Diary Ke Panne

बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

फ़िक्रे दुनिया : वैवाहिक बलात्संग पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला ..



                   मैं कई बार मज़ाक में कहता हूँ की मेरे खून में WBC और RBC की जगह IPC और CrPC बहती है. लॉ पढ़ाते हुए अक्सर मैं स्टूडेंट्स से कहता हूँ कि कानून तीन तरह से पढ़ा और समझा जा सकता है: पहला: यह देखना कि  बेयर एक्ट क्या कहते हैं. दूसरा: इस सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट का क्या मत है. और तीसरा: हमारी समझ क्या कहती है.

                   कानूनों की व्याख्या करते हुए कई बार मैं कुछ धाराओं पर रूकता हूँ और स्टूडेंट्स से ये चर्चा होती है कि ये प्रावधान क्यूँ सही नहीं है
, या फिर सुप्रीम कोर्ट के फलां निर्णय में क्या बदलाव होने चाहिए थे या अमुक निर्णय क्यूँ सहीं नहीं है आदि. ऐसा ही एक प्रावधान भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में  है जिस पर आज सुप्रीम कोर्ट का एक बड़ा फैसला आया है.
            
                  सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिग पत्नी से शारीरिक संबंध पर आज एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा कि नाबालिग पत्नी के साथ शारीरिक संबंध रेप माना जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 375 के अपवाद को  असंवैधानिक घोषित कर दिया है, धारा 375 के अपवाद अनुसार यदि शादीशुदा महिला जिसकी उम्र 15 साल से ज्यादा है, के साथ उसके पति द्वारा जबरन शारीरिक सम्बन्ध बनाया जाता है तो पति के खिलाफ रेप का केस नहीं बनेगा. आईपीसी में रेप की परिभाषा में इसे अपवाद माना गया है. हालांकि, बाल विवाह कानून के मुताबिक शादी के लिए महिला की उम्र 18 वर्ष होनी चाहिए. कोर्ट के अनुसार  यदि नाबालिग पत्नी एक साल के भीतर शिकायत करती है तो पति पर रेप का मुकदमा चलेगा. सुनवाई में बाल विवाह के मामलों में अधिकतम 2 साल के कारावास की सजा पर भी  सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए. सुप्रीम ने केंद्र से कहा था क्या ये कठोर सजा है? दरअसल केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि बाल विवाह करने पर कठोर सजा का प्रावधान है.
            
                    उल्लेखनीय है कि 1978 में बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955  में संशोधन कर लड़की की शादी की उम्र 15 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दी गई थी. अब 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 21 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है जिसके लिए  दो वर्ष तक के  सश्रम कारावास या एक लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान  है. लेकिन धारा 375 के अपवाद में आज भी यह प्रावधान बना हुआ है कि पत्नी जिसकी उम्र 15 साल से अधिक है, के साथ जबरन यौन सम्बन्ध बलात्कारनहीं समझा जायेगा.

                देश के
योग्य नौकरशाहऔर महान सांसद"  भारतीय दंड संहिता की कुछ धाराओं में संशोधन करना ही भूल गए. दांडिक विधि संशोधन अधिनियम, 2013 के बाद अब भी भारतीय दंड संहिता की धारा 375 का अपवाद, पति को अपनी 15 साल से अधिक आयु  की पत्नी के साथ बलात्कार करने का कानूनी लाइसेंसदेता है, जो निश्चित रूप से नाबालिग बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ भेदभावपूर्ण रवैया है.

                   वैसे कुछ लोग ये तर्क भी देते हैं की भारत में नारी का शोषण प्राचीन काल से होता आ रहा है. लेकिन प्राचीन साहित्य को देखने पर ये बात सही नहीं मालूम पड़ती क्यूंकि बलात्कार की जो व्यापक परिभाषा प्राचीन साहित्य में मिलती है समझने लायक है. जैसे: मिताक्षरामें याज्ञवल्यक्य कहते हैं कि किसी पुरुष का किसी स्त्री के साथ मात्र कामसुख के लिए बलात् समागम करना व्यभिचार है और यह  दंडनीय है.

                      “मनुस्मृतिमें बलात्कार को अपराध ठहराते हुए लिखा गया है कि पर-स्त्री संयोग की लालसा से जो स्त्री को ग्रहण करेगा वह बलात्कार का दोषी है. मनुस्मृतिमें तो यहां तक कहा गया है कि जो पुरूष परस्त्री के साथ रमणीय एकान्त में वार्तालाप करता है तथा उसके अस्पृश्य अंगों स्पर्श करता है वह बलात्कार का दोषी होगा (2013 के दांडिक विधि संशोधन के तहत अब स्त्री के  अस्पृश्य अंगों को स्पर्श करनाशब्दावली को  को IPC की धरा 375 के अंतर्गत बलात्कार की परिभाषा में शामिल कर लिया गया है.)
                    
                       बृहस्पति ने बलात्कार के तीन प्रकार बताए हैं - बल द्वारा, छल द्वारा और अनुराग द्वारा.
                 
                        इसी प्रकार विवाद रत्नाकरमें व्यास ने बलात्कार की तीन श्रेणियां बताई हैं – 1. परस्त्री से निजर्न स्थान में मिलना और उसे आकर्षित करना.  2. विभिन्न प्रकार के उपहार आदि भेजना. 3. एक ही शैया अथवा आसन का प्रयोग करना.
                     
                        इन उदाहरणों से एक बात स्पष्ट होती है कि प्राचीन भारत के विधिशास्त्रियों ने प्रत्येक उस चेष्टा को भी बलात्कार की श्रेणी में रखा जो प्राथमिक रूप में भले ही सामान्य प्रतीत हों किन्तु आगे चल कर बलात् यौनक्रिया में परिवतिर्त हो सकती हो.

                      कात्यायन ने नौ प्रकार के बलात्कारों उल्लेख किया है
1 दूत के हाथों अनुचित अथवा कामोत्तेजक संदेश भेजना.
2 अनुपयुक्त स्थान या काल पर परस्त्री के साथ पाया जाना.
3 पर स्त्री को बलात् गले लगाना.
4 पर स्त्री के केश पकड़ना.
5  पर स्त्री का आंचल पकड़ना.
6  पर स्त्री के किसी भी अंग का स्पर्श करना.
7  पर स्त्री के साथ उसके आसन अथवा शैया पर जा बैठना.
8 मार्ग में साथ चलते हुए अश्लील वार्तालाप करना.
9  स्त्री अपहरण कर उसके साथ यौनक्रिया करना.

                    भारतीय मनीषियों ने बलात्कार को जघन्य अपराध की श्रेणी में रखा और इसके लिए कठोरतम दंड का उल्लेख किया है जैसे:     
बृहस्पति के अनुसार : बलात्कारी की सम्पत्तिहरण करके उसका लिंगोच्छेद करवाना.
कात्यायन के अनुसार : बलात्कारी को मृत्युदण्ड दिया जाए.
नारदस्मृति के अनुसार :बलात्कारी को शारीरिक दण्ड दिया जाना चाहिए.
कौटिल्य के अनुसार : सम्पत्तिहरण करके कटाअग्नि में जलाने का दण्ड दिया जाना चाहिए.
याज्ञवल्क्य के अनुसार : सम्पत्तिहरण कर प्राणदण्ड दिया जाना चाहिए.
मनुस्मृति के अनुसार : एक हजार पण का अर्थदण्ड, निवार्सन, ललाट पर चिन्ह अंकित कर समाज से बहिष्कृत करने का दण्ड दिया जाना चाहिए.

                   
                    लेकिन एक बात जो कहीं पढने में नहीं आई वह यह कि क्या प्राचीन उन्नत सभ्यताओं में विवाहित स्त्री के साथ पति द्वारा बलात सम्बन्ध बनाना भी अपराध था?? क्या पत्नी की सहमती आवश्यक थी?? क्या पति की इच्छा और सहमती के बारे में भी कभी कहीं सोचा गया लगता है  पुरुष लम्पटता का प्रतीक होकर हमेशा ही महिलाओं को अधिसाशित करने की स्थिति में रहे.

                      इन सबके परे आज का उच्चतम न्यायालय का निर्णय ऐतिहासिक है जो
18 वर्ष से कम आयु की महिलाओं के लिए एक वरदान साबित हो सकता है. मेरे देखे उच्चतम न्यायालय ने नारी सशक्तिकरण की दिशा में एक और मिल का पत्थर स्थापित कर दिया है.



              - मनमोहन जोशी "MJ"

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

दुनिया मेरे आगे : जैविक घड़ी और ब्रह्माण्डीय घड़ी......




                        प्राणियों में स्वास का चलना, पेड़-पौधों में निश्चित समय पर फूल लगना एवं फल बनना, पतझड़ में पुराने पत्तों का गिरना एवं पौधों का नई कोपलें धारण करना, समय पर अंकुरण होना, मौसम का बदलना, दिन रात का होना, निश्चित समय पर अमावस्या और पूर्णिमा का होना आदि प्रकृति में जो कुछ भी घट रहा है ऐसा मालूम पड़ता है किसी घड़ी से ही संचालित है.
                  
                     हमारी बीमारियाँ, स्वास्थ्य, जीवन के उतार चढाव, मनोदशा, मन में सुख या दुःख के भाव ये सब भी किसी घड़ी से ही संचालित होते मालूम पड़ते हैं, इस घड़ी की खोज कुछ वैज्ञानिकों ने कर ली है जिसे जैविक घड़ी नाम दिया गया है, ऐसा अखबार में पढने को मिला. मनुष्य में जैविक घड़ी का मूल स्थान हमारा मस्तिष्क है. मस्तिष्क मे करोड़ो कोशिकाएं होती है जिन्हे हम न्यूरॉन कहते है. एक कोशिका से दूसरे को सूचना का आदान-प्रदान विद्युत् स्पंदों द्वारा होता है. हम रात को समय विशेष पर सो जाते है तथा सुबह स्वतः ही जाग जाते है. औसतन हम एक मिनट में 15-18 बार सांस लेते है तथा हमारा हृदय 72 बार धड़कता है ये सब जैविक घड़ी से संचालित होता है. मेरे देखे ये जैविक घड़ी ही सब कुछ संचालित करती है अगर ये नहीं होती तो हम सांस लेना भूल जाते और शायद कहीं छपता कि सांस लेना भूलने के कारण इतने लोग मृत पाए गए.
                 
                    अमेरिकी वैज्ञानिकों जेफरी हॉल, माइकल रोजबाश और माइकल यंग ने शरीर की इस जैविक घड़ी पर खोज की है. जिसके लिए इन तीनों को नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया है. इन वैज्ञानिकों ने मनुष्य शरीर के जैविक घड़ी के काम करने के तरीके को समझने का प्रयास किया है. बॉडी क्लॉक में बदलाव की वजह से शुरुआत में तो याद्दाश्त संबंधी समस्या पैदा होती हैं, लेकिन इसका बड़ा प्रभाव कई तरह की बीमारियों के रूप में सामने आता है. इनमें  मधुमेह, कैंसर और दिल के रोग शामिल हैं. ऑक्सफ़ॉर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर रसेल फ़ोस्टर ने बीबीसी को बताया कि अगर हम बॉडी क्लॉक से छेड़छाड़ करते हैं तो मेटैबलिज़म पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है. उनके मुताबिक शरीर का सिस्टम कैसे काम करता है पहली बार इसकी जानकारी देकर तीनों अमेरिकी वैज्ञानिक इस पुरस्कार के हक़दार बने हैं.
                    
                       एक विज्ञान लेख में मैंने पढ़ा कि जेफरी हॉल और माइकल रोजबाश ने डीएनए के एक खंड को अलग कर बॉडी क्लॉक में लगाया. इसे पीरियड जीन कहते हैं. पीरियड जीन के पास एक तरह के प्रोटीन के निर्माण करने का निर्देश होता है. इस प्रोटीन को पीइआर कहते हैं. जब पीइआर का स्तर बढ़ जाता है, तो वह खुद ही अपने निर्माण संबंधी निर्देशों को बंद कर देता है. इस तरह पीइआर का स्तर 24 घंटे के दौरान घटता-बढ़ता रहता है. ये रात के वक्त बढ़ता है जबकि दिन के वक्त कम हो जाता है. माइकल यंग ने दो जीन खोजे हैं. एक को टाइमलेस तो दूसरे को डबल टाइम नाम दिया गया है. दोनों पीइआर की स्थिरता को प्रभावित करते हैं. अगर पीइआर अधिक स्थिर है, तो बॉडी क्लॉक धीमी गति से चलती है, अगर यह कम स्थिर है तो यह तेज़ काम करती है. यही इंसान को कर्मठ या सुस्त बनाती है.
                   
                       इस जैविक घड़ी से ही हमारे समय का निर्धारण हो रहा है अर्थात हम समय को नहीं भोग रहे हैं समय ही हमें भोग रहा है. वैराग्य शतक में विद्वान भर्तृहरि कहते हैं :                 

भोगो  न भुक्ता वयमेव भुक्ताः। तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।
कालो न यातं वयमेव याताः। तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।
अर्थात : हम समय को नहीं जीते, समय हमें जीता है.

                      मेरे देखे जैविक घड़ी के साथ साथ एक कॉस्मिक घड़ी भी है जिसे ब्रहमांडीय घडी कहा जा सकता है. ये ग्रह, नक्षत्र, चांदतारे, धरतीआकाश और न जाने कितने ब्रह्मांड उसके द्वारा संचालित हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो इस घड़ी को बहती धारा मानते हैं. भूत - वर्तमान और भविष्य की चिरतरंगिणी. अदृश्य प्रवाह जो ब्रह्मांड की समस्त हलचलों, ग्रह - नक्षत्र, निहारिकाओं,  नदियों, महासागरों के साथ - साथ गतिमान है. किसी के लिए वह ब्रह्मांड के भीतर है, किसी के लिए बाहर. ईश्वर का एक नाम "काल" भी है. जिसका अर्थ होता है समय. समय अर्थात घड़ी.


- मनमोहन जोशी MJ

फ़िक्रे दुनिया – रोहिंग्या मुसलमान और शरणार्थी समस्या



                   पिछले कुछ् दिनों से लगातार रोहिंग्या मुसलमान और उनसे जुड़ी  विभिन्न बातें पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं... सोचा कुछ लिखा जाए. सबसे पहले तो यह समझना आवश्यक है कि शरणार्थी किसे कहते हैं? सीधे शब्दों में शरणार्थी उसे कहते हैं जो शरण में आया हो. या वो व्यक्ति या व्यक्ति समूह  शरणार्थी कहे जाते हैं जिन्हें अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र रहने के लिये विवश होना पड़ा हो.

                 विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में छप रहे आलेखों से पता चलता है कि रोहिंग्या मुसलमान इस्लाम को मानने वाले वो लोग हैं जो 1400 ई. के आस-पास बर्मा (आज के म्यांमार) के अराकान प्रांत में आकर बस गए थे. इनमें से बहुत से लोग 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला  के राज दरबार में काम करते थे.
  
              जनसंख्या विस्थापन के क्षेत्र में दक्षिण एशिया का एक अनूठा इतिहास रहा है. यहां, युद्ध के बाद लोग या तो अपने देश की सीमाओं से बाहर निकाल दिए गए अथवा वे जाति, नस्ल या धर्म के आधार पर देश छोड़ने को मज़बूर हो गए. इसके बाद पर्यावरण या विकासात्मक प्रक्रिया भी विस्थापन की एक वजह बनी. भारत और पाकिस्तान दोनों अपनी आज़ादी के दौरान बड़े पैमाने पर विस्थापन की समस्या का गवाह रहे. इस व्यापक मानवीय संकट के समय में भी काफी कम अंतरराष्ट्रीय सहायता मिल पाई.  बाद में 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के समय 10 मिलियन शरणार्थियों ने भारत का रूख़ किया. 1979 में, सोवियत संघ के हस्तक्षेप के बाद 3.5 मिलियन अ़फग़ानियों ने पाकिस्तान की शरण ली, ऐसा कहा जाता है कि इनमें 1.2 मिलियन शरणार्थी अभी भी गांवों में रह रहे हैं.
  
             1970-1990 के दौरानबांग्लादेश में म्यांमार के राखिन ज़िले से 3,00,000 मुस्लिम शरणार्थियों की बाढ़-सी आ गई, जिसमें 30,000 शरणार्थी अभी भी वापस नहीं गए हैं. इसी तरह, 90,000 नेपाली मूल के भूटानियों को निष्काषित कर दिया गया और उनमें से अधिकतर शरणार्थी नेपाल के झपा ज़िले में अभी भी रह रहे हैं.

              तमिलों के बाह्य-विस्थापन और सिंहली, तमिल और मुस्लिमों के आंतरिक विस्थापन की वजह से ही श्रीलंका को प्राय: शरणार्थी-द्वीप कहा जाता है. हालांकि यह शरण देने वाला नहीं बल्कि शरणार्थी पैदा करने वाले देशों में शुमार है. 1983 से श्रीलंका ने लाखों शरणार्थियों को पैदा किया, वहीं इसके अलावा 50,000 तमिल शरणार्थी पहले से ही पश्चिम देशों में शरण लिए हुए हैं. तमिलनाडु में शरण लिए अधिकांश श्रीलंकाई शरणार्थियों को स्वेच्छा से वापस भेज दिया गया, लेकिन उत्तर-पूर्व श्रीलंका में चल रहे सुरक्षा संकट की वजह से अभी भी 60,000 से अधिक शरणार्थी वापस जाने से हिचक रहे हैं.

                1960 के दशक से ही भारत लाखों तिब्बती और हज़ारों बांग्लादेशी शरणार्थियों की मेज़बानी कर रहा है, जिनमें कुछ ने तो हाल ही में भारत का रूख़ किया है. भारत ने यूएनएचआरसी को आश्वासन दिया है कि वह मानवीय आधार पर 12,000 अ़फग़ानियों की भी मदद करेगा. मालदीव एक मात्र सार्क देश है, जो न तो शरणार्थी पैदा करता है और न ही उन्हें शरण देता है. आजादी के बाद के शुरुआती सालों की नीतियों ने भारत में शरणार्थियों के स्वागत की एक मजबूत परंपरा बनाने में मदद की. जिसे अब भारत न पूरी तरह अपना सकता है, न ही पूरी तरह ठुकरा सकता है.

                भारतीय उच्चतम न्यायलय ने शरणार्थियों की सुरक्षा की निगरानी यूएनएचसीआर के तहत करने से अपनी सहमति जतायी है. सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि अगर यूएनएचसीआर द्वारा शरणार्थी के रूप में प्रमाणित किसी भी बाहरी नागरिक को एक 'उचित प्रक्रिया' के तहत ही  जाने के लिए कहा जा सकता है. हालांकि अदालत ने किसी शरणार्थी को मान्यता या आश्रय देने के संबंध में कोई मानक तय नहीं किया है.

             केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर में नीति निर्धारण पर विभिन्न देशों में आने वाले 'अवांछित आप्रवासियों का भय' छाया हुआ है. इसकी शुरूआत सीरिया से आने वाले शरणार्थियों से हुई थी  और उसका असर इटली के चुनावों, ब्रैग्जिट, अमरीकी चुनावों और फ्रांस के चुनावों तथा हाल ही में संपन्न  न्यूजीलैंड में और जर्मनी के चुनावों में दिखाई दिया जहां एक बार फिर मुख्य मुद्दा 'विदेशी आप्रवासियों' को न आने देने का था.

              म्यांमार से भाग कर भारत में दाखिल होने के इच्छुक रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रश्र पर भारत सरकार और किसी सीमा तक भारतीय लोगों की प्रतिक्रिया भी उपरोक्त देशों जैसी ही है. भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक  हर प्रकार के शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे खुले रखे हैं जिनमें तिब्बत के बौद्ध, अफगानिस्तान के मुसलमान, श्रीलंका के हिंदू और ईसाई तथा यहां तक कि पाकिस्तान से आए शरणार्थी भी शामिल हैं. पूर्वी पाकिस्तान से 1971 में और बाद में 2014 तक बंगलादेश से एक करोड़ हिंदू, मुस्लिम, बौद्धों और कबायलियों के आने तक हमारा एकमात्र मापदंड मानवतावादी रहा है.

              लेकिन अन्य शरणार्थियों के साथ आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ की आशंका को देखते हुए भारत ने पहली बार अपनी नीति बदल दी है. सुप्रीमकोर्ट द्वारा भारत सरकार को रोहिंग्या शरणार्थियों को आने देने के लिए कहने के बावजूद सरकार ने इस पर रोक लगाने का निर्णय किया है क्योंकि सरकार इसे कार्यपालिका का अधिकार मानती है और यह मामला न्याय पालिका के अधीन नहीं आता कि वह इस पर निर्णय ले सके. यद्यपि रोहिंग्या शरणार्थियों को आने या न आने देने के समर्थकों और विरोधियों दोनों के ही अपने-अपने मजबूत तर्क हैं.

           उत्तर-पूर्व के 8 में से 5 राज्यों का कहना है कि उनके लिए इन्हें खपाना मुश्किल होगा. इन हालात में हालांकि भारत सरकार बंगलादेश को आर्थिक सहायता दे रही है ताकि रोहिंग्या वहां के शरणार्थी शिविरों में रह सकें परंतु भारत सरकार को सक्रिय रूप से इस मुद्दे पर विचार करने की आवश्यकता है.

               सर्वप्रथम यह अध्ययन करना चाहिए कि क्या यह रोहिंग्या शरणार्थियों को शरण न देकर किसी अंतर्राष्ट्रीय कानूनी प्रतिबद्धता या अपने संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन तो नहीं कर रही? बेशक भारत ने  शरणार्थियों बारे 1951 की संयुक्त राष्ट्र कंवैंशन या इसके 1967 के प्रोटोकोल पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं  परंतु हम अभी भी मानवाधिकारों के बारे उन अनेक कंवैंशनों से बंधे हुए हैं जिन पर हमने हस्ताक्षर कर रखे हैं.
इनमें संयुक्त राष्ट्र का वह सिद्धांत भी शामिल है जिसमें शरणार्थियों की जबरदस्ती वापसी को रोका गया है. इससे भी बड़ी बात सुप्रीमकोर्ट द्वारा धारा-21 के अंतर्गत दी गई जीवन के अधिकार और निजी स्वतंत्रता संबंधी व्यवस्था है जो भारत में रह रहे  सभी लोगों पर लागू होती है चाहे उनकी नागरिकता कोई भी हो. इसमें रोहिंग्या शरणार्थी भी शामिल हैं.

               संभवत: भारत को वैसे ही कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है जैसे तुर्की ने सीरियाई शरणार्थियों के लिए उठाए. तुर्की ने  शिविर बनाए, भोजन, पानी और बिजली उपलब्ध की, लेकिन शहरों के बाहर सीमाएं बंद कर दीं जब तक कि उन्हें कहीं जाने का ठिकाना नहीं मिल गया.

                हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आंग सू की के बीच वार्ता में भी सू की ने किसी प्रकार का कोई आश्वासन नहीं दिया है. वास्तव में उन्होंने तो यह स्वीकार करने से भी इंकार कर दिया है कि कोई समस्या है. इस हालत में शरणार्थियों को वापस भेजना मुश्किल होगा. ऐसा लगता नहीं है कि आंग सू की अपनी सेना के खिलाफ जाएंगी.

                                   - मनमोहन जोशी "MJ"