Diary Ke Panne

शनिवार, 30 दिसंबर 2017

स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया- वर्ष का अंतिम दिन




आज वर्ष का अंतिम दिन है ...
 
            पिछले वर्ष आज ही के दिन मैंने इस ब्लॉग को लिखना शुरू किया था....देखता हूँ तो लगता है क्षण भर पहले ही तो पिछला साल आया था और पलक झपकते ही बीत चला. जीवन भी कुछ ऐसे ही बीत रहा है. क्या इसे ही बुद्ध ने क्षणिक वाद कहा है. कोई भी वस्तु या पदार्थ स्थायी नहीं है वह क्षण प्रति-क्षण परिवर्तित होती रहती है. बुद्ध ने इसकी तुलना दीपशिखा की लौ से की और कहा कि प्रत्येक पदार्थ अनित्य है, यह संसार अनित्य है. मेरे देखे यही क्षणिकवाद का सार है... पहले कहीं पढ़ा था आज अनुभूति हो रही है.

         समय सापेक्ष होता है अगर इसके सापेक्ष कुछ न हो तो हमें समय के बीतने का पता ही न चले. सुखद समय जल्दी बीत जाता है और दुःख का समय लम्बा होता है. लेकिन समय सुख का हो या दुःख का इसकी अच्छी आदत यह है की यह बीतता ज़रूर है.

        जब मैं छोटा था तो नए वर्ष का बेसब्री से इंतज़ार होता था क्यूंकि मेरा न्यू इयर सेलिब्रेशन सबसे लम्बा चलता था... शुरुआत, महीनों पहले पिकनिक की प्लानिंग से होती थी. कई यादें हैं. एक बार मैं अपने संगीत स्कूल के मित्रों के साथ पिकनिक पर गया था. वर्ष का पहला दिन हमने कांगेर घाटी नेशनल पार्क में मनाने का फैसला किया.. कांगेर घाटी नेशनल पार्क, छत्तीसगढ के बस्तर में स्थित है. कांगेर घाटी में वन देवी अपने पूरे श्रृंगार मे मंत्रमुग्ध कर देने वाली दृश्यावलियों को समेटे, भूमिगर्भित गुफाओ को सीने से लगाकर यूं खडी रहती है मानो आपके आगमन का इंतजार कर रही हो.

         उन दिनों मैं कक्षा 9 में पढता था. हम कांगेर घाटी नेशनल पार्क में कैलाश गुफा देखकर दोपहर तक भोजन पकाने व खाने हेतु  घने जंगले के बीच पहुँच गए... हमारे ग्रुप में लडकियां, बच्चे तथा वृद्ध भी थे. पूरी प्लानिंग हमारे शिक्षक रामदास वैष्णव सर के हाथों में थी. सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक तेज़ बारिश शुरू हो गई. हम एक खुले ट्रक में गए थे.. जिसमें गद्दे बिछाए हुए थे . पानी ट्रक में भर रहा था और हम असहाय थे. अब सब कुछ हॉलीवुड फिल्म की तरह लग रहा था. घने जंगले में शाम घिरने को थी. जंगली जानवरों का डर और तेज़ बारिश. ड्राईवर गाड़ी घुमा कर बाहर की ओर  निकालने की कोशिश करने लगा. लेकिन गाडी कच्चे रस्ते में फंस गई.
सभी ने निर्णय लिया की गाड़ी को वहीँ छोड़ कर पैदल चलना चाहिए.लेकिन कितनी दूर चलना होगा ? क्या शाम ढलने से पहले बाहर निकल पाएंगे ?

         हम लोग बहुत देर चलते रहे .. पूरी तरह से भीग चुके थे. रास्ता नहीं सूझ रहा था कि  तभी फ़िल्मी स्टाइल में एक झोपड़ी दिख पड़ी ... हम सब झोपड़ी में समां गए.. अलाव जलाई गई.... और पता नहीं कब मुझे नींद आ गई ... आधी रात में मुझे लगा जैसे पापा पुकार रहे हों ( पापा हमारे रियल हीरो रहे हैं). आँख खोली तो देखा पापा सामने खड़े थे. हमें खोजते हुए वो यहाँ तक पहुंचे थे. बहुत सारा खाने का सामान पापा साथ लाये थे... उन्होंने हमें रेस्क्यू किया.. रस्ते भर वो मास्साब को फटकार लगाते रहे. ऐसी कई यादें हैं नए साल को लेकर, जो कभी फिर प्रसंग वश शब्दों में उतारी जायेगी.

 
       बहरहाल वर्ष के इस अंतिम दिन पिछला वर्ष मेरे सामने है क्या खोया क्या पाया वाले अंदाज़ में. मेरे देखे इस दुनिया में कुछ भी खोने जैसा नहीं है क्यूंकि खाली हाथ ही तो आये थे इस दुनिया में..... और खाली हाथ ही जाना है . लेकिन इस आने और जाने के क्रम में जीवन पथ पर बढ़ते जाना और हर क्षण कुछ नया सीखना महत्वपूर्ण है. महत्वपूर्ण यह भी है की हम बेहतर और बेहतर होते चले जाएँ और अपने आप को जान सकें.
      
         सीखना एक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली प्रक्रिया है. जीव गर्भ में आने के साथ ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है. धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है. इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं.

          जीवन पथ में जो कुछ भी मिला है आज उसका शुक्रिया अदा करता हूँ और जो कुछ भी आने वाला है मुस्कुराकर उसका स्वागत करने को तैयार हूँ ....

बकौल कुंवर बेचैन साहब :
“चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया.

जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया.

आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों,
मेरी राह में आने का शुक्रिया.

सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया.”

आज बचे हुए शेष जीवन का पहला दिन है ......


(c) मनमोहन जोशी 

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

अनुभव का “अ”





              दो रोज़ पहले परीक्षाओं के रिजल्ट घोषित हुए. जैसा कि हमेशा ही होता है सफल प्रतिभागियों की संख्या असफल प्रतिभागियों से कम है इसका कारण यह है कि पद संख्या से प्रतिभागियों की संख्या हमेशा ही कई गुना होती है.देखता हूँ कि कीमती जीवन केवल परीक्षा की तैयारी और सिलेबस पूरा करने में खर्च हो रहा है. उस पर तुर्रा यह की ये दौड़ कभी ख़त्म नहीं होती. जो जिस पद को प्राप्त कर चुका है वह उससे संतुष्ट नहीं है, बड़े पद की चाह रखता है गोया कि दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, जो मिल जाए वो मिट्टी है, जो खो जाए वो सोना है.

            मेरे देखे युवाओं को आत्ममंथन की आवश्यकता है. ये ठीक है कि सफल व्यक्ति को सभी सलाम करते हैं. सभी सफलता पाना चाहते हैं. लेकिन सफलता का अर्थ क्या है
? क्या कोई परीक्षा पास कर लेना? कुछ बन जाना ? बहुत सारे पैसे कमा लेना ? विख्यात होना ? तय करना होगा.

           फिर उन लोगों का क्या जो असफल हो गए हैं
? उनकी संख्या तो कहीं ज्यादा है. ये वर्ग उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण निराशा व हताशा में चला जाता है. इनमें से अधिकतर के पास कोई कौशल नहीं होता, तो ढंग की नौकरी मिलने के आसार भी ख़त्म हो जाते हैं. लेकिन युवा वर्ग को ध्यान रखना चाहिए कि युवा ही वायु हैं, हर चीज़ का रूख मोड़ने की शक्ति रखता है युवा. मैं अपने लेक्चर्स में हमेशा यही कहता हूँ कि कोई परीक्षा तुम्हारी क्षमताओं को नहीं तय कर सकती. तुममें असीम शक्ति है उसे पहचानो. तुम  इस विराट अस्तित्व का भाग ही नहीं हो बल्कि तुम ही विराट अस्तित्व हो. तुम सागर में एक बूँद नहीं हो तुम ही सागर हो.

        मैं अक्सर कहता रहता हूँ नदी क्यूँ मैली नहीं होती
? क्योंकि वह बहती रहती है. पानी अपने मार्ग में आने वाले चट्टानों का सीना कैसे चीर देती है. क्योंकि वह निरंतर आगे बढती रहती है. पानी का एक बिन्दु झरने से नदी, नदी से महानदी और महानदी से समुद्र क्यों बन जाता है? क्योंकि वह बहता है. इसलिए हे जीवन! तुम रुको मत, बहते रहो. जीवन में कुछ असफलताएं आती हैं किंतु तुम उनसे घबराओ मत. उन्हें लांघकर दुगनी मेहनत करते चलो. बहना और चलना ही जीवन है. एक असफलता से भी घबरा कर रुक गए तो उसी तरह सड़ जाओगे जिस तरह रुका हुआ पानी सड़ जाता है. अपने आपको इतना मज़बूत बनाओ की भाग्य की छाती पर लात रख कर मंज़िल तक पहुँच  सको.

          मन को उठाने के लिए मूल मन्त्र हैं ये
, असफलता कहती है सबक अभी बाकी है, जिन्दगी अभी तराश रही है, प्राण-शक्ति के इम्तिहान अभी बाकी हैं.मंजिलें अभी दूर हैं और रस्ते पुकार रहे हैं. असफलता में से अनुभव का निचोड़ लो फिर देखो विशुद्ध सफलता ही बचेगी.


(c) मनमोहन जोशी (MJ)

रविवार, 3 दिसंबर 2017

अधिवक्ता दिवस की शुभकामनाएं.....




                            अधिवक्ता, बैरिस्टर, सॉलिसिटर, अटोर्नी, प्लीडर यही कुछ नाम हैं उस वर्ग के जिसे साधारणतः लोग वकील के नाम से जानते हैं. आज वकील दिवस है. स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद का जन्मदिन हर वर्ष अधिवक्ता  दिवस के रूप में मनाया जाता है. गर्व का विषय है कि मैं भी इस वर्ग का एक हिस्सा हूँ. बीएससी मैथमेटिक्स करने के दौरान भैया के एक मित्र से परिचय हुआ जो वकालत की पढ़ाई कर रहे थे और उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त कर मैंने भी प. रविशंकर विश्वविद्यालय से वकालत के कोर्स में दाखिला ले लिया. क्यूँ ? इसका कोई उत्तर मेरे पास तब न था. लेकिन नियति के पास ज़रूर रहा होगा.

                  कुछ समय प्रैक्टिस भी किया छतीसगढ़ में अधिवक्ता श्री संतोष मिश्र जी के सानिध्य में और कुछ समय जोधपुर उच्च न्यायालय में अधिवक्ता घनश्याम लाल जी जोशी के सानिध्य में. वर्तमान में से. नि. न्यायाधीश लक्ष्मीकांत भार्गव जी व विभिन्न विधिवेत्ताओं से उनकी किताबों के माध्यम  से सीख रहा हूँ. कानून की चंद किताबें भी नियंता ने मुझसे लिखवा ली हैं. सीखना, सीखाना और लिखना लगातार जारी है.     
                
                आरंभ में लॉ प्रोफेशन का उपयोग न्यायालय में विधि के गूढ़ार्थ को स्पष्ट करने में किया जाता था. आज भी इसका मुख्य कार्य यही है. मेरे देखे  आधुनिक समाज का स्वरूप एवं प्रगति मुख्यत: विधि द्वारा नियंत्रित होती है. लॉ प्रोफेशन को आधुनिक समाज का मुख्य आधार स्तंभ कहा जा सकता है.

                प्राचीन समय में समाज की संपूर्ण क्रियाशक्ति मुखिया के हाथ में होती थी. तब विधि का स्वरूप बहुत आदिम था. ज्योंही न्यायप्रशासन व्यक्ति के हाथ से समुदायों के हाथ में आया, विधि का रूप निखरने लगा. मध्य एशिया, मिस्र, रोम  मेसोपोटामिया में न्यायाधीशों ने , ग्रीस में अधिवक्ताओं और पंचों ने, मध्यकालीन ब्रिटेन और फ्रांस में विधिवेत्ताओं और अधिवक्ताओं ने तथा भारत में विधिपंडितों ने सर्वप्रथम विधि को समुचित आकार दिया.
    
           शुरुआत में पक्षकार न्यायालय में स्वयं अपना पक्ष रखते थे. कालांतर में विधि का रूप ज्यों ज्यों परिष्कृत हुआ उसमें जटिलता और प्राविधिकता आती चली गई. अत: पक्षकारों के लिए यह आवश्यक हो गया था कि विधि के गूढ़ तत्वों को वह किसी विशेषज्ञ द्वारा समझे तथा न्यायालय में उसका पक्ष विधिवत रूप से रखा जाए. व्यक्ति की निजी कठिनाइयों के कारण भी कभी - कभी यह आवश्यक हो जाता था कि वह अपनी अनुपस्थिति में किसी प्रतिनिधि को न्यायालय में भेजे. मेरे देखे वैयक्तिक सुविधा और विधि के प्राविधिक स्वरूप ने ही अधिवक्ताओं को जन्म दिया होगा. एक समय  पाश्चात्य एवं पूर्वी देशों में विधिज्ञाताओं ने बड़ा सम्मान प्राप्त किया.

                 भारतीय आर्य परंपरा के अनुसार आदिकाल से ही विधिपूर्ण न्याय की अपेक्षा की जाती रही. न्यायाधीश के रूप में राजा हमेशा विधि-आबद्ध होता था. विधिक वृत्ति या लॉ प्रोफेशन की शुरुआत कब से हुई इसका ठीक - ठीक प्रमाण तो कहीं नहीं मिलता लेकिन  ऋग्वैदिक काल में पुरोहित, विधिज्ञाता, एवं विधिपंडितों की सहायता से न्यायप्रशासन किया जाता था. गौतमसूत्र में इस प्रकार के विधिज्ञाता को प्राङ्विवाक कहा गया है.

                  मुस्लिमों  के आगमन के पश्चात् न्यायप्रशासन शर्रियत के अनुसार होने लगा. काजी, मुफ्ती, मुज्तहिद आदि  विधिज्ञाता होते थे, जिनकी सहायता से कुरान एवं इज्मा के अनुकूल न्याय किया जाता था. सुबुक्तगीन, महमूद गजनी तथा मोहम्मद गोरी ने यह प्रथा भारत में प्रचलित की. इब्नबतूता के अनुसार तुगलक काल में वकील शब्द का सर्वप्रथम वर्णन मिलता है. अकबर के राज्यकाल में वकील प्रथा थी या नहीं, इसपर विद्वानों में मतभेद है. औरंगजेब के शासनकाल  में वकील प्रथा का प्रमाण मिलता है. औरंगजेब के दरबार में यह नियम था कि दोनों पक्षों तथा उनके वकीलों की अनुपस्थिति में दावा अस्वीकृत हो जाता था. भारत के अंतिम स्वतंत्र शासक बहादुरशाह के समय में किसी व्यक्ति को अधिवक्ता होने के लिए वकालत खाँ की उपाधि दी जाती थी. 

              ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान विधि व्यवसाय को व्यवस्थित करने के प्रयास किये गए. सर्वप्रथम 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने विधिक वृत्ति को  व्यवस्थित करेने के लिए आवश्यक कदम उठाये. 1923 में पहली बार स्त्रियों को अधिवक्ता होने का अधिकार प्राप्त हुआ. कालांतर में देश के विभिन्न श्रेणियों के अधिवक्ताओं में समानता लाने  हेतु 1926 में इंडियन बार काउंसिल क्ट पारित किया गया.

              एक समय वकालत का पेशा बड़े ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था. यहाँ तक की यदि किसी घर का कोई सदस्य वकील हो तो लोग उस घर को  वकील साहब के घर के नाम से जानते थे. लेकिन वर्तमान समय में इस पेशे में गिरावट आई है. सिविल जज परीक्षा की तैयारी कर रहा एक छात्र बता रहा था कि उसके शहर में यदि कोई पूछता है कि आप क्या करते हैं? यदि जवाब में यह कहे की वकील हूँ तो पूछने वाला यह कहता है कि वकील हो वो तो ठीक है लेकिन करते क्या हो??

इस पेशे को सम्मान दिलवाना सभी अधिवक्ताओं की ज़िम्मेदारी है. अधिवक्ता दिवस की शुभकामनाएँ.


 (C) मनमोहन जोशी (MJ)

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

बचपन .....





                  पिछले दिनों बच्चों से जुड़े दो कार्यक्रमों में शिरकत करने का सुअवसर मिला. पहला श्री कैलाश सत्यार्थी जी द्वारा आयोजित बचपन बचाओ , भारत यात्राऔर दूसरा कौटिल्य एकेडमीद्वारा आयोजित नन्ही खुशियाँ”. पहला बच्चों से जुडी विभिन्न समस्याओं के प्रति जन जागरूकता फैलाने से सम्बंधित था और दूसरा बच्चों को एक दिन विलासिता की जीवन शैली के माध्यम से खुशियाँ प्रदान करने के लिए था. वैसे बच्चों से जुड़े कई संगठनों के साथ मैं लम्बे समय से काम कर रहा हूँ. उनमें से एक संगठन है वर्ल्ड विज़न इंडिया.
                 दुनिया भर के बुद्धिजीवी, बचपन बचाने के लिए संघर्ष रत हैं जिनमें भारत के कैलाश सत्यार्थी अग्रणी हैं. लेकिन आम भारतीय एक कदम आगे सोचता है, बच्चे होंगे तभी तो बचपन बचाया जायेगा. अतः हम एकमेव प्रक्रिया में लगे हुए हैं बच्चे पैदा करने के. 2012 में किसी संस्था द्वारा इकठ्ठा किये गए 10 वर्ष के आंकड़ों के शोध से एक डरावना सच  सामने आया कि भारत में औसतन 6700 बच्चे हर वर्ष केवल रोड एक्सीडेंट में मर जाते हैं. किसे फिक्र है ??? लाखों बच्चों के पास उचित जीवन स्तर नहीं है. करोड़ों बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और पूरा देश आबादी बढ़ाने के एकसूत्रीय कार्यक्रम में लगा हुआ है. पिछले वर्ष तक सरकार केवल एक ही बात पर जोर दे रही थी कि दूसरा बच्चा कब..... पहला स्कूल जाए तब. भला हो वर्तमान  सरकार का जिसने इस एड को हटा दिया है. अब दूरदर्शन पर एड आ रहा है पहले साल में बच्चा, बच्चों का काम है.
                      
                हाल ही में कैंब्रिज के एक रिसर्च में यह बात सामने आई है कि  विवाह की सही आयु टीन एज है. लेकिन हमने विवाह का एक गलत अर्थ लगा लिया. हमने समझा विवाह का मतलब बच्चा. और यह बात लोगों के मन में ऐसे घर कर गई है कि अगर विवाह के पहले साल बच्चा नहीं हुआ तो लोग यह समझने लगते हैं कि कहीं कोई प्रॉब्लम होगी. इसका कारण यह है कि अधिकतर लोगों के यहाँ बच्चे किसी परेशानी की वजह से ही नहीं हैं. अन्यथा प्रयास रत तो वे पहले दिन से ही हैं. बहुत कम समझदार लोग हैं जो परिवार नियोजन अपनाकर संतान विहीन हैं. समाज शास्त्रियों  को इस सामाजिक मनोविज्ञान पर शोध करना चाहिए. मेरे देखे  शोध का विषय तो यह भी है  की एक कमरे के मकान में पति पत्नी और सास-ससुर रहते हैं पति पत्नी दिन भर पेट पालने के लिए मजदूरी करते हैं और इनके एक के बाद एक पांच बच्चे हो जाते हैं कैसे
? मेरे देखे ये गणित का भी प्रश्न है.  गणितज्ञों को भी सोचना चाहिए कि इस मामले में गणित का कौन सा फार्मूला काम कर रहा है ? सारे गणितज्ञ अभी भी इसी गणना में लगे हुए हैं की एक पानी की टंकी में दो छेद  हैं जिनसे पानी बाहर गिर रहा है . ये दोनों छेद टंकी को एक घंटे में खाली कर देते हैं नल टंकी को तीन घंटे में भर सकता है. गणना करो की टंकी कितनी देर में भरेगी. मेरे देखे पहले छेद बंद कर दो प्रश्न अपने आप हल हो जाएगा. गणितज्ञों को कुछ और काम दिया जाना चाहिए . देश की बड़ी उर्जा इन मुर्खता पूर्ण सवालों को हल करने में खराब हो रही है. 
              
                   बचपन क्या है इस पर कई शोध हुए हैं. यह तर्क दिया जाता रहा है कि बचपन एक प्राकृतिक घटना न होकर समाज की रचना है. इतिहासकार फिलिप एरीस ने अपनी पुस्तक "सेंचुरीज़ ऑफ़ चाइल्डहुड" में इस बात पर विस्तार से चर्चा की है.  इस विषय को
कनिंघमने  अपनी पुस्तक इनवेन्शन ऑफ़ चाइल्डहुड में आगे बढ़ाया जो मध्यकाल से बचपन के ऐतिहासिक पहलुओं पर नज़र डालता है. एरीस के  पेंटिग, समाधि-पत्थर, फ़र्नीचर तथा स्कूल-अभिलेखों के अध्ययन को 1961 में प्रकाशित किया गया था. उन्होने पाया कि 17वीं शताब्दी से पहले किसी मनुष्य को वयस्क तथा अल्प-वयस्क के दो आयु वर्गों में विभाजित किया जाता था . एरीस के पहले जार्ज बोआसने अपनी कृति दी कल्ट आफ़ चाइल्डहुडमें बचपन पर विस्तार से चर्चा की है.

                 नवजागरण काल के दौरान
, यूरोप में बच्चों का कलात्मक प्रदर्शन नाटकीय रूप से बढ गया था. जीन जैक्स रूसोको  बचपन की आधुनिक धारणा की उत्पत्ति का श्रेय दिया जाता है. जान लॉक तथा अन्य 17वीं सदी के अन्य उदार विचारकों के विचार के आधार पर रूसो ने बचपन को वयस्कता के ख़तरों और कठिनाइयों से मुठभेड़ से पहले की लघु अवधि कहा है. रूसो ने कहा है  कि  "शुरुआती बचपन के जल्दी निकल जाने वाले दिनों को  कड़वाहट से बचाना होगा , जो दिन न उनके लिए और ना ही आपके लिए कभी लौट कर आने वाले हैं?"

                  विक्टोरिया काल को बचपन की आधुनिक संस्था के स्रोत के रूप में जाना जाता है . जब  कि इस काल की औद्योगिक क्रांति ने बाल श्रम को बढ़ा दिया था. चार्ल्स डिकेन्स तथा अन्य समाज सुधारकों के प्रयासों के चलते  बाल मजदूरी उत्तरोत्तर कम होती गई और 1802-1878 के कारख़ाना अधिनियम द्वारा समाप्त हुई . भारत में अभी तक नहीं हो पाई .

               “एल.किन्चेलोऔर शर्ली आर.स्टीनबर्गने बचपन और बचपन की शिक्षा पर एक आलोचनात्मक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है  जिसे किंडरकल्चरके नाम से जाना जाता है. किन्चेलो और स्टीनबर्ग ने बचपन के अध्ययन के लिए कई अनुसंधान और सैद्धांतिक विमर्शों का उपयोग विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर किया. और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आधुनिक काल ने बचपन के नए युग में प्रवेश किया है. इस नाटकीय परिवर्तन के साक्ष्य सर्वव्यापी हैं . जब किन्चेलो और स्टीनबर्ग ने किंडरकल्चर का पहला संस्करण लिखा, "दी कोर्पोरेट कल्चर ऑफ़ चाइल्डहुड"  तब दुनिया भर में लोग इस परिवर्तन के साक्षी बन रहे थे. किन्चेलो और स्टीनबर्ग का मानना है कि  सूचना प्रौद्योगिकी ने अकेले ही बचपन के एक नए युग का सूत्रपात नहीं किया है अपितु कई सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों ने इस तरह के परिवर्तनों को संचालित किया है. किंडरकल्चर का मुख्य प्रयोजन, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से बचपन की बदलती ऐतिहासिक स्थिति को स्थापित करना तथा उन कारकों को विशेष रूप से जांचना है जिसे किन्चेलो तथा स्टीनबर्ग "नया बचपन" कहते हैं.

               वर्तमान इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के युग में बच्चे घर के बाहर कम समय बिता रहे हैं यह प्रवृत्ति खतरनाक है जिसे एक विकार के रूप में देखा जा रहा है.
रिचर्ड लउने अपनी कृति लास्ट चाइल्ड इन द वुड्समें  इस विकार को नेचर डेफ़िसिट डिसार्डरका नाम दिया है जो बच्चों द्वारा घर से बाहर कम समय व्यतीत करने की कथित प्रवृत्ति को निर्दिष्ट करता है. इस विकार के  परिणामस्वरूप विभिन्न व्यवहारपरक समस्याएं उत्पन्न होती हैं. बच्चों में संवेदनहीनता बढती जा रही है . पर्यावरण के प्रति उनकी समझ कम होती जा रही है. वे आभासी दुनिया में ज्यादा और वास्तविक दुनिया में कम समाय बिता रहे हैं.  कंप्यूटर, वीडियो गेम, इंटरनेट  और टेलीविज़न के आगमन के साथ, बच्चों को बाहर की छानबीन से अधिक, घर के अंदर रहने के अनेक कारण मिल गए हैं. माता-पिता भी बच्चों का (बढ़ते हुए ख़तरों से संबंधित भय के कारण, उनकी सुरक्षा की दृष्टि से) घर के भीतर ही रहना ठीक मान रहे हैं .

                अक्सर बुद्धिजीवी यह पूछते हुए मिल जाते हैं कि क्या हम आने वाली पीढ़ी के लिए अच्छी पृथ्वी छोड़ कर जा रहे हैं?? मैं ये पूछता हूँ कि  क्या हम भविष्य की पृथ्वी के लिए संवेदनशील/समझदार/ अच्छे बच्चे छोड़ कर जा रहे हैं
???


सोचिये ------
   

(c) मनमोहन जोशी "MJ"