Diary Ke Panne

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

फ़िक्रे दुनिया – रोहिंग्या मुसलमान और शरणार्थी समस्या



                   पिछले कुछ् दिनों से लगातार रोहिंग्या मुसलमान और उनसे जुड़ी  विभिन्न बातें पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं... सोचा कुछ लिखा जाए. सबसे पहले तो यह समझना आवश्यक है कि शरणार्थी किसे कहते हैं? सीधे शब्दों में शरणार्थी उसे कहते हैं जो शरण में आया हो. या वो व्यक्ति या व्यक्ति समूह  शरणार्थी कहे जाते हैं जिन्हें अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र रहने के लिये विवश होना पड़ा हो.

                 विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में छप रहे आलेखों से पता चलता है कि रोहिंग्या मुसलमान इस्लाम को मानने वाले वो लोग हैं जो 1400 ई. के आस-पास बर्मा (आज के म्यांमार) के अराकान प्रांत में आकर बस गए थे. इनमें से बहुत से लोग 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला  के राज दरबार में काम करते थे.
  
              जनसंख्या विस्थापन के क्षेत्र में दक्षिण एशिया का एक अनूठा इतिहास रहा है. यहां, युद्ध के बाद लोग या तो अपने देश की सीमाओं से बाहर निकाल दिए गए अथवा वे जाति, नस्ल या धर्म के आधार पर देश छोड़ने को मज़बूर हो गए. इसके बाद पर्यावरण या विकासात्मक प्रक्रिया भी विस्थापन की एक वजह बनी. भारत और पाकिस्तान दोनों अपनी आज़ादी के दौरान बड़े पैमाने पर विस्थापन की समस्या का गवाह रहे. इस व्यापक मानवीय संकट के समय में भी काफी कम अंतरराष्ट्रीय सहायता मिल पाई.  बाद में 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के समय 10 मिलियन शरणार्थियों ने भारत का रूख़ किया. 1979 में, सोवियत संघ के हस्तक्षेप के बाद 3.5 मिलियन अ़फग़ानियों ने पाकिस्तान की शरण ली, ऐसा कहा जाता है कि इनमें 1.2 मिलियन शरणार्थी अभी भी गांवों में रह रहे हैं.
  
             1970-1990 के दौरानबांग्लादेश में म्यांमार के राखिन ज़िले से 3,00,000 मुस्लिम शरणार्थियों की बाढ़-सी आ गई, जिसमें 30,000 शरणार्थी अभी भी वापस नहीं गए हैं. इसी तरह, 90,000 नेपाली मूल के भूटानियों को निष्काषित कर दिया गया और उनमें से अधिकतर शरणार्थी नेपाल के झपा ज़िले में अभी भी रह रहे हैं.

              तमिलों के बाह्य-विस्थापन और सिंहली, तमिल और मुस्लिमों के आंतरिक विस्थापन की वजह से ही श्रीलंका को प्राय: शरणार्थी-द्वीप कहा जाता है. हालांकि यह शरण देने वाला नहीं बल्कि शरणार्थी पैदा करने वाले देशों में शुमार है. 1983 से श्रीलंका ने लाखों शरणार्थियों को पैदा किया, वहीं इसके अलावा 50,000 तमिल शरणार्थी पहले से ही पश्चिम देशों में शरण लिए हुए हैं. तमिलनाडु में शरण लिए अधिकांश श्रीलंकाई शरणार्थियों को स्वेच्छा से वापस भेज दिया गया, लेकिन उत्तर-पूर्व श्रीलंका में चल रहे सुरक्षा संकट की वजह से अभी भी 60,000 से अधिक शरणार्थी वापस जाने से हिचक रहे हैं.

                1960 के दशक से ही भारत लाखों तिब्बती और हज़ारों बांग्लादेशी शरणार्थियों की मेज़बानी कर रहा है, जिनमें कुछ ने तो हाल ही में भारत का रूख़ किया है. भारत ने यूएनएचआरसी को आश्वासन दिया है कि वह मानवीय आधार पर 12,000 अ़फग़ानियों की भी मदद करेगा. मालदीव एक मात्र सार्क देश है, जो न तो शरणार्थी पैदा करता है और न ही उन्हें शरण देता है. आजादी के बाद के शुरुआती सालों की नीतियों ने भारत में शरणार्थियों के स्वागत की एक मजबूत परंपरा बनाने में मदद की. जिसे अब भारत न पूरी तरह अपना सकता है, न ही पूरी तरह ठुकरा सकता है.

                भारतीय उच्चतम न्यायलय ने शरणार्थियों की सुरक्षा की निगरानी यूएनएचसीआर के तहत करने से अपनी सहमति जतायी है. सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि अगर यूएनएचसीआर द्वारा शरणार्थी के रूप में प्रमाणित किसी भी बाहरी नागरिक को एक 'उचित प्रक्रिया' के तहत ही  जाने के लिए कहा जा सकता है. हालांकि अदालत ने किसी शरणार्थी को मान्यता या आश्रय देने के संबंध में कोई मानक तय नहीं किया है.

             केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर में नीति निर्धारण पर विभिन्न देशों में आने वाले 'अवांछित आप्रवासियों का भय' छाया हुआ है. इसकी शुरूआत सीरिया से आने वाले शरणार्थियों से हुई थी  और उसका असर इटली के चुनावों, ब्रैग्जिट, अमरीकी चुनावों और फ्रांस के चुनावों तथा हाल ही में संपन्न  न्यूजीलैंड में और जर्मनी के चुनावों में दिखाई दिया जहां एक बार फिर मुख्य मुद्दा 'विदेशी आप्रवासियों' को न आने देने का था.

              म्यांमार से भाग कर भारत में दाखिल होने के इच्छुक रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रश्र पर भारत सरकार और किसी सीमा तक भारतीय लोगों की प्रतिक्रिया भी उपरोक्त देशों जैसी ही है. भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक  हर प्रकार के शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे खुले रखे हैं जिनमें तिब्बत के बौद्ध, अफगानिस्तान के मुसलमान, श्रीलंका के हिंदू और ईसाई तथा यहां तक कि पाकिस्तान से आए शरणार्थी भी शामिल हैं. पूर्वी पाकिस्तान से 1971 में और बाद में 2014 तक बंगलादेश से एक करोड़ हिंदू, मुस्लिम, बौद्धों और कबायलियों के आने तक हमारा एकमात्र मापदंड मानवतावादी रहा है.

              लेकिन अन्य शरणार्थियों के साथ आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ की आशंका को देखते हुए भारत ने पहली बार अपनी नीति बदल दी है. सुप्रीमकोर्ट द्वारा भारत सरकार को रोहिंग्या शरणार्थियों को आने देने के लिए कहने के बावजूद सरकार ने इस पर रोक लगाने का निर्णय किया है क्योंकि सरकार इसे कार्यपालिका का अधिकार मानती है और यह मामला न्याय पालिका के अधीन नहीं आता कि वह इस पर निर्णय ले सके. यद्यपि रोहिंग्या शरणार्थियों को आने या न आने देने के समर्थकों और विरोधियों दोनों के ही अपने-अपने मजबूत तर्क हैं.

           उत्तर-पूर्व के 8 में से 5 राज्यों का कहना है कि उनके लिए इन्हें खपाना मुश्किल होगा. इन हालात में हालांकि भारत सरकार बंगलादेश को आर्थिक सहायता दे रही है ताकि रोहिंग्या वहां के शरणार्थी शिविरों में रह सकें परंतु भारत सरकार को सक्रिय रूप से इस मुद्दे पर विचार करने की आवश्यकता है.

               सर्वप्रथम यह अध्ययन करना चाहिए कि क्या यह रोहिंग्या शरणार्थियों को शरण न देकर किसी अंतर्राष्ट्रीय कानूनी प्रतिबद्धता या अपने संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन तो नहीं कर रही? बेशक भारत ने  शरणार्थियों बारे 1951 की संयुक्त राष्ट्र कंवैंशन या इसके 1967 के प्रोटोकोल पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं  परंतु हम अभी भी मानवाधिकारों के बारे उन अनेक कंवैंशनों से बंधे हुए हैं जिन पर हमने हस्ताक्षर कर रखे हैं.
इनमें संयुक्त राष्ट्र का वह सिद्धांत भी शामिल है जिसमें शरणार्थियों की जबरदस्ती वापसी को रोका गया है. इससे भी बड़ी बात सुप्रीमकोर्ट द्वारा धारा-21 के अंतर्गत दी गई जीवन के अधिकार और निजी स्वतंत्रता संबंधी व्यवस्था है जो भारत में रह रहे  सभी लोगों पर लागू होती है चाहे उनकी नागरिकता कोई भी हो. इसमें रोहिंग्या शरणार्थी भी शामिल हैं.

               संभवत: भारत को वैसे ही कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है जैसे तुर्की ने सीरियाई शरणार्थियों के लिए उठाए. तुर्की ने  शिविर बनाए, भोजन, पानी और बिजली उपलब्ध की, लेकिन शहरों के बाहर सीमाएं बंद कर दीं जब तक कि उन्हें कहीं जाने का ठिकाना नहीं मिल गया.

                हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आंग सू की के बीच वार्ता में भी सू की ने किसी प्रकार का कोई आश्वासन नहीं दिया है. वास्तव में उन्होंने तो यह स्वीकार करने से भी इंकार कर दिया है कि कोई समस्या है. इस हालत में शरणार्थियों को वापस भेजना मुश्किल होगा. ऐसा लगता नहीं है कि आंग सू की अपनी सेना के खिलाफ जाएंगी.

                                   - मनमोहन जोशी "MJ"
                       

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