Diary Ke Panne

रविवार, 10 सितंबर 2017

"न चौर हार्यम न च राज हार्यम" - शिक्षा का अधिकार


10 September 2017


                कल रात TV पर एक फिल्म देख रहा था जिसकी समीक्षा दैनिक भास्कर में कभी पढ़ी थी... फिल्म का नाम था हिंदी मीडियम. फिल्म में शीर्षक भूमिका में इरफ़ान खान हैं. इरफान मेरे फेवरेट एक्टर हैं. इरफ़ान की "पान सिंह तोमर  और लाइफ ऑफ़ पाई दर्शनीय फ़िल्में हैं... जिनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है.

               बहरहाल दिल्ली में रहने वाले एक अमीर परिवार की कहानी के जरिये लेखक और निर्देशक साकेत चौधरी ने दिखाया है कि अंग्रेजी बोलने वालों को "क्लासी"  माना जाता है और हिंदी बोलने वालों को दोयम दर्जा दिया जाता है... जबकि मेरे देखे भाषा केवल सम्प्रेषण का माध्यम है... बाबा राम देव को कौन दोयम दर्जे का मानता है?? अटल बिहारी बाजपाई को किसने दोयम दर्जे का कहा है ?? मनमोहन सिंह और राहुल गांधी किसे क्लासी लगते हैं ?? अर्थात भाषा किसी को "क्लासी" नहीं बनाती, "कर्म" बनाता है.   

              अच्छे स्कूलों में एडमिशन की मारामारी हर शहर की परेशानी है.  स्कूलों में दाखिले का मुद्दा तो हर बार मीडिया की बड़ी हेडलाइंस बनता रहा है. मुट्ठी भर कॉन्वेंट स्कूलों की थोड़ी सी सीट्स के लिए कैसे डोनेशन, सिफारिश और कोटे का खेल होता है उसी स्टोरी को लेकर ये फिल्म आगे बढ़ती है. मेरे देखे केंद्र और राज्य सरकारों की असफलता के मानक हैं ये प्राइवेट स्कूल्स. अपनी असफलता को ढंकने के लिए ही केंद्र सरकार 2009  में शिक्षा का अधिकार क़ानून लेकर आई... इस क़ानून के प्रावधान कहीं से कहीं तक शिक्षा को बढ़ावा देने वाले नहीं दिखते...

               इस अप्रैल में शिक्षा अधिकार कानून लागू हुए सात साल पूरे हो चुके हैं. एक अप्रैल 2010 को "शिक्षा का अधिकार कानून 2009"  पूरे देश में लागू किया गया था. इसी के साथ ही भारत उन  देशों की जमात में शामिल हो गया था, जो अपने देश के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा  उपलब्ध कराने के लिए कानूनन जबावदेह हैं.

                भारत ने शिक्षा के अधिकार को लेकर एक लम्बा सफ़र तय किया है, इसीलिए इससे बुनियादी शिक्षा में बदलाव को लेकर व्यापक उम्मीदें भी जुड़ी थीं. लेकिन इस अधिनियम के लागू होने के सात वर्षों के बाद भी हमें कोई बड़ा परिवर्तन देखने को नहीं मिला है. लक्ष्य रखा गया था कि 31 मार्च 2015 तक देश के 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों तक बुनियादी शिक्षा पहुंचा दी जाएगी और इस दिशा में आ रही सभी रुकावटों को दूर कर लिया जाएगा. लेकिन यह डेडलाइन बीत जाने के बाद अभी तक ऐसा नहीं हो सका है और हम लक्ष्य से बहुत दूर हैं.

                अभी भी देश के 92 प्रतिशत स्कूल, इस कानून के सभी मानकों को पूरा नहीं कर रहे हैं. केवल 45 प्रतिशत स्कूल ही प्रति 30 बच्चों पर एक टीचर होने का अनुपात पूरा करते हैं. पूरे देश में अभी भी लगभग 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे प्राथमिक शिक्षा से बेदख़ल हैं. 2013-14 की एक रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा के अधिकार कानून के मापदंड़ों को पूरा करने के लिए अभी भी 12 से 14 लाख शिक्षकों की आवश्यकता है. आरटीई फोरम की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 51.51, छत्तीसगढ़ में 29.98, असम में 11.43, हिमाचल में 9.01, उत्तर प्रदेश में 27.99, पश्चिम बंगाल में 40.50फीसदी शिक्षक प्रशिक्षित नहीं हैं. इसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ रहा है. और जो शिक्षक हैं उनकी गुणवत्ता पर भी प्रश्न चिन्ह है....

               सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा लगातार जारी रिपोर्ट शिक्षा में घटती गुणवत्ता की तरफ हमारा ध्यान खीचते हैं. रिपोर्ट बताते हैं कि किस तरह से छठीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को कक्षा एक और दो के स्तर की भाषायी कौशल एवं गणित की समझ नहीं है. ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं शिक्षा का अधिकार कानून मात्र बच्चों को स्कूल में प्रवेश कराने और स्कूलों में बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराने का कानून तो साबित नहीं हो रहा है ?  यह कहना गलत नहीं होगा कि इस दौरान सरकारों ने सिर्फ नामांकन, अधोसंरचना और पच्चीस प्रतिशत रिजर्वेशन पर जोर दिया है. पढाई की गुणवत्ता को लगातार नजरअंदाज किया गया है. 

                मध्य प्रदेश के सन्दर्भ में बात करें तो, डाइस रिर्पोट 2013-14  के अनुसार प्रदेश के शासकीय प्राथमिक शालाओं में शिक्षकों का औसत 2.5 है, जो कि देश में सबसे खराब है. म.प्र. के प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों के लगभग एक लाख पद रिक्त हैं. 5295 विद्यालय ऐसे हैं, जहां शिक्षक ही नहीं हैं, जबकि 17 हजार 972  शालायें केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रही हैं.

               एक रिपोर्ट के अनुसार 2009 में मध्य प्रदेश की शासकीय शालाओं में कक्षा 5 के 76 प्रतिशत बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ लेते थे, लेकिन 2014 की रिर्पोट यह में घट कर 27.8 प्रतिशत हो गई है. अगर बच्चों में घटाव तथा भाग देने की स्थिति को देखें तो 2009 में शासकीय शालाओं में कक्षा 3 के 66.7 प्रतिशत बच्चे घटाव तथा भाग देने के सवाल हल कर लेते थे, जबकि 2014 में यह दर घट कर 5.7 प्रतिशत हो गई.

               एक तरफ उपरोक्त स्थितियां हैं, तो दूसरी तरफ जिस तरह से `शिक्षा अधिकार कानूनको लागू किया जा रहा है. उनसे भी कुछ समस्याएं निकल कर आ रही है. मेरे देखे  यह मात्र प्रशासनिक लापरवाही या सरकारों की उदासीनता का मसला नहीं है. कानून में भी कई  नीतिगत समस्याएं हैं. अगर इन समस्याओं को दूर कर लिया जाए जाए, तो हालत में कुछ सुधार की उम्मीद की जा सकती है.

              पहला मुद्दा है शिक्षकों की संख्या और योग्यता. शिक्षा अधिकार कानून में इसके लिए  विशेष प्रावधान तय किए गए हैं, किन्तु इन प्रावधानों का पालन नही हो पा रहा है. यहां कई स्तर के शिक्षक मौजूद हैं, जिन्हें सहायक शिक्षक, अध्यापक संवर्ग, शिक्षा कर्मी और संविदा शिक्षक के नाम से जाना जाता है. इस सबंध में विशेष वित्तीय प्रावधान लागू करते हुए पूर्णकालिक शिक्षकों की नियुक्ति किए जाने की आवश्यकता है.

             दूसरा मुद्दा शिक्षा के अधिकार कानून की सीमाओं से सम्बंधित है,जैसे इस कानून में छः साल तक के आयु वर्ग के बच्चों की कोई बात नहीं कही गई है, यानी बच्चों के प्री-एजुकेशन को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है.

            तीसरा मुद्दा अनिवार्य शिक्षा या शिक्षा के सामान अवसर के तहत सिर्फ प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटों पर कमजोर आय वर्ग के बच्चों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है. इससे सरकारी शालाओं में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर प्राइवेट स्कूलों की ओर हो गया है. यह एक तरह से गैर बराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देता है. जिनके पास थोड़ा-बहुत पैसा आ जाता है वे भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने को मजबूर हैं, लेकिन जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर हैं उन्हें भी इस ओर प्रेरित किया जा रहा है.

                देश के विभिन्न राज्यों में भी सरकारी स्कूलों को बंद करके सरकारें ही शिक्षा के इस निजीकरण की प्रक्रिया को मजबूत बना रही है. नेशनल कोलिएशन फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान में 17120 महाराष्ट्र 14 हजार, गुजरात 13 हजार, कर्नाटका 12 हजार और आंध्रप्रदेश में 5 हजार स्कूलों को बंद किया जा चुका है. कुछ अन्य राज्यों में भी सरकारी स्कूलें बंद की गई हैं और की जा रही हैं.

                  इससे पहले सन 1993 में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक क्रांतिकारी फैसले से तत्कालीन सरकार को जगाया. न्यायालय ने कहा कि संविधान में जीवन के अधिकार का अर्थ तो तभी है जब व्यक्ति को शिक्षा का अधिकार मिला हो. इस फैसले के तहत सरकार को 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा का अधिकार देना आवश्यक था. मजबूर होकर कांग्रेस सरकार ने "सैकिया कमेटी" का गठन किया जिसने 1997 में संविधान में उपयुक्त बदलाव करने का सुझाव दिया.

                  सन 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने संविधान में उपयुक्त बदलाव कर 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया. साथ ही शिक्षा की गुणवत्ता, अध्यापकों के वेतनमान, आदि अन्य सुविधाओं के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता से बचा गया. यहाँ तक की बच्चों की शिक्षा के लिए अभिभावकों का  मूल कर्त्तव्य बनाकर जिम्मेवार ठहराया गया.

                  किसी भी देश का शिक्षा क्षेत्र व्यवसाय के अलावा भी बहुत कुछ होता है. संयुक्त राष्ट्र ने 1948 के मानव अधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा पत्र में शिक्षा के अधिकार को एक मानव अधिकार घोषित किया गया है. वैसे स्वर्गीय गोपाल कृष्ण गोखले ने 18 मार्च 1910 में ही भारत में "मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा" के प्रावधान के लिए ब्रिटिश विधान परिषद् के समक्ष प्रस्ताव रखा था, जो निहित स्वार्थों के विरोध के चलते अंततः ख़ारिज हो गया.

                 एक सुभाषित के अनुसार शिक्षा या विद्या सर्वश्रेष्ठ संपत्ति है जिसे चुराया नहीं जा सकता, इसका भाइयों में बंटवारा नहीं होता, सरकार इस पर GST नहीं लगा सकती, यह भारकारी भी नहीं होता और खर्च करने पर लगातार बढ़ता ही जाता है :

"न चौर हार्यम न च राज हार्यम,
न भ्रात्रभाज्यम न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते नित्यं,
विद्या धनं सर्वधनं प्रधानम् ।।"



                                  -       मनमोहन जोशी “Mj”



4 टिप्‍पणियां:

  1. सर शिक्षा का बाजारीकरण तो तेजी से हो रहा है साथ ही साथ शिक्षा में नैतिक मूल्यों की कमी भी आती जा रही है। साथ ही हर एक बालक को सिर्फ सूचनाओ से भरा जा रहा है। देश दुनिया की सारी बाते आज के बच्चे बता देते है। आपका लेख बढ़िया है मेने भी ये फिल्म देखीं है अगर अपने chalk and duster न देखी हो तो जरूर देखयेगा ।।।

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  2. sir is kanoon ke lagu hone ke baad bhi sikha ka budget GDP growth ke mukable kam hota ja raha hai ... ye kaise niti hai jaha umeede to badi badi hai ... lakin prayas shunya hai.....

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