Diary Ke Panne

रविवार, 22 जुलाई 2018

गोंचा पर्व - हरी बोल

तुपकी चलाते हुए



श्री बलभद्र , सुभद्रा और जगन्नाथ  


                                      
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भगवान् श्री जगन्नाथ - हरी बोल 





                       बताते हैं की हमारे पूर्वज भारत के उड़ीसा राज्य के पुरी क्षेत्र के रहने वाले थे. हां वही पुरी जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र तथा श्री क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है. वही पुरी जो भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है. पापा से ऐसा जानने को मिला था की बस्तर महाराजा ने अपने राज्य क्षेत्र में पूजा पाठ करने हेतु हमारे पूर्वजों को भूमि देकर बस्तर क्षेत्र में बसाया था.

                  छत्तीसगढ़ ही नहीं अपितु भारत देश का सबसे खूबसूरत क्षेत्र है बस्तर. वनवासी संस्कृति से परिपूर्ण. खनिज सम्पद्दा और वन क्षेत्र को अपने में समेटे यह एक अद्वितीय स्थल है, जो अभी व्यावसायिक पर्यटन से कुछ हद तक अछूता है. आज यहाँ "बाहुड़ा गोंचा" त्यौहार मनाया जा रहा है.

                   मूलतः यह जगन्नाथ पुरी में मनाया जाने वाला त्यौहार है. जहां के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ हैं. पुरी में यह त्यौहार "रथयात्रा" के नाम से मनाया जाता है. लेकिन छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में इसे "गोंचा पर्व" के नाम से मानते हैं. यह रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन मुख्य मंदिर से शुरू होकर दो किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर पर समाप्त होती है, जहां भगवान जगन्नाथ सात दिनों तक विश्राम करते हैं. आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन फिर से वापसी यात्रा होती है, जो मुख्य मंदिर पहुंचती है. ओड़िसा में इसे ही "बहुड़ा यात्रा" कहते हैं. बस्तर के लोग इसी यात्रा को "बाहुड़ा गोंचा" के नाम से मनाते हैं.  

                   पुरी की यह रथ यात्रा देश विदेश के सैलानियों का आकर्षण केंद्र होती है. इससे सम्बंधित कुछ ख़ास बातें इस प्रकार हैं :
1)- भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा- तीनों के रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते हैं. ये लकड़ी वजन में अन्य लकडिय़ों की तुलना में हल्की होती है और इससे बने रथ को आसानी से खींचा जा सकता है. भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल और पीला होता है और यह अन्य रथों से आकार में बड़ा भी होता है. यह रथ, यात्रा में बलभद्र और सुभद्रा के रथ के पीछे चलता है.

2) भगवान जगन्नाथ के रथ के कई नाम हैं जैसे:- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि. इस रथ के घोड़ों के नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व हैं, जिनका रंग सफेद होता है. इसके सारथी का नाम दारुक है. इस रथ के रक्षक भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़ हैं. रथ की ध्वजा को त्रिलोक्यवाहिनी कहा जाता है. रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है. इस रथ में 16 पहिए होते हैं.

3) बलराम के रथ का नाम तालध्वज है. इस पर महादेव का प्रतीक अंकित होता है. रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी का नाम मताली है. रथ के ध्वज को उतानी कहते हैं. त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्वों के नाम हैं.

4)  सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन है. सुभद्राजी के रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा होता है. रथ की रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन हैं. रथ का ध्वज नदंबिक कहलाता है. रोचिक, मोचिक, जिता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं.

                    भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की यह परंपरा अति प्राचीन है. इस रथ यात्रा से जुड़ी एक कथा इस प्रकार है : "कलयुग के प्रारंभिक काल में मालव देश पर राजा इंद्रद्युम का शासन था. वह भगवान जगन्नाथ के भक्त थे. राजन ने पुरी में एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया. मंदिर निर्माण से प्रसन्न भगवान् जगन्नाथ ने राजा इंद्रद्युम से कहा कि वे वर्ष में एक बार आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन यहाँ पधारेंगे.  स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के यात्रा की व्यवस्था की. तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है."
  
                     छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल अंचल बस्तर में मनाया जाने वाला गोंचा पर्व पुरी के रथ यात्रा के समान होते हुए भी कई मायनों में अनोखा है. बस्तर के गाँव बेड़ाउमर के कारीगर रियासतकाल से रथ निर्माण का कार्य कर रहे हैं. बस्तर महाराजा द्वारा वर्षों पूर्व सौंपे गए इस कार्य को वहाँ की पीढियां अब तक पूरा कर रही हैं.
  
                       बस्तर गोंचा पर्व में भगवान जगन्नाथ के सम्मान में तुपकी चलाने की भी अनोखी परंपरा है जो इस पर्व को विश्व में अलग स्थान दिलाती है. बस्तर के नानगूर क्षेत्र के आदिवासियों  द्वारा तुपकी बनाने का कार्य गोंचा पर्व के एक-दो माह पूर्व प्रारंभ कर दिया जाता है.

                         तुपकी का शाब्दिक अर्थ है छोटी तोप. बस्तर में बन्दुक को तुपक कहा जाता है शायद इससे ही तुपकी शब्द बना हो. तुपकी पोले बांस की नली से बनाई जाती है. इसे तैयार करने के लिए ताड़ के पत्तों, बांस की खपच्चीयों  तथा रंग-बिरंगी कागज की पन्नियों का उपयोग किया जाता है. 

                        “पेंगको तुपकी की गोली के रूप में उपयोग में लाया जाता है. यह एक जंगली फल है जो मटरदाने के समान दिखता है. इस फल का संस्कृत-हिन्दी नाम मलकांगिनी है, जो आषाढ़ माह में बस्तर के जंगलों में फलता-फूलता है. यह तुपकी गोंचा पर्व और आदिवासी संस्कृति का समन्वय है.

                        ये अनोखी संस्कृति, त्यौहार और विरासत हमें विश्व में सबसे अनोखा बनाते हैं. आवश्यकता हैं इन्हें जानने, समझने और इन पर गर्व करने की. इन्हें संजोये रखना भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है.

         - मनमोहन जोशी 

बुधवार, 18 जुलाई 2018

सच की पड़ताल....

                          
                         हमारे समकालीन व्यंग्यकार संपत सरल जी का एक प्रसिद्ध व्यंग्य है, “फेसबुक पर पांच हज़ार दोस्त हैं और परिवार में बोल चाल बंद है”. कुछ लोगों को लगता है कि फेसबुक के आने से लोग अपने पड़ोसियों से कट गए हैं, सोशल मीडिया के चलते लोगों का आपस में मिलना जुलना बंद हो गया है, इन्टरनेट के चलते बच्चों की फिजिकल एक्टिविटी कम हो गई है, आदि आदि.  तो ये कुछ प्रश्न हैं जिसकी पड़ताल हम इस आलेख में करेंगे: 1. क्या आभासी दुनिया वाकई में आभासी है? 2. क्या फेसबुक की वजह से परिवार में बोलचाल बंद है? 3. क्या फेसबुक के आने से पहले पारिवारिक जीवन खुशहाल था या लोग अपने पड़ोसियों को पहचानते थे?? 4. क्या फेसबुक या इन्टरनेट के कारण बच्चों ने खेलना बंद हो गया है?

 1. क्या आभासी दुनिया वाकई में आभासी है??:- इस प्रश्न की बुनियाद में जाने से पहले ये समझना होगा की आजकल लोग आभासी दुनिया को ही वास्तविक मानने लगे हैं ऐसा कुछ विद्वानों का कहना है. उन सभी को मैं ये बताना चाहता हूँ कि आप जिस दुनिया में हैं और जिसे वास्तविक समझ रहे हैं उसको भी बुद्धिमानों ने आभासी कहा है. उमा कहौं मैं अनुभव अपना- तुलसी दास .

 2.  क्या फेसबुक की वजह से परिवार में बोलचाल बंद है? या लोगों ने आपस में मिलना जुलना बंद कर दिया है?:- तो इसका जवाबी भी नकारात्मक ही है. जिसकी प्रवृत्ति आपस में मिलने जुलने की है वो लोग आज भी आपस में मिल जुल रहे हैं और जिनकी प्रवृत्ति नहीं है वो लोग कभी किसी से नहीं मिलते जुलते. इसका सम्बन्ध सोशल मीडिया से न होकर व्यक्ति से ही है. उदाहरण के लिए हम उस दौर में बड़े हुए हैं जब सोशल मीडिया नहीं हुआ करता था. और बड़ों को आपस में लड़ाई करते और बिना बोल चाल के रहते देखा है. पूरे मोहल्ले का एक मात्र टाइम पास था लड़ाई झगडा और गाली गलौच. धन्यवाद  इस सोशल मीडिया का अब कम से कम लोग अपने- अपने में व्यस्त तो हैं.

 3. तीसरी बात ये कि सोशल मीडिया और इन्टरनेट ने बच्चों की फिजिकल एक्टिविटी कम कर दी है:- इसका मतलब ये कि माँ बाप चाहते हैं कि बच्चा फिजिकल एक्टिविटीज में भाग ले, घर से बाहर जा कर खेले. तो इस बात को भी समझते हैं. जब हम बच्चे थे और इन्टरनेट कनेक्शन जैसी चीज़ नहीं होती थी और जब खेल कर हम वापस आते थे तो मम्मी- पापा हमारे स्वागत के लिए खड़े रहते थे?? अरे नहीं जनाब गालियाँ ही पड़ती थी और कई बार कूटे भी जाते थे. दिन भर खेल खेल- खेल हाँ.            
  
                             ये जो लोग आज सोशल मीडिया को गालियाँ दे रहे हैं ये वही लोग हैं जो 59 ई.पू. का द रोमन एक्टा डिउरनानामक विश्व के पहले समाचार पत्र के प्रकाशित होने पर सक्रीय हुए होंगे. या आठवीं शताब्दी में चीन में हस्तलिखित समाचारपत्रो का प्रचलन हुआ तब सक्रीय हुए होंगे. या भारत में जब पहला अख़बार बंगाल गजट प्रकाशित हुआ तब. या पहला हिंदी समाचार पत्र जब  30 मई 1826 को उदंत मार्तंडके नाम से प्रकाशित हुआ तब.  ये कहते हुए कि हाय अब परिवार के लोग एक दुसरे को समय कम देते हैं. या पतिदेव को सारी दुनियां की खबर है बस परिवार और पड़ोसियों को छोड़ कर. सारा समय अखबार पढ़ने में ही बीता देते हैं.

                             ये वही लोग हैं जो नवीं शताब्दी में तब सक्रीय हुए थे जब लकड़ी के ब्लाकों से छपाई करने का अविष्कार चीन में हुआ. टाइप से छपाई का आरंभ भी नवीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है. इसके बाद आसान हुआ किताबों के छपने का सफर. मुद्रण के आविष्कार से पहले प्रकाशन का कार्य कातिब या प्रशिक्षित गुलाम किया करते थे. वे चर्मपत्र पर किसी पांडुलिपि की अनेक प्रतिलिपियाँ लिखते रहते थे. टालेमी वंश के शासनकाल में मिस्र में, तथा यूनान और गणतांत्रिक रोम के प्रमुख नगरों में चर्मपत्र तैयार करने वाले अनेक उद्योग खुल गए थे.
   
                       आज पुस्तकों का जो रूप हमारे सामने है यह कैसे प्रचलित हुआ, इसका भी एक पुराना और लंबा इतिहास है. ऐसा माना जाता है कि रोम साम्राज्य के जूरियों को जिल्द से बँधी पुस्तकों का ज्ञान सर्वप्रथम हुआ. सबसे पहले जिल्दबँधी किताबों को "कोडेक्स" कहा जाता था. चर्मपत्र के समान "कोडेक्स" भी हाथ से लिखे जाते थे.
  
                       15वीं शताब्दी में योआन गटेनबर्ग द्वारा वर्णमाला के अक्षरों को टाइप करने के अविष्कार के बाद प्रकाशन के क्षेत्र में बड़ी प्रगति हुई. गटेनबर्ग का प्रयोग बहुत ज्यादा सफल नहीं रहा फिर भी उसके अविष्कार के बाद उसका नगर मेंज, यूरोप का सबसे बड़ा प्रकाशन केंद्र बन कर उभरा.  सन् 1500 से पहले यूरोप में लगभग 30000 पुस्तकें छप चुकी थीं. और तथाकथित बुद्धिमान तब और परेशान हुए की हाय लोग परिवार से कटते जा रहे हैं. अब तो अखबार के साथ- साथ किताबों को भी समय देना होता था.

                    फिर 20वीं सदी में सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन, सचित्र पत्र, पत्रिकाएँ तथा मनोरंजन और ज्ञानवर्धन के अन्य साधनों ने लोगों को और उनके मन -मस्तिष्क चहूं और से घेर लिया था तब भी लोगों ने यही कहा होगा हाय परिवार के लिए समय ही नहीं है. अब 21 वीं सदी में यही रोना इन्टरनेट  और सोशल मीडिया को लेकर भी रोया जा रहा है. 

                      
    - मनमोहन जोशी

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

द कोर्ट रूम जीनियस.....




                        यदि कोर्ट, वकील और कोर्ट रूम पर कोई बेहतरीन किताब पढ़नी हो तो वह  है कोर्ट रूम जीनियसजिसे सोली सोराबजी ने लिखा है और दूसरी किताब है नानी ए. पालकीवाला- ए लाइफजिसके लेखक एम. वी. कामथ हैं. दोनों किताबों में एक बात समान है. वह यह की दोनों ही किताबें महान अधिवक्ता नानी पालखी वाला की जीवनी है.

                        पालकी वाला के द्वारा बहस किये गये कई मुकदमों में,गोलक नाथ का मामला जिसमें संसद की शक्तियों पर रोक लगा दी गई थी और केशवानन्द भारती का मामला जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद, संविधान के मूलभूत ढाँचें में परिवर्तन नही कर सकती है, महत्वपूर्ण हैं. दोनों ही मामलों में पालकीवाला ने याचिका कर्ता  की और से पैरवी की थी और मूल अधिकारों को स्थापित करने में महती भूमिका निभाई थी.   

                        नानी पालकीवाला पारसी “पारसी” थे दुनिया के सबसे पुराने एकेश्वरवादी धर्मों में से एक है. इसकी स्थापना ज़रथुस्त्र ने प्राचीन ईरान में लगभग 3500 साल पहले की थी. एक हजार वर्षों तक यह दुनिया का सबसे ताकतवर धर्म रहा. लेकिन आज की तारीख में पारसी धर्म दुनिया का सबसे छोटा धर्म है. सबसे दुखद यह है कि पारसी अपने ही देश में अल्पसंख्यक और उपेक्षित हो गए हैं.

                     प्राचीन समय में साइरस और डेरियस जैसे पारसी राजाओं ने परोपकार और अच्छे कर्मों को अपने शासन का आधार बनाया. अरबों ने उनकी दयालुता का फायदा उठाते हुए ईरान में प्रवेश किया और इसके बाद पारसियों पर खूब अत्याचार हुए. वे अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनकर रह गए जैसे कश्मीर में कश्मीरी पंडित. पारसी  लोगों का बड़े स्तर पर इस्लाम में धर्मांतरण कर दिया गया.

                   इस्लामिक क्रान्ति के दौर में कट्टरवादीयों ने तेहरान में पारसियों के फायर टेंपल पर धावा बोला और ज़रथुस्त्र की मूर्तियों को तोड़ दिया. फायर टेंपल में पारसी धर्म के लोग ईश्वर के प्रतीक रूप में अग्नि की पूजा करते थे. पारसियों के धर्मस्थलों से ज़रथुस्त्र के चित्र को हटाकर नीचे फेंक दिया गया और उसकी जगह पर अयातुल्लाह अली खुमैनी की तस्वीरें लगा दी गईं. स्कूलों और कॉलेजों की दीवारें ईरान के नए नेताओं अयातुल्लाह खुमैनी की तस्वीरों और कुरआन की आयतों से पट गईं.

                   सातवीं सदी ईस्वी तक आते-आते फारसी साम्राज्य अपना पुरातन वैभव तथा शक्ति गँवा चुका था. जब अरबों ने इस पर निर्णायक विजय प्राप्त कर ली तो अपने धर्म की रक्षा हेतु अनेक जरथोस्त्री धर्मावलंबी समुद्र के रास्ते भाग निकले और उन्होंने भारत के पश्चिमी तट पर शरण ली. यहाँ वे 'पारसी' (फारसी का अपभ्रंश) कहलाए. आज इनकी आबादी विश्वभर में मात्र सवा से डेढ़ लाख के बीच है. इनमें से आधे से अधिक भारत में हैं.

                   पारसी लोग अपनी बुद्धिमत्ता के कारण जाने जाते हैं और ऐसे ही एक व्यक्तित्व जिसने भारतीय न्याय व्यवस्था को मजबूती प्रदान की और भारत में मूल अधिकारों का मार्ग प्रशस्त किया, विधि जगत उन्हें नानी भाई पालकीवाला के नाम से जानता है.  पालकी वाला के बारे में कहा जाता है कि जब वे सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते थे तो जज उन्हें बड़े ध्यान से सुनते थे की आज ये कौन सी नयी दलीलें लेकर आये हैं? 

                    उनके द्वारा लिखी गई एक किताब आज का भारतमें वो लिखते हैं: अब मेरे मन-मास्तिष्क में केवल एक ही विषय है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख दूँ. इसमें मैं अपने जीवन की कुछ ऐसी घटनाएं दर्ज करना चाहूँगा जिनकी विवेक तथा विज्ञान द्वारा व्याख्या नहीं की जा सकती.

                     पालकी वाला, जीवन में आत्मज्ञान को बड़ी अहमियत देते थे उन्होंने लिखा है: आत्मज्ञान जो मानवता को उन्नति का मार्ग प्रर्दिशत करता रहा है, मनुष्य के भीतर शांत पड़ा हुआ है".

                      उन्होंने अंतर्ज्ञान के सम्बन्ध में एक घटना का जिक्र करते हुए लिखा है, “श्री गोविंद मेनन सन् 1968 में कांग्रेस सरकार में विधि मंत्री थे. उन्होंने मुझे भारत का अटॉर्नी जनरल का पदभार संभालने के लिए बाध्य किया. काफी हिचकिचाहट के बाद मैं राजी हो गया और जब मैं दिल्ली में था, तो अपनी स्वीकृति भी उन्हें भेज दी. उन्होंने मुझे बताया कि इसकी अगले दिन घोषणा कर दी जाएगी. मैं प्रसन्न था कि इस विषय में अनिर्णय के कष्टदायक क्षण समाप्त हुए. उस रात मैं गहरी नींद में सोने के लिए बिस्तर पर चला गया. परंतु अचानक सुबह तीन बजे, बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के, नींद खुल गई.  एक शक्तिशाली विचार मेरी चेतना मैं तैरने लगा कि मैंने गलत निर्णय लिया है तथा इसे तुरंत बदलना चाहिए. अगली सुबह मैंने विधि मंत्री को अपना निर्णय बदलने की सूचना दी तथा इसके लिए क्षमा मांगी. फिर आनेवाले वर्षों में जब मुझे जनसाधारण की ओर से सुप्रीम कोर्ट में कई बड़े मुकदमों की पैरवी करने का अवसर मिला तो यह निर्णय सही साबित हुआ हुआ. इन मुकदमों ने भारत के संवैधानिक कानून, बैंकों का राष्ट्रीयकरण (1969), प्रिवी पर्स (1970), मौलिक अधिकारों से सम्बंधित विभिन्न मामले (1972-73),  को आकर प्रदान किया”.

                         पालकीवाला ने सारी पढ़ाई भारत में ही की. वे कभी बाहर पढ़ने नही गये. उन्हें हमेशा लगता था कि भारत में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाएं है. वे कहते है:- “It is not where you learn but what you learn that makes for success.

                     आदरणीय न्यायविद भार्गव साहब और मैं जब कभी पालकी वाला को लेकर कोई चर्चा करते हैं तो  हमेशा एक घटना का ज़िक्र होता है "एक बार जब नानी पालकी वाला को सुप्रीम कोर्ट का जज बनने की पेशकश की गई तो उन्होंने इनकार करते हुए कहा था, “ I can speak nonsense for hours but I can’t hear nonsense for a second.” अर्थ ये कि “ मैं घंटों बकवास कर सकता हूँ लेकिन एक सेकंड के लिए भी बकवास नहीं सुन सकता”.
 
  ✍️MJ

बुधवार, 11 जुलाई 2018

छुआछूत.....







                            आज एक लेक्चर के दौरान अस्पृश्यता पर चर्चा चल पड़ी. एक स्टूडेंट ने पूछा, "सर, आपके अनुसार भारतीय समाज में छुआछूत का आधार क्या रहा है?"  मैंने स्टूडेंट्स को समझाते हुए कहा कि अगर आप नया साहित्य पढ़ेंगे  या सौ – दो सौ वर्षों के इतिहास पर नज़र डालेंगे तो यह पढ़ने को मिलेगा कि हमारे देश में जाति आधारित छुआछूत थी.

                         बाबा साहब आम्बेडकर ने भी हिन्दू समाज की इसी छुआछुत रुपी कुरीति से तंग आकर अपने पांच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था. लेकिन सिविल अधिकार प्रोटेक्शन एक्ट की धारा तीन पढ़लें या सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर नज़र डालें तो ये पता चलता है कि बौद्धों को भी हिन्दू ही माना गया है. 
    
                           अक्सर जातिवाद, छुआछूत और दलित वर्ग के मुद्दों को लेकर धर्मशास्त्रों को दोषी ठहराया जाता रहा  है, लेकिन यह असत्य है. प्राचीन ग्रंथों की ग़लत व्याख्याओं के कारण ही ऐसा हुआ है. कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए  जातिवाद और छुआछूत को बढ़ावा देकर समाज में दीवारें खड़ी की गई हैं.

                         दलितों का 'दलित' नाम किसी धर्म शास्त्र में पढ़ने को नहीं मिलता. हरिजन, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति ये सब प्रचलित नाम भी किसी धर्म शास्त्र में पढ़ने को नहीं मिलते. ये सभी नाम पिछले 70 वर्षों की राजनीति की उपज है. और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वह सैकड़ों वर्षों की गुलामी की उपज हैं.

                         शुरुआत में छुआछूत कर्म आधारित ही था पता नहीं कब कैसे इसे जाति विशेष के साथ जोड़ दिया गया. मैं तो कबीर की तरह अनुभव जन्य बातें करता हूँ, लेकिन हाँ मैंने “मसि कागद” भी छुआ है और बहुत कुछ पढ़ा भी है. ऐसा ही एक अनुभव मेरे बचपन का है जो आपसे बांटना चाहता हूँ शायद इससे आपको छुआछूत के बारे में कुछ अनुमान लगे. 
           
                      मुझे याद आता है जब हम छोटे थे और संयुक्त परिवार में रहते थे तो हमारे यहाँ कई नियम कायदे थे. हम जब-तब अछूत हो जाते थे. बाल कटवा कर आये हों तो, किसी की अंतिम क्रिया में शामिल हो कर आये हों तो, अस्पताल में किसी से मिल कर आये हों या शौचालय जा कर आये हों तो. हम तब तक अछूत होते थे जब तक हम नहाकर कपड़े  बदल कर नहीं आ जाते. हमें घर में घुसने नहीं दिया जाता था. क्या हमारी जाति बदल जाती थी या हमारा धर्म बदल जाता था??? नहीं केवल कुछ कर्म ही बदलते थे.

                               बहरहाल अब ये सारी बातें पूरी तरह से बेमानी हो गई हैं. कर्म, धर्म और जाति किसी भी आधार पर छुआछूत का समर्थन नहीं किया जा सकता. अब तो हम अटैच लेट बाथ वाले घर में रहते हैं. टॉयलेट के साथ ही लगा हुआ पूजा घर है, ऐसे में यही समझना मुश्किल हो गया है कि शंख की आवाज़ कहाँ से आ रही है.    

- मनमोहन जोशी 

सोमवार, 9 जुलाई 2018

डर का मनोविज्ञान...


               कल रात मैंने डर के रसायन पर एक आलेख लिखा था. हुआ यह था कि कल मैं और श्रीमती जी “एनाबेला द क्रिएशन” देख रहे थे और उसके बाद मेरी आँखों के सामने वो सब घटनाएं तैरने तैरने लगीं जिसे उँगलियों ने लैपटॉप के माध्यम से स्क्रीन पर उतार दिया. ये पारलौकिक घटनाएँ काल्पनिक नहीं हैं. रूमी के अनुसार जो कुछ भी हम सोचते हैं उसका अस्तित्व कहीं न कहीं होता है.

             मुझे याद आता है वर्ष 2002 के आषाढ़ के एक दिन घनघोर बारिश हो रही थी. हम कुछ मित्र अपनी एक महिला मित्र का जन्मदिन मनाने उसके घर पर इकठ्ठा हुए थे. बातों बातों में मैंने उस मित्र से पूछा क्या तुम्हें कोई आत्मा वगैरह दिखाई देती है? उसने हँसते हुए बात टाल दी बोली ये क्या बकवास है? फिर पार्टी का दौर चला. केक कटिंग हुई. थोड़ी देर बाद मित्र की मम्मी मेरे पास आई और मुझे नीचे कमरे में ले गई उन्होंने पूछा तुम क्या पूछ रहे थे??
मैं- कुछ नहीं आंटी जी बस ऐसे ही??
आंटी- तुमने ऐसा क्यूँ पूछा ??
मैं – (दांत निपोरते हुए) यूँ ही.
आंटी – बेटा, इसको सही में आत्मा दिखती है. मित्र सामने ही बैठ कर रोते हुए हाँ में सर हिला रही थी.
मैं – (डरते हुए) कोई बात नहीं. लेकिन किसकी आत्मा दिखाई देती है? कब और कहाँ?
मित्र- मेरी एक छोटी बहन थी जिसकी मृत्यु
13 वर्ष की आयु में एक्सीडेंट से हो गई थी (एक तस्वीर, जिस पर फूलों की माला टंगी हुई थी, की और इशारा करते हुए उसने कहा) उसकी आत्मा. वो यहीं हमारे साथ रहती है.

उस दिन के बाद मैं कभी उस महिला मित्र के यहाँ नहीं गया.

                मुझे लगता है कि जीवन में अनजाने का ही भय होता है. जैसे भविष्य को हम नहीं जानते, तो उसका भय. परीक्षा का परिणाम क्या होगा पता नहीं, उसका भय. अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ता, उसका भय. भूत, प्रेत, आत्मा, पारलौकिक शक्तियां उनका भय. 

                लेकिन जी. कृष्णमूर्ति अपनी पुस्तक “प्रथम और अंतिम मुक्ति” में लिखते हैं कि डर ज्ञात के प्रति ही हो सकता है अज्ञात के प्रति डर  बनने का कोई कारण नहीं है. जिसे जाना नहीं उसका डर कैसा. यही कारण है कि छोटे बच्चे सांप से नहीं डरते उन्हें नहीं पता होता है कि वो क्या कर सकता है. सही मायने में एकदम छोटे बच्चे सबसे ज्यादा निडर होते हैं. जानकारी उन्हें डरपोक बनाती है. कहा भी गया है कि मुर्ख को किसी बात का भय नहीं होता.     

                   विख्यात हंगेरियन मनोवैज्ञानिक फेरेज नैडेस्डी ने अपनी पुस्तक “फियर ऑर फ्रीडम” में डर का एक अन्य कारण बताते हुए लिखा है कि डर वहीं उत्पन्न होता है जहाँ एक विशेष प्रकार के ढाँचे में जीने की चाह होती है.

                   ब्रिटिश मनःशास्त्री रिचर्ड गार्नेट ने अपनी पुस्तक “साइकोलॉजी ऑफ फियर” में लिखा है कि शारीरिक कष्ट एक स्नायुगत अभिक्रिया है किंतु डर तब उत्पन्न होता है जब व्यक्ति का किसी वस्तु से गहनतम तादात्म्य हो जाता है.

                   प्रसिद्ध मनोचिकित्सक एवं कॉसमॉस इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस  के निदेशक डॉ. सुनील मित्तल के अनुसार व्यक्ति का डर “एमिगडला” नामक हमारे मस्तिष्क के एक छोटे से हिस्से के द्वारा नियंत्रित होता है. यह हिस्सा केवल हमारी भावनात्मकता से संबंधित है. यह हमारी भावनाओं और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है. जब व्यक्ति भविष्य में होने वाली अनहोनी बातों, मौत या अतीत में हुयी दर्दनाक घटना या दुर्घटना के बारे में सोचता है तो यह भाग अत्यधिक सक्रिय हो जाता है जिससे डर उत्पन्न होता है.

                    मेरा अनुभव कहता है , सभी तरह के डर से मुक्ति का एक मात्र उपाय है अपने मन को मजबूत बनाकर डर का सामना करना.


- मन मोहन जोशी 

रविवार, 8 जुलाई 2018

डर का रसायन........



  
                      क्या आपमें से किसी के साथ कभी ऐसा हुआ है कि कोई डरावना सपना देखते हुए अचानक आधी रात को आपकी नींद खुल गई होवह सपना भले ही टूट चुका हो लेकिन आप अपने शरीर को हिलाने या कुछ बोलने में खुद को असमर्थ पाते हैंआप जोर से चिल्लाना चाहते हैं लेकिन आवाज़ नहीं निकलती. मेरे साथ तो कई बार हुआ है.

                    जिन लोगों ने जीवन में कभी ऐसे हालात का अनुभव नहीं किया है उनके लिए यह एक कहानी हो सकती है. लेकिन जो लोग इस दौर से गुजरे हैं उनके लिए यह सब बेहद खौफनाक है. क्योंकि यह ऐसा समय होता हैजब हम जाग तो रहे होते हैं लेकिन  पूरी तरह अपने शरीर पर नियंत्रण को खो देते हैं. यह एक बहुत ही डरावना अनुभव है.

                    ये मेरे कई निजी अनुभवों में से एक ऐसा अनुभव है जिसे मैंने आज तक किसी के साथ नहीं बांटा. हाँ जब छोटा था तो अकेले अँधेरे में नहीं जाता था. अकेले नहीं सोता था. हम भाई बहनों में मैं सबसे डरपोक था. लेकिन मुझे कुछ ही चीज़ों से डर लगता था जैसे: अँधेरे से और भूत-प्रेतों से.

                   तो क्या भूत प्रेत होते हैं. क्या मृत्यु के बाद कुछ बचता है?? क्या आत्मा होती हैस्वामी अभेदानंद की लिखी पुस्तक “Life Beyond Death” जो  मैंने वर्ष 2001 में पढ़ी थी या खुर्शीद भाव नगरी की “The Laws of the spirit world” जो हाल ही में पढ़ी है के अनुसार हाँ. अगर मुझसे पूछा जाए कि मेरा अनुभव क्या है तो उत्तर सकारात्मक ही होगा.

                   बहरहाल जीवन जिसे हम देख रहे हैं जब वो इतना रहस्यमयी है तो मृत्यु कितनी रहस्यमयी होगी सोच से परे है. नींद में किसी डरावने सपने को देख कर नींद का खुल जाना और शरीर का निढाल पड़े रहनादो तरह से देखा जाता है. दर्शन शास्त्र में इसे शरीर और आत्मा के अलग होने से जोड़ा जाता है. जब हम नींद में होते हैं तो हमारी आत्मा ट्रेवल करती है. और कुछ अतीव संवेदनशील लोग इन दोनों को अलग देख पाते हैं.     
      
                    वहीं शरीर विज्ञान इसे एक शारीरिक समस्या के रूप में देखता है जिसे स्लीप पैरालिसिस” नाम दिया गया है. यह एक ऐसी अवस्था है जब नींद खुलने के बाद भी मस्तिष्क अटैक’ के दायरे में ही रहता है और खौफ को महसूस करता है. कभी कभार स्लीप पैरालिसिस में यह भ्रम हो जाता है कि कोई तीसरा व्यक्ति कमरे में घुस आया है. स्पिरिट वर्ल्ड में इसे आत्मा को महसूस करना कहते हैं.

                 कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि नींद में जो डरावना सपना हम देख रहे होते हैं,  आंख खुलने के बाद भी वह  पीछा कर रहा होता हैजिसकी वजह से हम उस डर से बाहर नहीं निकल पाते. परिणामस्वरूप स्लीप पैरालिसिस हो जाता है. क्योंकि डर इतना खतरनाक होता है कि डर की वजह से शरीर जड़ हो जाता है.

                  बहुत से लोगों ने यह भी दावा किया है कि नींद खुलते ही उन्हें ऐसा लगता है कि उनके सीने पर कोई दबाव बना रहा है. इसे कुछ लोग प्रेत आत्मा का दबाव कहते हैं. चीनी अवधारणा में यह अनुभव जानलेवा भी माना गया है.

                   यह समस्या बहुत आम है लेकिन अधिकतर लोग इसे स्वीकार नहीं करते हैं. उन्हें डरपोक समझे जाने कर डर होता है. बड़ी अफसोस की बात यह है कि अभी तक विज्ञान के पास स्लीप पैरालिसिस को लेकर कोई पुख्ता जानकारी नहीं है कि यह वाकई किसी तरह की बीमारी हैइसके पीछे कोई पारलौकिक शक्ति है या फिर यह सब मस्तिष्क का भ्रम मात्र है.

                   डर के शरीर विज्ञान के अध्ययन से पता चलता है  कि जब हम डरते हैं तब एड्रेनल ग्रंथियोंअर्थात् एड्रेनालाईन और कोर्टिसोल द्वारा एक विशेष तरह के हार्मोन का उत्सर्जन होता है. यह हॉर्मोन लोगों में अलग अलग प्रतिक्रियाओं जैसे उत्तेजना या अवरोध को जन्म देते हैं. इस पर बहुत शोध की आवश्यकता है. यह रसायन अभी भी एक रहस्य बना हुआ है.
  
                    हम उस दौर में बड़े हुए हैं जब टी.वी. पर “Zee Horror Show” और “Aahat” जैसे सीरियल आते थे. रामसे ब्रदर्स के फूहड़ डरावनी फिल्मों का दौर था वो. लेकिन यकीन मानें कि मैं इनमें से कोई भी सीरियल या फिल्म नहीं देखता था. क्यूंकि मैं हर एक चीज़ को रिअलाइज कर सकता था. मुझे लम्बे समय तक इस बात का पूरा यकीन रहा कि मैं डरपोक हूँ.
  
                   लेकिन बाद में मैंने डर के कारण और उसके निवारण के लिए काफी अध्ययन किया. मृत्यु के सम्बन्ध में भी दर्शन और विज्ञान की ख़ाक छानी और फिर डर का सामना करने का निश्चय किया.

                   बस्तर जिले के एक छोटे से कसबे जगदलपुर में हमारा पक्का मकान था और मकान के पीछे कुछ पुश्तैनी मिट्टी के बने कमरे. मैंने एक कमरे को अपने अध्ययन के लिए सजाया. मिट्टी का यह कमरा घर के पीछे अँधेरे में था और मैंने शुरुआत इस कमरे में रहकर की.
  
                   यह कमरा मेरे ताऊ जी का था जिन्हें हम प्यार से बाबा कहते थे. उनकी मृत्यु गाँव के कुँए में डूबकर हुई थी. मैंने महसूस किया था उनका कुँए में डूबना. मरने के बाद भी लगभग तीन महीने तक वो मुझसे बात करने की कोशिश करते रहे. आधी रात को उनकी आवाज़ मेरे कानों में गूंजती थी. लगता था जैसे वो मुझे कहीं दूर से बुला रहे हैं. रात के समय कमरे में होते थे मैं और मेरे सभी तरह के डर. कई रात नहीं सोया. डर से बातें करते बिता दी. मैंने डर को करीब से देखा हैडर से बातें की हैदो-दो हाथ भी किये हैं और अब उबर गया हूँ सभी तरह के डरों से.   

                    समय रहते अपने डर को पहचानने की आवश्यकता है क्यूंकि डर से मुक्ति पाने की पहली आवश्यकता है डर को जानना उसे पहचानना. डर से मुक्त हुए बिना जीवन के उन्मुक्त आकाश में विचारना संभव नहीं. 



  - मन मोहन जोशी