Diary Ke Panne

शनिवार, 30 सितंबर 2017

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा - दशहरा और विजय दशमी


रावण वध... 

बस्तर दशहरे का विहंगम दृश्य.. 

                
                  दशहरा शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों के संयोजन दशहरासे हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण का वध कर  राक्षस राज की समाप्ति से है. यही कारण है कि इस दिन को अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था. इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण के पुतले का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती है.

                  रामचरित मानस में राम रावण के युद्ध का एक अद्भुत प्रसंग आता है... रावण रथ पर सवार होकर चला आ रहा  है, कवच और हथियारों से सुसज्जित. जबकि राम रथविहीन पैदल हैं. यह देख विभीषण अधीर हो उठते हैं. राम के प्रति अपने अति प्रेम व चिंता वश कहते हैं, "प्रभु आपके पास न रथ है, न ही सुरक्षा हेतु कवच है. किस तरह इतने बलशाली योद्धा से जीत सकेंगे?" राम यह सुनकर मुस्कुराते हैं, कहते हैं  कि मित्र जिस रथ से विजयश्री मिलती है वह कोई और रथ होता है. सुनो सफलता प्राप्ति का मंत्र.....

                  राम कहते हैं विजयश्री प्रदान करने वाले रथ के पहिये शौर्य व धैर्य होते हैं. सत्य व मर्यादा उसकी पताका होते हैं. बल बुद्धि व अनुशासन उसके घोड़े होते हैं. जो क्षमाकृपा व समता की रस्सी से आपस में जुड़े होते हैं. ईश्वर की आराधना ही उसका सारथी है. विरक्ति उसकी ढाल है और संतोष ही उसका कृपाण होता है. दान उसका फरसा और बुद्धि उसकी प्रचंड शक्ति है. विज्ञान कौशल ही उसका मजबूत धनुष है. निर्मल मन ही वह तरकश है जिसमें यम व नियम के अनगिनत बाण संगृहीत होते हैं और गुरु की वंदना अभेद कवच है. और इससे योग्य विजय हेतु कोई साधन नहीं.

                  श्री राम कहते हैं, “हे मित्र जिसके पास यह धर्ममयी रथ है,उसे इस संसार में कहीं भी व कोई भी शत्रु पराजित नहीं कर सकता।

                  इस अद्भुत प्रसंग को तुलसी ने बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है बाबा तुलसी के शब्दों में:

"रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।बंदि चरन कह सहित सनेहा।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना।केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।जेहि जय होइ सो स्यंदन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे।छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना।बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।बर बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन समाना।सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा।एहि सम विजय उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।जीत न कहँ न कतहुँ रिपु ताके।
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।"

                  दशहरे का सम्बन्ध जहां राम रावण युद्ध से है तो वहीं विजयादाशमी का संबंध सीधे महिषासुर मर्दिनी माँ दुर्गा से जुड़ा है. पौराणिक वर्णन के अनुसार अश्विन शुक्ल दशमी को माँ दुर्गा ने अत्याचारी महिषासुर का शिरोच्छेदन किया था. इसी कारण इस तिथि को विजयादशमी उत्सव के रूप में लोक मान्यता प्राप्त हुई.

                  भारत के विभिन्न राज्यों में मनाये जाने वाले दशहरे का सम्बन्ध श्री राम द्वारा किये गए रावण वध से है लेकिन छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में मनाये जाने वाले दशहरा पर्व का सम्बन्ध विशुद्ध रूप से माँ दुर्गा के ही एक रूप माई दंतेश्वरी से है. वहाँ रावण दहन को मान्यता नहीं है.

                   बस्तर, छत्तीसगढ़ राज्य का एक जिला है. ख़ूबसूरत जंगलों और आदिवासी संस्कृति में रंगा जिला बस्तर, प्रदेश‌ की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर जाना जाता है. 39114 वर्ग किलोमीटर में फैला ये जिला एक समय केरल जैसे राज्य और बेल्जियम, इज़राइल जैसे देशॊ से बड़ा था. प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से 1998 में इसमें से दो अलग जिले कांकेर और दंतेवाड़ा बनाए गए. बस्तर का जिला मुख्यालय जगदलपुर, राजधानी रायपुर से 305 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. जिले की करीब 70 प्रतिषत आबादी गोंड, माडिया, मुरिया, हलबा आदि लोगों की है. उड़ीसा से शुरू होकर दंतेवाड़ा की भद्रकाली नदी में समाहित होने वाली करीब 240 किलोमीटर लंबी इंद्रावती नदी बस्तर के लोगों के लिए आस्था और भक्ति की प्रतीक है.

                   वैसे तो जन्म स्थान होने के कारण बस्तर दशहरे को करीब से देखा है लेकिन पिछले वर्ष दशहरे में शामिल होने विशेष रूप से जगदलपुर गया था. बस्तर अंचल में आयोजित होने वाले पारंपरिक पर्वों में बस्तर दशहरा सर्वश्रेष्ठ है. बस्तर दशहरा की परंपरा और इसकी जन स्वीकृति इतनी व्यापक है कि यह पर्व लगातार 75 दिनों तक चलता है. यह अपने प्रारंभिक काल से ही जगदलपुर नगर में अत्यंत गरिमा एवं सांस्कृतिक वैभव के साथ मनाया जाता रहा है.

                  मैंने कहीं पढ़ा था कि  बस्तर के चालुक्य नरेश भैराजदेव के पुत्र पुरुषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथपुरी तक पदयात्रा कर मंदिर में एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तथा स्वर्णाभूषण अर्पित की थी. इस पर पुजारी को भगवान् जगन्नाथ ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति घोषित किया जाए. कहते हैं कि राजा पुरुषोत्तम देव जब पुरी धाम से बस्तर लौटे तभी से गोंचा और दशहरा पर्वों में रथ चलाने की प्रथा शुरू हुई.

                   बस्तर दशहरा की शुरुआत काछनगादी पूजन से होती है जिसका अर्थ है काछिन देवी को गद्दी देना. काछिनदेवी की गद्दी काँटों की होती है. मेरे देखे काछिन देवी काँटों की गद्दी पर बैठकर जीवन की समस्याओं  को जीतने का संदेश देती हैं. काछिन देवी बस्तर के मिरगानो की कुलदेवी हैं. मान्यता के अनुसार काछिन देवी धन-धान्य की वृद्धि एवं रक्षा करती हैं. एक परमभक्त सिरहा आवाहन करता है. देवी के आगमन पर झूलेपर सुलाकर उसे झुलाते हैं. फिर देवी की पूजा अर्चना कर दशहरा मनाने की स्वीकृति प्राप्त की जाती है.
                  
                 अश्विन शुक्ल प्रथमा से बस्तर दशहरे की शुरुआत  दंतेश्वरी देवी की पूजा कर की जाती है. इसी दिन सिरासार हॉल में जोगी बिठाई की प्रथा पूरी की जाती है. कहा जाता है कि पहले कभी दशहरे के अवसर पर कोई वनवासी दशहरा निर्विघ्न संपन्न होने की कामना लेकर अपने ढंग से योग साधना में बैठ गया था. तभी से बस्तर दशहरा के अंतर्गत जोगी बिठाने की प्रथा चल पड़ी है. 

                 अश्विन शुक्ल द्वितीया से लेकर लगातार अश्विन शुक्ल सप्तमी तक  तक चार पहिए वाले रथ की परिक्रमा होती है. यह रथ पुष्प सज्जा प्रधान होने के कारण फूलरथ कहलाता है. इस रथ पर  केवल देवी दंतेश्वरी का छत्र ही आरुढ़ रहता है. साथ में देवी के  पुजारी होते हैं.  दुर्गाष्टमी के अंतर्गत निशाजात्रा का कार्यक्रम होता है। निशाजात्रा का जलूस नगर के इतवारी बाज़ार से लगे पूजा मंडप तक पहुँचता है.

                अश्विन शुक्ल नवमी की शाम, जोगी को समारोह पूर्वक उठाया जाता है. फिर जोगी को भेंट देकर सम्मानित करते हैं. इसी दिन लगभग रात्रि नौ बजे  मावली परघाव कार्यक्रम होता है. इस कार्यक्रम के तहत दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई गई माता मावली की मूर्ति और छत्र का स्वागत किया जाता है. मावली देवी दंतेश्वरी का ही  रूप हैं.
                   
                 दशहरे के दिन जगदलपुर में भीड़ अपनी चरमावस्था पर पहुँच जाती है. विजयादशमी के दिन भीतर रैनी तथा एकादशी के दिन बाहिर रैनी के कार्यक्रम होते हैं. दोनों दिन आठ पहियों वाला विशाल रथ चलता है. कहा जाता है कि विजयदशमी की शाम को जब रथ वर्तमान नगर पालिका कार्यालय के पास पहुँचता था तब रथ के समक्ष एक भैंस की बलि दी जाती थी. भैंसा महिषासुर का प्रतीक बनकर काम आता था. तत्पश्चात हनुमान मंदिर के सामने जलूस में उपस्थित नागरिकों को रुमाल और पान के बीड़े देकर सम्मानित किया जाता है. विजयादशमी के रथ की परिक्रमा जब पूरी हो चुकती है तब आदिवासी आठ पहियों वाले इस रथ को प्रथा के अनुसार चुराकर कुमढ़ाकोट ले जाते हैं. कुमढ़ाकोट में राजा द्वारा देवी को नया अन्न अर्पित अर्पित किया जाता है, फिर सब प्रसाद ग्रहण करते हैं.

                 अश्विन शुक्ल द्वादशी को को प्रातः निर्विघ्न दशहरा संपन्न होने की खुशी में काछिन जात्रा के अंतर्गत काछिन देवी की पूजा अर्चना की जाती है. शाम को सीरासार में एक आम सभा का आयोजन होता है जिसमें राजा और प्रजा के बीच विचारों का आदान प्रदान होता है.  इस सभा को मुरिया दरबार कहा जाता है. इसी के साथ गाँव-गाँव से आए देवी देवताओं की विदाई होती है. 

                 बस्तर दशहरा अपने आप में अद्भुत है. इसकी भव्यता की जितनी भी चर्चा की जाए कम ही है. वर्तमान बस्तर, नक्सल समस्या और पिछड़ेपन के लिए जाना जाता है. जबकि इसकी पहचान होनी चाहिए आदिवासी संस्कृति से, भव्यतम झरनों से, खूबसूरत प्राकृतिक वातावरण से, कांगेर घाटी नेशनल पार्क से, चित्रकोट और तीरथगढ़ से, बारसूर से, विभिन्न प्राकृतिक गुफाओं से और यहाँ मनाये जाने वाले अप्रतीम, अद्भुत, भव्यतम दशहरे से.

                        

                       -मनमोहन जोशी (MJ)

शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

सफरनामा – “दी नंबर वन ब्रांड ऑफ़ इंडिया” और “कौटिल्य”







                       कौटिल्य एकेडमी, एक संस्था जो बन चुकी है सफलता का पर्याय.संस्था जो विश्वास करती है परिश्रम आपका,मार्गदर्शन हमारा,व सफलता सबकीके ध्येय वाक्य पर. इस संस्था के ब्रांड बनने की यात्रा शुरू होती है 2003 से ही जब इसकी नींव रखी गई थी. और संस्था का नामकरण किया गया था महान विद्वान "कौटिल्य" के नाम पर. 
                 
                         कौटिल्य, चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे. उन्होने नंदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया. उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्रएक महान ग्रंन्थ है. अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है. पिछले वर्ष दिल्ली की एक संस्था ने स्वयं द्वारा प्रकाशित पुस्तक कौटिल्यमुझे प्रेषित की थी. इस पुस्तक के लेखक हैं रॉजर बोएस्चे  (Roger Boesche)  जिसके माध्यम से कौटिल्य को थोडा बहुत जान पाया.
               
                          इस किताब के अनुसार कौटिल्य का असली नाम "विष्णुगुप्त" था. कई संस्कृत ग्रंथों में इनका नाम चाणक्य पढने में आता है.बौद्ध ग्रंथो में भी इनका उल्लेख बराबर मिलता है. बुद्धघोष द्वारा लिखित विनयपिटक की टीका तथा महानाम स्थविर रचित महावंश की टीका में चाणक्य का जीवन वृत्तांत मिलता है.
     
                        कौटिल्य के जीवन के संबंध में प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है. उनके जन्मस्थान के संबंध में भी मतभेद पाया जाता है. कुछ विद्वानों के अनुसार कौटिल्य का जन्म पंजाब के "चणक" क्षेत्र में हुआ था, जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि उनका  जन्म दक्षिण भारत में हुआ था. कई विद्वानों का यह मत है कि वह कांचीपुरम के रहने वाले द्रविड़ ब्राह्मण थे जो जीविकोपार्जन की खोज में उत्तर भारत आये थे. कुछ सन्दर्भों में यह उल्लेख मिलता है कि केरल निवासी विष्णुगुप्त तीर्थाटन के लिए वाराणसी आये था, जहाँ उनकी पुत्री खो गयी. वह फिर केरल वापस नहीं लौटे और मगध में आकर बस गए. इस प्रकार के विचार रखने वाले विद्वान उन्हें केरल के कुतुल्लूर नामपुत्री वंश का वंशज मानते हैं. कई विद्वानों ने उन्हें मगध का ही मूल निवासी माना है. कुछ बौद्ध साहित्यों ने उन्हें तक्षशिला का निवासी बताया है.

                         कौटिल्य ने कहीं भी अपनी रचनाओं में मौर्यवंश या अपने मंत्रित्व के संबंध में कुछ नहीं कहा है. परंतु मना जाता है कि "अर्थशास्त्र" में कौटिल्य ने जिस विजिगीषु राजा का चित्रण प्रस्तुत किया है, निश्चित रूप से वह चन्द्रगुप्त मौर्य ही है.
       
                        कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने कौटिल्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है. विन्टरनीज, जॉली और कीथ के मतानुसार कौटिल्य नाम प्रतीकात्मक है, जो कूटनीति का प्रतीक है. जॉली ने तो यहाँ तक कह डाला है कि "अर्थशास्त्र" किसी कौटिल्य नामक व्यक्ति की कृति नहीं है. किन्तु शामाशास्त्री और गणपतिशास्त्री दोनों ही विद्वानों ने  पाश्चात्य विचारकों के मत का खंडन किया है. दोनों का यह मत है कि कौटिल्य का पूर्ण अस्तित्व था, भले ही उनके नामों में मतांतर पाया जाता हो. वस्तुतः इन तीनों पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा कौटिल्य का अस्तित्व को नकारने के लिए जो बिंदु उठाए गए हैं, वे अनर्गल एवं महत्त्वहीन हैं. पाश्चात्य विद्वानों का यह कहना है कि कौटिल्य ने इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया है कि वह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में अमात्य या मंत्री थे, इसलिए उन्हें  "अर्थशास्त्र" का लेखक नहीं माना जा सकता है. यह बेतुकी बात मालूम पड़ती है. कौटिल्य के कई सन्दर्भों से यह स्पष्ट हो चुका है कि उन्होंने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से नंदवंश का नाश किया था और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी.

                        कौटिल्य के शिष्य कामंदक ने अपने नीतिसारनामक ग्रंथ में लिखा है कि विष्णुगुप्त चाणक्य ने अपने बुद्धिबल से अर्थशास्त्र रूपी महोदधि को मथकर नीतिशास्त्र रूपी अमृत निकाला. चाणक्य का "अर्थशास्त्र" संस्कृत में राजनीति विषय पर एक विलक्षण ग्रंथ है.  "मुद्राराक्षस" के रचनाकार विशाखादत्त ने चाणक्य को कुटिलमति (कौटिल्य: कुटिलमतिः) कहा है. बाणभट्ट ने कौटिल्य अर्थशास्त्रको "निर्गुण" तथा "अतिनृशंसप्रायोपदेशम्" (निर्दयता तथा नृशंसता का उपदेश देने वाला) कहकर संबोधित किया है.

                        बहरहाल  प्रशासन और राजनीति के इस विद्वान के नाम पर संस्था का नामकरण किया जाना सटीक मालूम पड़ता है.और शुरू होता है सफलता का सफर.पहले ही बैच से अठारह विद्यार्थियों का चयन मनोबल को ऊंचा करता है. लोग जुड़ते जाते हैं और कारवां बनता जाता है. विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में कौटिल्य एकेडमी के विद्यार्थी टॉप रैंक पर आते हैं और सिलेक्शन रेश्यो वर्ष दर वर्ष बढ़ता ही चला जाता है. वर्ष 2008 में संस्था को ISO 9008:2001 सर्टिफिकेट से नवाज़ा जाता है. फिर कैप्टेन ऑफ़ इंडस्ट्री अवार्ड,पिछले चार वर्षों से  लगातार एजुकेशन एक्सीलेंस अवार्ड,टॉप थर्टी ब्रांड्स ऑफ़ इंडिया अवार्ड,नंबर वन कोचिंग इंस्टिट्यूट ऑफ़ MP & CG अवार्ड और ऐसे ही अनगिनत अवार्ड संस्था के मनोबल को ऊंचा करते रहते हैं.

                         लेकिन 24 सितम्बर 2017 को अमेरिका की संस्था  International Brand Consultancy Info Media Pvt. Ltd. द्वारा मुंबई के द लीला होटल में आयोजित एक भव्य समारोह में  "कौटिल्य एकेडमी" को  नंबर वन ब्रांड ऑफ़ इण्डिया अवार्ड का दिया जाना  कई मायनों में ख़ास है. समारोह में उपस्थित अनगिनत सूर्यों (LIC, HDFC, ATLAS, Prestige, TATA) के मध्य अपनी दैदीप्यमान आभा पुंज के साथ कौटिल्य एकेडमी रुपी नवदीप की उपस्थिति गौरवान्वित करती है. यह अवार्ड आधिकारिक रूप से कौटिल्य एकेडमी को न केवल ब्रांड के रूप में स्थापित करता है बल्कि शिक्षा क्षेत्र में भारत के नंबर वन ब्रांड के रूप में भी प्रस्थापित करता है.

                        "नंबर वन ब्रांड ऑफ़ इंडिया" अवार्ड परिचायक है टीम कौटिल्य के समर्पण का, यह परिचायक है कौटिल्य परिवार के प्रत्येक सदस्य के अथक प्रयास का, यह परिचायक है सशक्त प्रबंधन का, यह परिचायक है सामूहिक सकारात्मक प्रयास का, और विशेष कर यह परिचायक है उन अनगिनत अभ्यर्थियों के विश्वास का जिनकी सफलता को ही कौटिल्य एकेडमी ने अपनी सफलता माना है.


                     - मनमोहन जोशी (MJ)

शनिवार, 23 सितंबर 2017

मुंबई मेरी जान ......





                एक अवार्ड फंक्शन में भाग लेने मित्र सुनील तिवारी के साथ मुंबई आया हुआ हूँ. द लीला होटल में कल एक समारोह होना है...... हम दोनों सुबह 9:20  को जेट एयरवेज की फ्लाइट से मुंबई इंटरनेशनल एअरपोर्ट पर पहुँचते हैं... मुंबई पहले भी कई बार आ चुका हूँ लेकिन इस बार का आना कुछ ख़ास है .

               "मुंबई" नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, मुंबा या महा-अंबा और आई, "मां" को मराठी में कहते हैं. पूर्व नाम बाँम्बे या बम्बई का उद्गम सोलहवीं शताब्दी से आया है, जब पुर्तगाली लोग यहां पहले-पहल आये, व इसे कई नामों से पुकारा, जिसने अन्ततः बॉम्बे का रूप लिखित में लिया. यह नाम अभी भी पुर्तगाली प्रयोग में है. किन्तु मराठी लोग इसे मुंबई या मंबई व हिन्दी भाषी लोग इसे बम्बई ही बुलाते रहे. इसका नाम आधिकारिक रूप से सन 1995 में मुंबई बना.

                  बॉम्बे नाम मूलतः पुर्तगाली शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है "अच्छी खाड़ी" (गुड बे). यह इस तथ्य पर आधारित है, कि बॉम का पुर्तगाली में अर्थ है अच्छा, व अंग्रेज़ी शब्द बे का निकटवर्ती पुर्तगाली शब्द है बैआ. सामान्य पुर्तगाली में गुड बे (अच्छी खाड़ी) का रूप है: बोआ बहिया, जो कि गलत शब्द बोम बहिया का शुद्ध रूप है.

                  1955 के बाद, जब बॉम्बे राज्य को पुनर्व्यवस्थित किया गया और भाषा के आधार पर इसे महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बांटा गया तब  एक मांग उठी, कि नगर को एक स्वायत्त नगर-राज्य का दर्जा दिया जाये. हालांकि संयुक्त महाराष्ट्र समिति के आंदोलन में इसका भरपूर विरोध हुआ, व मुंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाने पर जोर दिया गया. अन्ततः 1 मई, 1960 को महाराष्ट्र राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी मुंबई को बनाया गया.

                   मुम्बई की अनुमानित जनसंख्या साढ़े तीन करोड़ है जो इसे  देश का सर्वाधिक आबादी वाला शहर बनाता है . मैंने कहीं पढ़ा था कि इसका गठन लावा निर्मित सात छोटे-छोटे द्वीपों से हुआ है एवं यह पुल द्वारा प्रमुख भू-खंड के साथ जुड़ा हुआ है. मुम्बई बन्दरगाह भारत का सर्वश्रेष्ठ सामुद्रिक बन्दरगाह है.  यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका आदि पश्चिमी देशों से जलमार्ग या वायुमार्ग से आनेवाले जहाज यात्री एवं पर्यटक सर्वप्रथम मुम्बई ही आते हैं इसलिए मुम्बई को भारत का प्रवेशद्वार कहा जाता है.

                   मुंबई विश्व के सर्वोच्च दस वाणिज्यिक केन्द्रों में से एक है. भारत के अधिकांश बैंक एवं कम्पनियों  के प्रमुख कार्यालय एवं कई महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थान जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक, बम्बई स्टॉक एक्स्चेंज, नेशनल स्टॉक एक्स्चेंज एवं अनेक  बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय  मुम्बई में हैं. इसलिए इसे भारत की आर्थिक राजधानी भी कहते हैं. इन सबके परे मुंबई जानी जाती है बॉलीवुड के लिए.

                    मुंबई में मुझे मरीन ड्राइव लुभाती है लेकिन कभी भी मन्नत,जलसा या बॉलीवुड इंडस्ट्री देखने की इच्छा नहीं हुई जिसके लिए मुंबई जानी जाती है . शाम  सात  बजे हम सिद्धि विनायक के दर्शन करके जुहू होते हुए वापस होटल पहुँचते हैं.

कल मुंबई को और नजदीक से देखा जाएगा.....आज का दिन हमेशा की तरह  ख़ूबसूरत रहा...... दाता का करम.  

                        - मनमोहन जोशी " MJ "

या देवी सर्व भूतेषु ........


                    आर्य संस्कृति में नारी का अतिविशिष्ट स्थान रहा है. आर्य चिंतन में तीन अनादि तत्व हैं परब्रह्म, माया और जीव. माया, परब्रह्म की आदिशक्ति है जो संसार में स्त्री रूप में जन्मी है और इस संसार का कारक तत्त्व है. जीवन के सभी क्रियाकलाप उसी माया की कारक शक्ति से होते हैं.

                   हमारी यह यशस्वी संस्कृति स्त्री को कई आकर्षक संबोधन देती है जैसे- मां कल्याणी है, पत्नी गृहलक्ष्मी है, बहन मान्या है, बेटी राजनंदिनी है और बहू को ऐश्वर्य लक्ष्मी कह कर संबोधित किया जाता है. अस्तु हर रूप में वह आराध्या है. वैदिक साहित्य में स्त्री का एक नाम मना भी पढने में आता है जिसका अर्थ है सम्माननीया.

                 अनादिकाल से सारे नैसर्गिक अधिकार स्त्री को स्वत: ही प्राप्त हैं अर्थात न तो उसे कोई अधिकार किसी से कभी मांगने हैं और न ही कोई उसे अधिकार देगा. वही सदैव देने वाली है. अपना सर्वस्व देकर भी वह पूर्णत्व के भाव से भर उठती है. नारी के इसी शील, शक्ति व शौर्य युत सौन्दर्य को देवी रूप कहा गया है, पूजा गया है और विरुदावलियाँ गाई गयीं हैं.

                   पौराणिक आख्यानों के अनुसार आदिशक्ति का अवतरण सृष्टि के आरंभ में हुआ था. कभी सागर की पुत्री के रूप में  सिंधुजा लक्ष्मी तो कभी पर्वत  कन्या के रूप में पार्वती. तेज , द्युति , दीप्ति , ज्योति, कांति, प्रभा और चेतना तथा जीवन शक्ति इस संसार में जहां कहीं भी दिखाई देती है, वहां हमारे मनीषियों ने देवीरूप में नारी का ही दर्शन किया है.

                     देवी भागवत के अनुसार देवी ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का रूप धर संसार का पालन और संहार करती हैं. देवी सारी सृष्टि को उत्पन्न तथा नाश करने वाली परम शक्ति है. देवी ही पुण्यात्माओं की समृद्धि और पापाचारियों की दरिद्रता है.

                     मार्कंडेय  पुराण में देवी की  स्तुति करते हुए कहा गया है कि हे देवि! तुम सारे वेद-शास्त्रों का सार हो. संसाररूपी महासागर को पार कराने वाली नौका तुम हो. भगवान विष्णु के ह्वदय में निरंतर निवास करने वाली माता लक्ष्मी तथा शशिशेखर भगवान शंकर की महिमा बढ़ाने वाली माता गौरी भी तुम ही हो.

                      ऋग्वेद के एक सूक्त के अनुसार
“शुचिभ्राजा, उपसो नवेदा यशस्वतीर पस्युतो न सत्या:||“
अर्थात : श्रध्दा
, प्रेम, भक्ति, सेवा, समानता की प्रतीक नारी पवित्र, निष्कलंक, सदाचार से सुशोभित, ह्रदय को पवित्र करने वाली, लौकिकता युक्तकुटिलता से अनभिज्ञनिष्पाप, उत्तम, यशस्वी, नित्य उत्तम कार्य की इच्छा करने वाली, कर्मण्य और सत्य व्यवहार करने वाली देवी है.

                      देवी सू‍क्ति के अनुसार – “अहं राष्ट्री संगमती बसना ,अहं रूद्राय धनुरातीमि.”
अर्थात्:  देवी कहती हैं, “मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं. मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं. धरती
, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानवों को तारने  के लिए संग्राम करती हूँ.

                      देवी भागवत के अनुसार –“देवीं मायां तु श्रीकामः” अर्थात नारी समस्त श्रेष्ठ कार्यों की देवी है.
   
                      नवरात्र  के अवसर पर नारी के विभिन्न दिव्य रूपों को नौ दिनों तक पूजा जाता है. वस्तुतः नारी को उसके दिव्य स्वरुप की याद दिलाने तथा उसके प्रति श्रद्धा से भर उठने का पर्व है नवरात्र. नारी के विभिन्न रूप हैं. यथा व्यंजन परोसती अन्नपूर्णाश्रृंगारित स्वरूप में वैभवलक्ष्मीबौद्धिक परामर्शदात्री सरस्वती और मधुर संगीत की स्वरलहरी उच्चारती वीणापाणि के रूप में, शौर्य दर्शाती दुर्गा भी वही, उल्लासमयी रोम-रोम से पुलकित अम्बा भी वही है, तथा दुष्टों का विनाश करने वाली  काली भी वही है.

                       देवी पूजन वैश्विक संस्कृति का एक भाग रहा है. विभिन्न देशों में देवी को भिन्न-भिन्न नामों व भाँती-भाँती के  रूपों में पूजा जाता है. जैसे- चीन में  तारा देवी, यूनान में प्रतिशोध की देवी नेमिशस एवं शक्ति की देवी डायना व  यूरोपा, वेल्स में उर्वशी, रोम में कुमारियों की देवी वेस्ता, कोरिया में सूर्यादेवी, मिस्र में आइसिस, फ्रांस में पुष्पों की देवी फ्लोरा, इटली में सौन्दर्य की देवी फेमिना, अफ्रीका में कुशोदा आदि.

                        इस नवरात्र हम सभी को मिलकर प्रार्थना करनी  चाहिए  कि हर नारी अपनी शक्ति को पहचाने और छू  सके समूचा आसमान, नाप सके सारी धरती अपने सुदृढ़ कदमों से और पुरुष में नारी के  प्रति कृतज्ञता, सौम्यता, सौहार्द, समानता और सम्मान के आदर्श भाव जागृत हों .

महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में :

"फूलों की कोमल पंखुडियाँ
बिखरें जिसके अभिनंदन में।
मकरंद मिलाती हों अपना
स्वागत के कुंकुम चंदन में।

कोमल किसलय मर्मर-रव-से
जिसका जयघोष सुनाते हों।
जिसमें दुख-सुख मिलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों।

उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं।

मैं उसी चपल की धात्री हूँ
गौरव महिमा हूँ सिखलाती।
ठोकर जो लगने वाली है
उसको धीरे से समझाती।

मैं देव-सृष्टि की रति-रानी
निज पंचबाण से वंचित हो।
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना
अपनी अतृप्ति-सी संचित हो।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में
अपनी अतीत असफलता-सी।
लीला विलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दलिता-सी।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ
मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुंदरता पग में
नूपुर सी लिपट मनाती हूँ।

लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लगती।
कुंचित अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जगती।

चंचल किशोर सुंदरता की
मैं करती रहती रखवाली।
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
जो बनती कानों की लाली।"

हाँ, ठीक, परंतु बताओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है
?
इस निविड़ निशा में संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है
?

क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।

आँसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा।
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा।"


-       -मनमोहन जोशी “ MJ “

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

आए हैं समझाने लोग......

20 September 2017



                  कल एक बुद्धिमान से सामना हुआ.... साधारणतः मैं बुद्धिमानों से मिलने से बचता हूँ. क्यूंकि अधिकतर बुद्धिमान, बुद्धिमान होते नहीं हैं उन्हें केवल भ्रम ही होता है अपनी बुद्धिमत्ता का. और इस भ्रम के चलते वो दुनिया को सीख देते रहते हैं. बिना अनुभव रटी हुई बातों को दोहराते रहना ही उनका दैनिक कर्म है. और अगर उन्हें कोई अवधारणा देनी भी हो तो वो उनके फायदे से निकल कर आती है.... अच्छा, साधारणतः ऐसे लोग  वास्तविक बुद्धिमानों से अधिक लोकप्रिय होते हैं क्यूंकि नकली नोट अक्सर असली को चलन से बाहर कर देते हैं .

                 वर्ष 2008 में जब मैं एक MNC में एरिया हेड के पद पर कार्यरत था, हमने राजस्थान के एक शहर में  एक फ्लैट किराए पर लिया था जिसके मालिक तथाकथित बुद्धिमान ही थे ... शाम के समय चाय पर उनसे मुलाक़ात हुई तो उन्होंने अपनी बुद्धि का प्रदर्शन किया. आधे घंटे तक बोलते रहे. उनकी चाय मुझे महंगी पड़ी. अति तब हुई जब वो मुझे बताने लगे की एक बाबा उनके गुरु हैं और उनके ही कहने पर वो लोगों को उनके उपदेश सुनाते रहते हैं ( रटी हुई बातों को दोहराना). अधिकतर लोग यही कर रहे हैं जो बात पालन करने की है उसका पालन करने की जगह लोगों को सुनाते रहते हैं. मेरे देखे लोग अपनी लम्पटता को छुपाने के लिए ही सज्जनता का चोला ओढ़े रहते हैं.... मैंने सुना बाद में किसी लम्पट कार्य के लिए उनकी पिटाई  हुई थी... उन बाबा के कहने पर ही आज कल 14 फ़रवरी मातृ – पितृ पूजन दिवस के रूप में मनाया जाता है और बाबा आज कल जेल में हैं.

                 शोध का विषय है कि जो व्यक्ति लगातार भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलता रहता है (कुछ करता नहीं) कहीं तो  ऐसा नहीं कि उसे भ्रष्टाचार का अवसर नहीं मिला इसी लिए लगातार खिलाफ ही बोल रहा हो या जो लगातार सज्जनता का चोला ओढ़कर घूमते रहते हैं कहीं ऐसा तो नहीं की उन्हें लम्पटता का अवसर ही न मिला हो  या जो महिला किसी और महिला के पहनावे या आचरण पर टिका टिपण्णी करती है कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे ऐसा आचरण या पहनावे का अवसर नहीं मिला .... मेरे देखे जैसे ही अवसर मिलेगा ये आदमी भ्रष्टाचार का या लम्पट होने का अवसर हाथ से नहीं जाने देगा या ऐसी महिला आचरण या पहनावे को अपनाने से नहीं चुकेगी...

             बहरहाल जिस बुद्धिमान से मेरा सामना हुआ वो मुझे कह रहे थे की आपका पिछला आर्टिकल “कर्म क्षेत्रे” पढ़ा उसमें जो आपके न्याय की अवधारणा है वो बिलकुल ग़लत है. जयद्रथ को माफ़ किया जाना चाहिए था. या कम से कम निर्णय लेने से पहले ध्रितराष्ट्र की सलाह लेनी ही चाहिए थी. मैंने पूछा... तो फिर गुरमीत सिंह वाले मामले में जो सांसद साक्षी महाराज ने कहा आपके अनुसार वो भी सही होगा?? बोले, हाँ! अव्यवस्थाओं लिए तो कोर्ट ही पूरी तरह से ज़िम्मेदार है. ऐसे लोगों को मैं अच्छी  तरह से जानता हूँ ये लोग परेशानी आने पर छुप जाते हैं, शेर का सामना करने की हिम्मत तो नहीं होती लेकिन शिकार करने के बाद शिकारी को सलाह देने ज़रूर पहुँच जाते हैं....

              ऐसे लोगों को मैं “रीढ़ की हड्डी” विहीन मानता हूँ. मानव शरीर रचना में 'रीढ़ की हड्डी' या मेरुदंड (backbone) पीठ की हड्डियों का समूह है जो मस्तिष्क के पिछले भाग से निकलकर गुदा के पास तक जाती है। इसमें 33 खण्ड होते हैं. “रीढ़ की हड्डी” का होना दृढ व्यक्तित्व का परिचायक है. लोग जो निर्णय की घडी में सामने नहीं आते.... लोग जिनके अनुसार न्याय वह है जो सर्वस्वीकार्य हो या न हो, जिसमें पीड़ित को राहत मिले न मिले बस स्वयं का फायदा हो, ऐसे रीढ़ विहीन लोग क्या तो समाज को दिशा देंगे ???

बरबस ही बच्चन याद आते हैं :

तुम हो कौन, कहो जो मुझसे सही ग़लत पथ लो तो जान
सोच सोच कर
, पूछ पूछ कर बोलो, कब चलता तूफ़ान
सत्पथ वह है
, जिसपर अपनी छाती ताने जाते वीर
मैं हूँ उनके साथ
, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

कभी नही जो तज सकते हैं, अपना न्यायोचित अधिकार
कभी नही जो सह सकते हैं
, शीश नवाकर अत्याचार
एक अकेले हों
, या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़
मैं हूँ उनके साथ
, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

निर्भय होकर घोषित करते, जो अपने उदगार विचार
जिनकी जिह्वा पर होता है
, उनके अंतर का अंगार
नहीं जिन्हें
, चुप कर सकती है, आतताइयों की शमशीर
मैं हूँ उनके साथ
, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

जो अपने कन्धों से पर्वत से बढ़ टक्कर लेते हैं
पथ की बाधाओं को जिनके पाँव चुनौती देते हैं
जिनको बाँध नही सकती है लोहे की बेड़ी जंजीर
मैं हूँ उनके साथ
, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

जिनको यह अवकाश नही है, देखें कब तारे अनुकूल
जिनको यह परवाह नहीं है कब तक भद्रा
, कब दिक्शूल
जिनके हाथों की चाबुक से चलती हें उनकी तकदीर
मैं हूँ उनके साथ
, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

-          मनमोहन जोशी “MJ“

सोमवार, 18 सितंबर 2017

राग मल्हार ......

               


    



                 
      17 सितम्बर 2017 
      
             मध्यप्रदेश के एक शहर “सागर” से दूसरे शहर “गुना” के सफ़र पर हूँ गाडी श्याम नाम का ड्राईवर चला रहा है.... श्याम एक उत्कृष्ट ड्राईवर है  (नाम में ही अच्छा सारथी होने का गुण है)... तेज़ बारिश होने लगी है...  जीरो विसिबिलिटी होने के बावजूद मैं निश्चिन्त हूँ, क्यूंकि ड्राइविंग सीट पर श्याम बैठा हुआ है... लगभग 5 से 6 घंटों की यात्रा है यह. सोचता हूँ इससे बढ़िया क्या समय होगा राग मल्हार सुनने  के लिए....  

         वस्तुतः मल्हार के प्रकारों में मियाँ की मल्हार और मेघ मल्हार ही प्रचलित हैं लेकिन मैं अपने आप को बहुत ही खुश किस्मत मानता हूँ क्यूंकि मुझे मल्हार के विभिन्न प्रकारों को लाइव सुनने और समझने का मौका इस जीवन में मिला है.... कभी-कभी सोचता हूँ इस छोटे से जीवन में क्या क्या तो कर लिया है मैंने .......

          कक्षा 8 में रहा होऊंगा तब पिताजी की एक रामायण मंडली हुआ करती थी जिसकी एक शाश्वत समस्या थी ढोलक वाले का बिना बताये गायब हो जाना. किसी ने उन्हें सलाह दी की “मनमोहन” को ढोलक सिखाओ... फिर तलाश हुई योग्य गुरु की और योग्य गुरु के रूप में नाम सामने आया श्री रामदास वैष्णव सर का और शुरू हुआ तबला सीखना लगभग 08 वर्षों तक मैंने उनसे विधिवत शिक्षा ग्रहण की....

            कई मंचों पर प्रस्तुतियां दी. दूरदर्शन और आकाशवाणी तक में सराहा गया. कई अवार्ड भी जीते और फिर एक रोज़ दूरदर्शन के ही एक कार्यक्रम के सिलसिले में मिलना हुआ पंडित छोटे लाल व्यास जी से.  लगभग 80 वर्ष के रहे होंगे तब पंडित जी, शास्त्रीय संगीत का अथाह ज्ञान धारण किये हुए. लेकिन पंडित जी न तो किसी को सिखाते थे और न ही मंचों पर प्रस्तुति देते थे. मुझे उनके साथ लम्बा समय बिताने का अवसर प्राप्त हुआ जो अपने आप में कम ही मालूम पड़ता हैं......
  
              पंडित जी से ही रागों और तालों की बारीकियां जानने और समझने को मिली... वो जो मैंने आठ वर्षों में नहीं समझा था कुछ ही महीनों में उनसे समझने को मिला..... पंडित जी से ही पता चला की मल्हार के कई प्रकार होते हैं मेघ मल्हार, मियाँ की मल्हार , मीरा की मल्हार , रामदासी मल्हार, सूरदासी मल्हार , गौड़ मल्हार आदि. पंडित जी बड़ी ही सहजता से सभी रागों को एक के बाद एक गा कर समझाते थे. वो चले गए और उनके साथ चली गई उनकी ये विरासत भी... उनकी बंदिशों के सामने किशोरी अमोनकर का गाया “मीरा की मल्हार”,  उस्ताद राशिद खान का गाया “मियाँ की मल्हार”,  पंडित भीमसेन जोशी जी का “रामदासी  मल्हार” , और पंडित जसराज का “मेघ मल्हार” फीके ही लगते हैं.  

            लगातार कई घंटों तक रागों के महासागर में डूबकी लगाता रहा ..... सोचता हूँ की यह यात्रा कभी ख़त्म न हो और ना ही ख़त्म हों ये राग और रागिनियाँ........


              - मनमोहन जोशी "MJ"

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

The Idea Of Justice



                          सुबह के 5:30 हो रहे हैं... सुबह जल्दी उठ कर एक खूबसूरत पहाड़ी पर पहुँच गया हूँ..  मंद मंद पवन बह रही है.... पंछियों के कलरव से वातावरण गुंजायमान है.... सूर्योदय होने के करीब है.... पहाड़ी पर केफलस, सुकरात और मैं "न्याय" पर चर्चा कर रहे हैं. मैं पूछता हूँ  "न्याय क्या है?" इस पर पहली प्रतिक्रिया केफलस की ओर से ही आती है. उसके अनुसार न्याय का अर्थ है—"अपने कथन और कर्म में सच्चा रहना तथा मनुष्यों एवं देवताओं के प्रति ऋण चुकाना." 

                 सुकरात इस परिभाषा से संतुष्ट नहीं होता . उसके अनुसार सत्य सापेक्षिक होता है. यानी एक व्यक्ति के लिए जो सत्य है, आवश्यक नहीं कि दूसरे व्यक्ति की परिस्थितियों में भी ठीक वैसा ही सत्य स्वीकार्य हो. इसलिए केफलस के विचारों की आलोचना वह यह कहकर करता है कि विशेष परिस्थितियों में सत्य और समुचित व्यवहार को न्याय माना जा सकता है. परंतु उसे सार्वभौमिक सत्य के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. परिस्थिति चाहे जो भी हो, शुभ यदि अशुभ का जन्मदाता अथवा उसे प्रोत्साहित करता हैतो वह न्याय नहीं माना जा सकता. न्याय की कसौटी उसकी सार्वभौमिकता में है. वही न्याय है जो अधिकतम व्यक्तियों को स्वीकार्य हो और अधिकतम परिस्थितियों में न्याय-संगत सिद्ध हो.

                        सुकरात के इन विचारों से मैं सहमत नहीं होता. मैं कहता हूँ न्याय का  सर्व स्वीकार्यता से क्या लेना देना. न्याय का सम्बन्ध तो अपराधी को दण्डित कर पीड़ित को राहत प्रदान करने  से है.

                       मैं कहता हूँ अभी जब गुरमीत (बाबा या राम रहीम कहने में मुझे ऐतराज़ है. ) को सजा हुई थी तो अधिकतम लोगों को नहीं जंची. लाखों लोग सड़क पर आ गए और एक संसद सदस्य साक्षी महाराज ने तो ये तक कह दिया कि जो कुछ गड़बड़ी हुई है उसकी ज़िम्मेदार कोर्ट है .... देश ऐसे मूर्खों से पटा पड़ा है.....

                          मैं पूछता हूँ सुकरात बताओ - क्या कुछ कर्मचारियों द्वारा ऑफिस के किसी एक कर्मचारी को पीटने के सबूत मिल जाने के बाद भी उनको सजा न देना न्याय है?? क्यूंकि बॉस को ये लगता है कि यह अधिकतम लोगों को नहीं जंचेगा या क्यूंकि पीटने वालों कि संख्या अधिक थी तो उन सभी को दंड देने से कार्य प्रभावित होगा..... या कुछ लोग जयद्रथ के नेतृत्व में आधी रात को अभिमन्यु की हत्या कर उसे शरीर रुपी घर से निकल जाने को मजबूर कर दें  और न्यायी राजा  यह कहे कि हत्या तो हुई है लेकिन पहले कारण पता कर लो ऐसा तो नहीं की मरने वाले की ही गलती थी या हत्यारों को सजा ऐसी दी जाए जो अधिकतम को जंचे  या जिससे व्यवस्था न बिगड़े.

                           मैं दोनों को महाभारत का एक प्रसंग सुनाता हूँ  - महाभारत में जयद्रथ सिंधु प्रदेश के राजा थे. और रिश्ते में पांडवों के बहनोई लगते थे. महाभारत का भयंकर युद्ध चल रहा था. अर्जुन लड़ते लड़ते रणक्षेत्र से दूर चले गए  थे. अर्जुन की अनुपस्थिति में पाण्डवों को पराजित करने के लिए द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की. अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदने के लिए उसमें घुस गया...... उसने कुशलतापूर्वक चक्रव्यूह के छः चरण भेद लिए, लेकिन सातवें चरण में उसे दुर्योधन, जयद्रथ आदि सात लोगों ने  घेर लिया और उस पर टूट पड़े. जयद्रथ ने पीछे से निहत्थे अभिमन्यु पर ज़ोरदार प्रहार किया. वह वार इतना तीव्र था कि अभिमन्यु उसे सहन नहीं कर सका और  अभिमन्यु की मृत्यु हो गई   उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर अर्जुन क्रोध से पागल हो उठा. उसने प्रतिज्ञा की कि यदि अगले दिन सूर्यास्त से पहले उसने जयद्रथ का वध नहीं किया तो वह आत्मदाह कर लेगा.

                        श्री कृष्ण ने यह नहीं कहा कि अर्जुन तुम अपनी मनमानी कर रहे हो.... या यह नहीं कहा कि कल अपने साथ धृतराष्ट्र को भी ले जाओ क्यूंकि जब तक युद्ध का निर्णय नहीं हो जाता राजा वही है, वो अँधा देखेगा कि गल्ती किसकी थी.... या यह नहीं कहा कि दंड देने से पहले  देखना तुम्हारे द्वारा दिया जा रहा दंड अधिकतम को स्वीकार्य हो. अपितु श्री कृष्ण ने कहा, तुम्हारी प्रतिज्ञा कल के ही रण क्षेत्र में पूरी 
होगी पार्थ, मैं तुम्हारे साथ हूँ. और रही बात रिश्तेदारी की तो न्यायार्थ 
अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है.

मैथली शरण गुप्त याद आते हैं :

वाचक ! प्रथम सर्वत्र ही जय जानकी जीवनकहो,
फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा तरंगों में बहो।
दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो,
होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।।
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है;
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।

दोनों मेरी बात को गंभीरता से सुन रहे थे और मेरी नींद टूट गई .... उम्मीद करता हूँ फिर कभी इन विद्वानों से मुलाकात होगी और साथ में "प्लेटो" भी होंगे.......

                - मनमोहन जोशी " MJ "