना लग सकता है. इसे चेक करने के लिए पुलिस को भी बुलाया जा सकता है।
10. सिंगापुर में पानी मलेशिया से
, दूध, फल व सब्जियाँ न्यूजीलैंड व ऑस्ट्रेलिया से, दाल, चावल व अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएँ थाईलैंड, इंडोनेशिया से तथा मसाले भारत से आयात किये जाते हैं.
11. सिंगापुर मे पोर्नोग्राफी
, दीवारों पर पोस्टर लगाने, होर्डिंग और बैनर लगाने, सड़को पर कूड़ा-कचरा फैलाने से लेकर नंगे होकर प्रदर्शन करने तक बहुत कुछ बैन करके रखा गया है.
12. जितने एरिया के साथ सिंगापुर आजाद हुआ था
, आज यह उससे 25% बड़ा हो चुका है.
1
3. सिंगापुर का Timezone अब तक  6 बार चेंज किया जा चुका है.
14. सिंगापुर, कंबोडिया से अरबों क्यूबिक फीट रेत खरीद चुका है क्योंकि कंबोडिया को पैसे चाहिए और सिंगापुर को धरती.

       सिंगापुर में हम 4 दिन रहे एक अद्भुत अनुभव इस धरती ने दिया. ख़ास कर sentossa आइलैंड, सिंगापुर फ्लायर, मुस्तफा मॉल और नाईट वाइल्ड लाइफ सफारी का अनुभव अद्भुत रहा. अनुभव को बाँधने के लिए शब्द कम पड़ रहे हैं.

                            -मन मोहन जोशी (MJ)

सोमवार, 13 नवंबर 2017

सफ़र की बात- मलेशियन डेज़



thean hau temple

Istana Negara "Kings Palace"

Aquaria

KL City Gallery  


27 october 2017 
                   दो दिनों से लिखने का समय ही नहीं मिल पा रहा है. सोचा पिछले दो दिनों के अनुभव को आज संस्मरणात्मक रूप में लिख डालूं. तो हम पिछले तीन दिनों से कुआलालंपुर शहर में हैं. कुआला का अर्थ होता है संगम और लम्पुर यानी दलदली भूमि. गोम्बक व क्लैंग नदियों के संगम पर बसा यह शहर सन् 1800 के लगभग टिन के व्यापार का केंद्र था. आज यह मलेशिया की संघीय राजधानी होने के साथ-साथ व्यापार, राजनीति, मौज-मस्ती व अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों का केंद्र है.

                   अत्याधुनिक शहर होते हुए भी यहां के लोगों व इमारतों में औपनिवेशिक युग की झलक साफ दिखाई देती है. यातायात के आधुनिक साधनों में यहां लाइट रेल ट्रांजिट सिस्टम व रैपिड ट्रांजिट मोनो रेल सिस्टम हैं. बस व टैक्सी शहर के किसी भी हिस्से से सहज ही उपलब्ध है. सड़कों के दोनों और पेड़ व झाडि़यां हैं, जिन पर लगी लाइटें जब रात को जलती हैं तो सारा शहर जगमगा उठता है. सड़कों के किनारे बने तमाम पब, कॉफी हाउस व डिस्कोथेक यहां के जीवन उत्सव प्रेमी जीवन का सामान्य अंग मालूम पड़ते हैं. शहर के कुछ क्षेत्रों में पब अधिक हैं. यहां पूरे समय लोग मौज-मस्ती करते दिखते हैं. एक सतत उत्सव का माहौल दिखाई पड़ता है.

                  कुआलालम्पुर शहर में सड़कों का जाल बिछा हुआ है. सब कुछ इतना सुनियोजित है कि आगंतुक को कोई दिक्कत नहीं होती. शहर को जानने के लिए सबसे पहली जगह है इस्ताना निगारा. यह मलेशिया के राजा के रहने का स्थान है. इसके अलावा शहर की पहचान पेट्रोनस जुड़वा मीनार से भी है, जो कुआलालम्पुर शहर में कहीं से भी थोड़ी सी ऊँचाई से नजर आ जाते हैं. 451.9 मीटर ऊँचे इन टॉवर्स में 86 मंजिलें हैं.पेट्रोनस टॉवर्स के पास ही कुआलालम्पुर सिटी सेन्टर पार्क बनाया गया है, जिसमें 1900 से ज्यादा पॉम के पेड़ लगाए गए हैं. इसके अलावा केएल टॉवर, केएलसीसी एक्वेरियम देखने लायक हैं. पाँच हजार स्के.फुट में फैले इस एक्वेरियम में 150 तरह की मछलियाँ हैं. इसमें एक 90 मीटर की टनल भी है, जिसमें ऐसा एहसास होता है कि आप समुद्र के भीतर से ही इन्हें देख रहे हैं. इसके अलावा नेशनल प्लेनेटोरियम, बर्ड पार्क,  आर्किड पार्क, बटरफ्लाई पार्क आदि भी काफी खूबसूरत हैं. सनवे लैगून एक थीम पार्क है जिसे घुमने में पूरा एक दिन लगता है.
                     मलेशिया में भोजन की कई वेरायटी उपलब्ध है. लेकिन  शाकाहारी भोजन करने वालों के लिए ज्यादा विकल्प मौजूद नहीं हैं. मांसाहारियों के लिए एक से एक वेरायटी मौजूद है जैसे स्नेल,क्रैब, झींगा, विभिन्न प्रकार की मछलियाँ, पोर्क, बीफ आदि. सभी तरह के सी फ़ूड रेस्टोरेंट शहर में चारों और फैले हुए हैं.  यदि कोई स्थानीय भोजन का स्वाद न लेना चाहे तो कॉस्मोपॉलिटन स्वादों से लैस यूरोपीय, जापानी, थाई व वियतनामी भोजन का आनंद ले सकता है. शाकाहारियों के लिए बहुत से स्थानीय फल हैं, जिनमें चीकू, अमरूद, अमरख और कटहल. कटहल की तरह दिखने वाला डयूरियन नामक फल मलेशिया में फलों का राजा कहा जाता है. यहाँ के लोगों के पसंदीदा पेय में आइस टी, आइस कॉफ़ी और बियर काफी लोकप्रिय है.

                   अनोखा विरोधाभास लिए मलेशिया के तमाम दर्शनीय स्थलों को  देखकर तीन दिन बाद हम सिंगापुर जाने की प्लानिंग में हैं. मैंने सड़क मार्ग से सिंगापुर जाने का प्लान बनाया है हमें सुबह आठ बजे की बस पकडनी है. रात के 12 बज रहे हैं श्रीमती जी सो चुकी हैं और अब मैं भी सोने जा रहा हूँ.  मलेशिया की करेंसी रिंगिट के कुछ सिक्के व नोट हमारे पास इस देश की पहचान के रूप में रह गए हैं. एक शानदार अनुभव.

बकौल अली सरदार जाफरी साहब :


आए ठहरे और रवाना हो गए,
ज़िंदगी क्या है
, सफ़र की बात है ||

क्रमशः .................

सलेमत दतांग – मलेशिया में आपका स्वागत है.


कुआलालंपुर एअरपोर्ट 

कुआलालम्पुर 25 - 0ct - 2017



                      सुबह के 7 बजकर 40 मिनट हो रहे हैं हम कुआलालम्पुर एअरपोर्ट पर लैंड करते हैं... मैं ध्यान से अनाउंसमेंट सुनता हूँ, बैगेज बेल्ट नंबर E पर मिलेगा. हम फ्लाइट से उतर कर चल देते हैं, बैगेज नंबर E की तलाश में. कुआलालम्पुर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कदम रखते ही मुझे लगा कि मैं यूरोप, आस्ट्रेलिया या अमेरिका जैसे किसी विकसित देश की धरती पर खड़ा हूं. क्रोम और शीशे से बना यह हवाई अड्डा विश्व के सबसे आधुनिक हवाई अड्डों में एक है. चमकते हुए ग्रेनाइट के फर्श, नवीनतम तकनीक से लैस सभी सुविधाएं तथा डयूटी फ्री सामानों से भरी चमचमाती हुई दुकानें यहां आने वाले हर पर्यटक को सहज ही प्रभावित कर लेती होंगी.

                     लगभग 15 से 20  मिनट चलने के बाद भी बैगेज काउंटर नहीं मिलता, एअरपोर्ट बहुत ही विशाल है. आगे जाकर एअरपोर्ट के एक कर्मचारी से पूछता हूँ वह बताता है, “यू हेव टु गो बाई ट्रेन, ऐट दी फर्स्ट स्टॉप यू कैन आस्क फॉर दी बैगेज.एअरपोर्ट इतना विशाल है कि  एअरपोर्ट के भीतर ही मोनो रेल की कनेक्टिविटी है. फर्स्ट स्टोपेज पर पहुँच कर फिर हमें कुछ दूर चलना पड़ता है..... सामने बहुत सारे काउंटर्स दिखाई पड़ते हैं जहाँ कस्टम और इमीग्रेशन के अधिकारी जांच और पूछ-ताछ कर रहे हैं. विभिन्न देशों के सैकड़ों लोग कई काउंटर्स पर लाइन में खड़े हैं. हम भी खड़े हो जाते हैं. लगभग डेढ़ घंटे की प्रक्रिया के बाद हमें अपने बैग मिलते हैं.

                     बाहर निकलने पर कई लोग दिखाई पड़ते हैं जो हाथों में तख्तियां लिए खड़े हैं. एक तख्ती पर मुझे मेरा नाम भी दिखाई पड़ता है. हिदयाह नाम की जो लड़की ये तख्ती लेकर खड़ी है मुझसे पूछती है क्या आप सिंगापुर की फ्लाइट से आ रहे हैं? मैं कहता हूँ नहीं मैं मलेशिया एयरलाइन्स से आ रहा हूँ. कुछ क्लेरिफिकेसन के बाद यह क्लियर हो जाता है कि  वो हमारा ही इंतज़ार कर रही है. वो हमें एक ड्राईवर से मिलाती है. ड्राईवर का नाम शिवा है जो हमें अपनी गाडी तक ले जाता है . क्या देख रहा हूँ ! टैक्सी में सारी मर्सिडीस की गाड़ियां खड़ी हैं. एक गाडी में शिवा हमें बिठाता है. रस्ते में शिवा हमें हमारा टूर प्लान समझाता चलता है. शिवा एक मलय है जिसके पूर्वज उन्नीसवीं सदी में दक्षिण भारत से मलेशिया में जा कर बस गए थे.

                  शिवा को इंग्लिश अच्छी आती है उसके अनुसार यहाँ जो भी पढ़े लिखे लोग हैं वो इंग्लिश की थोड़ी बहुत जानकारी तो रखते ही हैं , लेकिन साइन बोर्ड और बाकी सभी चीज़ें मलय भाषा में ही मिलेंगी. उसके अनुसार हमें होटल पहुँचने में लगभग एक घंटे का समय लगेगा.... मैं और श्रीमती जी गाडी से बाहर इस साफ सुथरे और हरे भरे शहर को एक तक निहारने लगते हैं.

                         मैं मलेशिया के बारे में जो कुछ थोड़ी बहुत जानकारी रखता हूँ, मेरे मन के पटल पर उभरने लगते हैं. मलेशिया दक्षिण पूर्व एशिया में स्थित एक उष्णकटिबंधीय देश है. यह दक्षिण चीन सागर से दो भागों में विभाजित है. मलय प्रायद्वीप पर स्थित मुख्य भूमि के पश्चिम तट पर मलक्का जलडमरू और इसके पूर्व तट पर दक्षिण चीन सागर है. देश का दूसरा हिस्सा, जिसे कभी-कभी पूर्व मलेशिया के नाम से भी जाना जाता है, दक्षिण चीन सागर में बोर्नियो द्वीप के उत्तरी भाग पर स्थित है. मलय प्रायद्वीप पर स्थित कुआलालंपुर देश की राजधानी है, लेकिन हाल ही में संघीय राजधानी को खासतौर से प्रशासन के लिए बनाए गए नए शहर पुत्रजया में स्थानांतरित कर दिया गया है. यह 13 राज्यों से बनाया गया एक एक संघीय राज्य है.

                        मलेशिया में चीनी, मलय और भारतीय जैसे विभिन्न जातीय समूह निवास करते हैं. यहां की आधिकारिक भाषा मलय है, लेकिन शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र में ज्यादातर अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जाता है. मलेशिया में 130 से अधिक बोलियां बोली जाती हैं.

                       मलेशिया, चीन और भारत के बीच प्राचीन काल से व्यापारिक केंद्र था. जब यूरोपीय लोग इस क्षेत्र में आए तो उन्होंने मलक्का को महत्वपूर्ण व्यापार बंदरगाह बनाया. कालांतर में मलेशिया ब्रिटिश साम्राज्य का एक उपनिवेश बन गया. इसका प्रायद्वीपीय भाग 31 अगस्त 1957 को फेडरेशन मलाया के रूप में स्वतंत्र हुआ. 1963 में मलाया, सिंगापुर और बोर्नियो हिस्से साथ मिलकर मलेशिया बन गए.1965 में सिंगापुर ने  अलग होकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की.

                     मलेशिया में 13 राज्य हैं और तीन संघीय प्रदेश है. देश का प्रमुख यांग डी-पेर्तुआन अगांग के रूप में जाना जाता है, जिसका अर्थ है  "मलेशिया का राजा".  मलेशिया में शासन के प्रमुख प्रधानमंत्री हैं. इसकी अर्थव्यवस्था लगातार बढ़ रही है और यह दक्षिण पूर्व एशिया में एक अपेक्षाकृत समृद्ध देश है. देश के प्रमुख शहरों में कुआलालंपुर, जॉर्ज टाउन, ईपोह और जोहोर बाहरु हैं.

                   मलेशिया एक बहु जातीय, बहु सांस्कृतिक और बहुभाषी समाज है, जहां मलय और अन्य देशी जनजाति 65%, चीनी 25% और 7% भारतीय शामिल है. देश की मूल भाषा मलय (Bahasa Melayu) है.

                     शहर को निहारते हुए कब होटल पहुँच गए पता ही नहीं चला. हम होटल ग्रैंड कॉन्टिनेंटल में प्रवेश करते हैं जो यहाँ शहर के बीचों बीच पेट्रोनास टावर से कुछ दूर स्थित है. हमें जो कमरा मिला है यहाँ से पेट्रोनास टावर साफ़ दिखाई पड़ते हैं यही तो मलेशिया की पहचान हैं.

होटल की खिड़की से पेट्रोनास टावर का एक दृश्य 
   क्रमश: .................