Diary Ke Panne

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

शुभ दीपावली....





 दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों "दीप" अर्थात "दिया" व "आवली" अर्थात "श्रृंखला"  से हुई है. दीपावली को विभिन्न भाषाओं में लगभग मिलते जुलते नामों से जाना जाता है. लेकिन कब इसका अपभ्रंश रूप  दिवालीकब प्रचलित हो गया इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है.

जब हम बच्चे थे तो दीपावली का हमारे लिए मतलब होता था नए कपड़े, पटाखे, मिठाइयां और रंग बिरंगी रौशनियाँ. त्योहार की शुरुआत कई महीनों पहले बाबा(ताऊ जी)  की घोषणा से हो जाती थी वो लगातार सुबह-शाम, तारीख बताते रहते थे कि किस दिन धनतेरस होना है और किस दिन दीपावली.

कक्षा आठ में जाकर जब पहली बार हिंदी और इंग्लिश में दीपावली का निबंध याद किया वो भी बड़े बच्चों का निबंध जो बड़े भैया ने कॉलेज में तैयार किया था उन्होंने हमें याद करवा दिया. अच्छी बात ये रही की इसके बाद फिर कभी दीपावली का निबंध याद करने की ज़रूरत नहीं पड़ी. और हाँ इस त्यौहार के बारे में कई ऐसी जानकारी भी मिली जो साधारण तौर पर इस उम्र के बच्चों को नहीं होती है.

दीपावली का पर्व अंधकार पर प्रकाश के विजय के रूप में मनाया जाता है. लेकिन मेरे देखे अन्धकार और प्रकाश में कोई लड़ाई है ही नहीं. अन्धकार तो केवल प्रकाश का अभाव मात्र है जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं उससे कैसी लड़ाई?? मेरी समझ यह कहती है कि ये अन्धकार और प्रकाश प्रतीकात्मक हैं. यहाँ शायद अज्ञान रुपी अन्धकार और ज्ञान रुपी प्रकाश की बात हो रही है. वैसे तो इन दोनों में भी कोई लड़ाई नहीं है और अज्ञान भी केवल ज्ञान का अभाव मात्र ही है.

हिंदू दर्शन में योग, वेदांत और सांख्य सभी शाखाओं में यह विश्वास है कि इस भौतिक शरीर और मन से परे वहां कुछ है जो शुद्ध अनंत, और शाश्वत है जिसे आत्मन् या आत्मा कहा गया है. दीपावली, बाह्य अंधकार पर आंतरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है.

विभिन्न धर्मों में इस पर्व को मनाने के अपने धार्मिक कारण हैं एक मान्यता के अनुसार कार्तिक अमावस्या को भगवान श्री राम जी चौदह वर्ष का बनवास पूरा कर अयोध्या लौटे थे. अयोध्या वासियों ने अपने आराध्य का स्वागत दीप जलाकर किया था. बाबा तुलसी ने इस दिन का बेहद खूबसूरत वर्णन किया है:-

सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
 चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद॥
अर्थात:- आनन्दकन्द श्री रामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि से छा गया. नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं.

कंचन कलस बिचित्र सँवारे।सबहिं धरे सजि निज निजद्वारे॥
बन्दनवार पताका केतुसबन्हि बनाए मंगल हेतु 
  अर्थात:- सोने के कलशों को विचित्र रीति से सजाकर सब लोगों ने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया. सब लोगों ने बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगाईं.

बीथीं सकल सुगंध सिंचाई।गजमनि रचि बहु चौक पुराईं। 
नाना भाँतिसुमंगल साजे।हरषि नगर निसान बहु बाजे॥ 
अर्थात:- सारी गलियाँ सुगंधित द्रवों से धोई गईं. गजमुक्ताओं से रचकर बहुत सी चौकें पुराई गईं. अनेकों प्रकार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हर्षपूर्वक नगर में बहुत से डंके बजने लगे.
  
एक अद्भुत दोहे में प्रतीकों के माध्यम से बाबा तुलसी लिखते हैं कि ;-
 नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस। 
अस्त भएँबिगसत भईं निरखि राम राकेस॥अर्थात:- स्त्रियाँ कुमुदनी हैं,अयोध्या सरोवर है और श्री राम का विरह सूर्य है अर्थात इस विरह सूर्य के ताप से वे मुरझा गई थीं. अब उस विरह रूपी सूर्य के अस्त होने पर श्री राम रूपी पूर्णचन्द्र को देख कर वे खिल उठीं है.

बहरहाल भारत के कुछ क्षेत्रों में दीपावली के इस पर्व को को यम और नचिकेता की कथा के साथ भी जोड़ा जाता है.यह अद्भुत  कथा कठोपनिषद नामक ग्रन्थ में मिलती है.

सातवीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने इस पर्व का उल्लेख दीपप्रतिपादुत्सव: के नाम से किया है. जिसमें दिये जलाये जाते थे और नव दंपत्ति को उपहार दिए जाते थे.

नवीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इस पर्व को  दीपमालिका कहा है जिसमें घरों की पुताई की जाती थी और तेल के दीयों से रात में घरों, सड़कों और बाजारों सजाया जाता था.

फारसी यात्री और इतिहासकार अलबरुनी, ने भारत पर अपने ग्यारहवीं सदी के संस्मरण में, दीवाली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार वर्णीत किया है.

महाभारत के अनुसार बारह वर्षों के वनवास व एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडव आज ही के दिन वापस लौटे थे अतः उनके वापसी के प्रतीक रूप में दीपावली मनाई जाती है.

फिर एक प्रश्न यह उठता है कि दीपवाली के दिन लक्ष्मी पुजन क्यूँ किया जाता है ?? इसका कारण यह है कि दीपावली के दिन ही पांच दिवसीय सागर मंथन के पश्चात लक्ष्मी जी ने जन्म लिया था. और दीपावली की रात वह क्षण है जब लक्ष्मी जी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे विवाह बंधन में बंधीं अर्थात यह प्रेम दिवस भी है.

आज के दिन लोग लक्ष्मी जी की मूर्ति ला कर उसे घर में स्थापित करते हैं. मेरे देखे हमें विष्णु जी की मूर्ति लाकर उसकी स्थापना करनी चाहिए लक्ष्मी जी तो पीछे पीछे चली आएंगी.

भारत के पूर्वी क्षेत्र उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में लक्ष्मी जी की जगह माँ  काली की पूजा की जाती है और इस त्योहार को काली पूजा कहते हैं.

जैन मतावलंबियों के अनुसार जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर, महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी. इसी दिन उनके प्रथम शिष्य, गौतम गणधर को कैवल्य प्राप्त हुआ था.

सिक्खों के लिए भी आज का दिन महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आज ही के दिन अमृतसर में 1577 को स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था.

बहरहाल केवल मिट्टी के दिए जला देने भर से ही मन का अंधियारा नहीं मिटेगा.. ज्ञान प्राप्ति की ललक जगानी होगी. उद्यम करना होगा धरती पाताल एक कर देना पड़ेगा...

इस दीपावाली मनुष्यता के लिए प्रार्थना करता हूँ कि मनुष्य मन का अँधेरा छंटे और प्रेम का प्रकाश चहूँ  फैले.... नीरज साहब की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं :-

 दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा,
 धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ !
  
 बहुत बार आई-गई यह दिवाली
 मगर तम जहाँ था वहीं पर खड़ा है, बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
 कफन रात का हर चमन पर पड़ा है,
 न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
 ऊषा को जगाओ, निशा को सुलाओ !
  
 दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा
 धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!

  
-मनमोहन जोशी