Diary Ke Panne

रविवार, 22 जुलाई 2018

गोंचा पर्व - हरी बोल

तुपकी चलाते हुए



श्री बलभद्र , सुभद्रा और जगन्नाथ  


                                      
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भगवान् श्री जगन्नाथ - हरी बोल 





                       बताते हैं की हमारे पूर्वज भारत के उड़ीसा राज्य के पुरी क्षेत्र के रहने वाले थे. हां वही पुरी जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र तथा श्री क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है. वही पुरी जो भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है. पापा से ऐसा जानने को मिला था की बस्तर महाराजा ने अपने राज्य क्षेत्र में पूजा पाठ करने हेतु हमारे पूर्वजों को भूमि देकर बस्तर क्षेत्र में बसाया था.

                  छत्तीसगढ़ ही नहीं अपितु भारत देश का सबसे खूबसूरत क्षेत्र है बस्तर. वनवासी संस्कृति से परिपूर्ण. खनिज सम्पद्दा और वन क्षेत्र को अपने में समेटे यह एक अद्वितीय स्थल है, जो अभी व्यावसायिक पर्यटन से कुछ हद तक अछूता है. आज यहाँ "बाहुड़ा गोंचा" त्यौहार मनाया जा रहा है.

                   मूलतः यह जगन्नाथ पुरी में मनाया जाने वाला त्यौहार है. जहां के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ हैं. पुरी में यह त्यौहार "रथयात्रा" के नाम से मनाया जाता है. लेकिन छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में इसे "गोंचा पर्व" के नाम से मानते हैं. यह रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन मुख्य मंदिर से शुरू होकर दो किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर पर समाप्त होती है, जहां भगवान जगन्नाथ सात दिनों तक विश्राम करते हैं. आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन फिर से वापसी यात्रा होती है, जो मुख्य मंदिर पहुंचती है. ओड़िसा में इसे ही "बहुड़ा यात्रा" कहते हैं. बस्तर के लोग इसी यात्रा को "बाहुड़ा गोंचा" के नाम से मनाते हैं.  

                   पुरी की यह रथ यात्रा देश विदेश के सैलानियों का आकर्षण केंद्र होती है. इससे सम्बंधित कुछ ख़ास बातें इस प्रकार हैं :
1)- भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा- तीनों के रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते हैं. ये लकड़ी वजन में अन्य लकडिय़ों की तुलना में हल्की होती है और इससे बने रथ को आसानी से खींचा जा सकता है. भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल और पीला होता है और यह अन्य रथों से आकार में बड़ा भी होता है. यह रथ, यात्रा में बलभद्र और सुभद्रा के रथ के पीछे चलता है.

2) भगवान जगन्नाथ के रथ के कई नाम हैं जैसे:- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि. इस रथ के घोड़ों के नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व हैं, जिनका रंग सफेद होता है. इसके सारथी का नाम दारुक है. इस रथ के रक्षक भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़ हैं. रथ की ध्वजा को त्रिलोक्यवाहिनी कहा जाता है. रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है. इस रथ में 16 पहिए होते हैं.

3) बलराम के रथ का नाम तालध्वज है. इस पर महादेव का प्रतीक अंकित होता है. रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी का नाम मताली है. रथ के ध्वज को उतानी कहते हैं. त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्वों के नाम हैं.

4)  सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन है. सुभद्राजी के रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा होता है. रथ की रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन हैं. रथ का ध्वज नदंबिक कहलाता है. रोचिक, मोचिक, जिता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं.

                    भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की यह परंपरा अति प्राचीन है. इस रथ यात्रा से जुड़ी एक कथा इस प्रकार है : "कलयुग के प्रारंभिक काल में मालव देश पर राजा इंद्रद्युम का शासन था. वह भगवान जगन्नाथ के भक्त थे. राजन ने पुरी में एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया. मंदिर निर्माण से प्रसन्न भगवान् जगन्नाथ ने राजा इंद्रद्युम से कहा कि वे वर्ष में एक बार आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन यहाँ पधारेंगे.  स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के यात्रा की व्यवस्था की. तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है."
  
                     छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल अंचल बस्तर में मनाया जाने वाला गोंचा पर्व पुरी के रथ यात्रा के समान होते हुए भी कई मायनों में अनोखा है. बस्तर के गाँव बेड़ाउमर के कारीगर रियासतकाल से रथ निर्माण का कार्य कर रहे हैं. बस्तर महाराजा द्वारा वर्षों पूर्व सौंपे गए इस कार्य को वहाँ की पीढियां अब तक पूरा कर रही हैं.
  
                       बस्तर गोंचा पर्व में भगवान जगन्नाथ के सम्मान में तुपकी चलाने की भी अनोखी परंपरा है जो इस पर्व को विश्व में अलग स्थान दिलाती है. बस्तर के नानगूर क्षेत्र के आदिवासियों  द्वारा तुपकी बनाने का कार्य गोंचा पर्व के एक-दो माह पूर्व प्रारंभ कर दिया जाता है.

                         तुपकी का शाब्दिक अर्थ है छोटी तोप. बस्तर में बन्दुक को तुपक कहा जाता है शायद इससे ही तुपकी शब्द बना हो. तुपकी पोले बांस की नली से बनाई जाती है. इसे तैयार करने के लिए ताड़ के पत्तों, बांस की खपच्चीयों  तथा रंग-बिरंगी कागज की पन्नियों का उपयोग किया जाता है. 

                        “पेंगको तुपकी की गोली के रूप में उपयोग में लाया जाता है. यह एक जंगली फल है जो मटरदाने के समान दिखता है. इस फल का संस्कृत-हिन्दी नाम मलकांगिनी है, जो आषाढ़ माह में बस्तर के जंगलों में फलता-फूलता है. यह तुपकी गोंचा पर्व और आदिवासी संस्कृति का समन्वय है.

                        ये अनोखी संस्कृति, त्यौहार और विरासत हमें विश्व में सबसे अनोखा बनाते हैं. आवश्यकता हैं इन्हें जानने, समझने और इन पर गर्व करने की. इन्हें संजोये रखना भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है.

         - मनमोहन जोशी 

1 टिप्पणी:

  1. जय जगन्नाथ स्वामी नयन पथगामी भव तुमे।।हरि बोल ।। प्रणाम 🙏 ।

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