Diary Ke Panne

शनिवार, 23 सितंबर 2017

या देवी सर्व भूतेषु ........


                    आर्य संस्कृति में नारी का अतिविशिष्ट स्थान रहा है. आर्य चिंतन में तीन अनादि तत्व हैं परब्रह्म, माया और जीव. माया, परब्रह्म की आदिशक्ति है जो संसार में स्त्री रूप में जन्मी है और इस संसार का कारक तत्त्व है. जीवन के सभी क्रियाकलाप उसी माया की कारक शक्ति से होते हैं.

                   हमारी यह यशस्वी संस्कृति स्त्री को कई आकर्षक संबोधन देती है जैसे- मां कल्याणी है, पत्नी गृहलक्ष्मी है, बहन मान्या है, बेटी राजनंदिनी है और बहू को ऐश्वर्य लक्ष्मी कह कर संबोधित किया जाता है. अस्तु हर रूप में वह आराध्या है. वैदिक साहित्य में स्त्री का एक नाम मना भी पढने में आता है जिसका अर्थ है सम्माननीया.

                 अनादिकाल से सारे नैसर्गिक अधिकार स्त्री को स्वत: ही प्राप्त हैं अर्थात न तो उसे कोई अधिकार किसी से कभी मांगने हैं और न ही कोई उसे अधिकार देगा. वही सदैव देने वाली है. अपना सर्वस्व देकर भी वह पूर्णत्व के भाव से भर उठती है. नारी के इसी शील, शक्ति व शौर्य युत सौन्दर्य को देवी रूप कहा गया है, पूजा गया है और विरुदावलियाँ गाई गयीं हैं.

                   पौराणिक आख्यानों के अनुसार आदिशक्ति का अवतरण सृष्टि के आरंभ में हुआ था. कभी सागर की पुत्री के रूप में  सिंधुजा लक्ष्मी तो कभी पर्वत  कन्या के रूप में पार्वती. तेज , द्युति , दीप्ति , ज्योति, कांति, प्रभा और चेतना तथा जीवन शक्ति इस संसार में जहां कहीं भी दिखाई देती है, वहां हमारे मनीषियों ने देवीरूप में नारी का ही दर्शन किया है.

                     देवी भागवत के अनुसार देवी ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का रूप धर संसार का पालन और संहार करती हैं. देवी सारी सृष्टि को उत्पन्न तथा नाश करने वाली परम शक्ति है. देवी ही पुण्यात्माओं की समृद्धि और पापाचारियों की दरिद्रता है.

                     मार्कंडेय  पुराण में देवी की  स्तुति करते हुए कहा गया है कि हे देवि! तुम सारे वेद-शास्त्रों का सार हो. संसाररूपी महासागर को पार कराने वाली नौका तुम हो. भगवान विष्णु के ह्वदय में निरंतर निवास करने वाली माता लक्ष्मी तथा शशिशेखर भगवान शंकर की महिमा बढ़ाने वाली माता गौरी भी तुम ही हो.

                      ऋग्वेद के एक सूक्त के अनुसार
“शुचिभ्राजा, उपसो नवेदा यशस्वतीर पस्युतो न सत्या:||“
अर्थात : श्रध्दा
, प्रेम, भक्ति, सेवा, समानता की प्रतीक नारी पवित्र, निष्कलंक, सदाचार से सुशोभित, ह्रदय को पवित्र करने वाली, लौकिकता युक्तकुटिलता से अनभिज्ञनिष्पाप, उत्तम, यशस्वी, नित्य उत्तम कार्य की इच्छा करने वाली, कर्मण्य और सत्य व्यवहार करने वाली देवी है.

                      देवी सू‍क्ति के अनुसार – “अहं राष्ट्री संगमती बसना ,अहं रूद्राय धनुरातीमि.”
अर्थात्:  देवी कहती हैं, “मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं. मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं. धरती
, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानवों को तारने  के लिए संग्राम करती हूँ.

                      देवी भागवत के अनुसार –“देवीं मायां तु श्रीकामः” अर्थात नारी समस्त श्रेष्ठ कार्यों की देवी है.
   
                      नवरात्र  के अवसर पर नारी के विभिन्न दिव्य रूपों को नौ दिनों तक पूजा जाता है. वस्तुतः नारी को उसके दिव्य स्वरुप की याद दिलाने तथा उसके प्रति श्रद्धा से भर उठने का पर्व है नवरात्र. नारी के विभिन्न रूप हैं. यथा व्यंजन परोसती अन्नपूर्णाश्रृंगारित स्वरूप में वैभवलक्ष्मीबौद्धिक परामर्शदात्री सरस्वती और मधुर संगीत की स्वरलहरी उच्चारती वीणापाणि के रूप में, शौर्य दर्शाती दुर्गा भी वही, उल्लासमयी रोम-रोम से पुलकित अम्बा भी वही है, तथा दुष्टों का विनाश करने वाली  काली भी वही है.

                       देवी पूजन वैश्विक संस्कृति का एक भाग रहा है. विभिन्न देशों में देवी को भिन्न-भिन्न नामों व भाँती-भाँती के  रूपों में पूजा जाता है. जैसे- चीन में  तारा देवी, यूनान में प्रतिशोध की देवी नेमिशस एवं शक्ति की देवी डायना व  यूरोपा, वेल्स में उर्वशी, रोम में कुमारियों की देवी वेस्ता, कोरिया में सूर्यादेवी, मिस्र में आइसिस, फ्रांस में पुष्पों की देवी फ्लोरा, इटली में सौन्दर्य की देवी फेमिना, अफ्रीका में कुशोदा आदि.

                        इस नवरात्र हम सभी को मिलकर प्रार्थना करनी  चाहिए  कि हर नारी अपनी शक्ति को पहचाने और छू  सके समूचा आसमान, नाप सके सारी धरती अपने सुदृढ़ कदमों से और पुरुष में नारी के  प्रति कृतज्ञता, सौम्यता, सौहार्द, समानता और सम्मान के आदर्श भाव जागृत हों .

महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में :

"फूलों की कोमल पंखुडियाँ
बिखरें जिसके अभिनंदन में।
मकरंद मिलाती हों अपना
स्वागत के कुंकुम चंदन में।

कोमल किसलय मर्मर-रव-से
जिसका जयघोष सुनाते हों।
जिसमें दुख-सुख मिलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों।

उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं।

मैं उसी चपल की धात्री हूँ
गौरव महिमा हूँ सिखलाती।
ठोकर जो लगने वाली है
उसको धीरे से समझाती।

मैं देव-सृष्टि की रति-रानी
निज पंचबाण से वंचित हो।
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना
अपनी अतृप्ति-सी संचित हो।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में
अपनी अतीत असफलता-सी।
लीला विलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दलिता-सी।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ
मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुंदरता पग में
नूपुर सी लिपट मनाती हूँ।

लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लगती।
कुंचित अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जगती।

चंचल किशोर सुंदरता की
मैं करती रहती रखवाली।
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
जो बनती कानों की लाली।"

हाँ, ठीक, परंतु बताओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है
?
इस निविड़ निशा में संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है
?

क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।

आँसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा।
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा।"


-       -मनमोहन जोशी “ MJ “

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