Diary Ke Panne

मंगलवार, 23 जनवरी 2018

"दलित" शब्द पर रोक...

                 


                 कल इंदौर हाई कोर्ट ने एक याचिका पर फैसला सुनाते हुए “दलित” शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगा दी. “अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम” के मेरे लेक्चर्स के दौरान मैं लगातार इस बात पर ज़ोर देता रहता हूँ कि वर्तमान में दलित जैसा कोई शब्द नहीं है. राजनैतिक पार्टियां और राजनेता केवल अपने फायदे के लिए ही इस शब्द का उपयोग करते रहते हैं. दलित शब्‍द का शाब्दिक अर्थ है- दलन किया हुआ. रामचंद्र वर्मा के शब्‍दकोश के अनुसार दलित  शब्द का अर्थ- मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ है.
                
                बाबा साहेब अंबेडकर ज्यादातर “डिप्रेस्ड क्लास” शब्द का ही इस्तेमाल अपने भाषणों में करते थे, अंग्रेज भी इसी शब्द का इस्तेमाल करते थे. शायद भारत में यहीं से दलितशब्द का प्रयोग जाति विशेष के लिए प्रचलन में आया.  उपलब्ध तथ्यों से पता चलता है कि दलित शब्द का उल्लेख सबसे पहले 1831 की “मोल्सवर्थ डिक्शनरी” में मिलता है. पढने में आता है कि 1921 से 1926 के बीच “दलित” शब्द का इस्तेमाल समाज सुधारक “स्वामी श्रद्धानंद” ने भी किया था.  दिल्ली में “दलितोद्धार सभा” बनाकर उन्होंने दलितों के सामाजिक स्वीकृति की वकालत की थी.
               
                साल 1972 में महाराष्ट्र में “दलित पैंथर्स मुंबई” नाम का एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनाया गया. आगे चलकर इस संगठन ने एक आंदोलन का रूप ले लिया. नामदेव ढसाल, राजा ढाले और अरुण कांबले इसके प्रमुख नेता रहे  हैं. इसका गठन अफ्रीकी-अमेरिकी ब्‍लैक पैंथर आंदोलन से प्रभावित होकर किया गया था. यहीं से दलितशब्द को महाराष्ट्र में सामाजिक स्वीकृति मिली .
              
                उत्तर भारत में दलित शब्द को  कांशीराम ने प्रचलित किया.  "DS4" का गठन कांशीराम ने किया था जिसका अर्थ है “दलित शोषित समाज संघर्ष समिति”. इसके बाद ही उत्तर भारत  में  पिछड़ों और अति-पिछड़ों को दलित कहा जाने लगा.  मायावती हमेशा अपने आपको दलित की बेटी कहती हैं . 1929 में लिखी एक कविता में मेरे प्रिय कवी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी दलितशब्द का इस्तेमाल किया है , जो इस बात की पुष्टि करता है कि ये शब्द तब प्रचलन में था.  इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि इस शब्द का प्रयोग दीन-दुखी के सन्दर्भ में किया गया था या किसी जाति विशेष के सन्दर्भ में. कविता कुछ ऐसी है:

“दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये
प्रभु
, तुम्हारी शक्ति वरुणा।

हरे तन मन प्रीति पावन
,
मधुर हो मुख मनभावन
,
सहज चितवन पर तरंगित
हो तुम्हारी किरण तरुणा

देख वैभव न हो नत सिर
,
समुद्धत मन सदा हो स्थिर
,
पार कर जीवन निरंतर
रहे बहती भक्ति वरूणा।“

               हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव में दलित शब्द ने ज़ोर पकड़ा. दोनों ही प्रत्याशी “ श्री कोविंद “ और “मीरा कुमार” अपने आप को दलित बताते रहे और इनके समर्थक भी इन्हें दलित बताते रहे. कहीं चर्चा में मैंने कहा था कि काश जाति  के स्थान पर इनके गुणों की चर्चा होती.  मीडिया ने भी इस बात को खूब हवा दी. एक खबर की तो हैडिंग ही थी “इस बार राष्ट्रपति चुनाव कोई भी जीते देश का राष्ट्रपति दलित ही बनेगा.”  जबकि 2008 में नेशनल एससी कमीशन ने निर्देश जारी कर दलित शब्द के इस्तेमाल पर आधिकारिक रोक लगा दी थी.


               बहरहाल कल
22 जनवरी 2018 को दिया गया मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का यह निर्णय स्वागत योग्य है कि जाति विशेष के लिए दलित शब्द का प्रयोग न किया जाए, क्योंकि ऐसे शब्दों से वर्ग भेद को ही बढ़ावा मिलता है. और यह शब्द अपमान जनक भी है. लेकिन मेरे देखे दलित शब्द का उपयोग वर्तमान समय में जाति विशेष के लोग स्वयं ही स्वयं के लिए कर रहे हैं या राजनैतिक फायदे के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है. जैसा कि राष्ट्रपति चुनाव में देखने को मिला. हाईकोर्ट को यह भी स्पष्ट करना चाहिए था कि यदि कोई व्यक्ति स्वयं के लिए इस शब्द का प्रयोग करे या कोई राजनैतिक पार्टी इस शब्द का प्रयोग राजनैतिक लाभ के लिए करे तो क्या उनको भी कोई सजा दी जा सकेगी या जुर्माना लगाया जा सकेगा. 

(c) मनमोहन जोशी..

रविवार, 21 जनवरी 2018

सखि, वसंत आया !




                          रविवार की सुबह है...आज देर से जागता हूँ... जाग कर भी कुछ देर बिस्तर पर पड़ा रहता हूँ.... कल रात देर तक लिखता रहा था ... दो बजे के आस पास सो पाया.... उस पर भी कई विचार देर तक पीछा करते रहे थे. कानों में कूकर के सिटी की आवाज़... कुछ तो पक रहा है. लाइफ पार्टनर से पता चला इडली बन रही है.

                       चाय पीते हुए अखबार देखता हूँ तो पता चलता है कल वसंत पंचमी है... वसंत ने दस्तक दे दी और पता तक नहीं चला. अभी तक तो आम के पेड़ में बौर भी नहीं आए. कहीं पलास और टेसू के फूल भी नहीं दिखे. इस बार लगता है वसंत ने पिछले दरवाज़े से एंट्री ली है.   

                      सोचता हूँ पहले ऋतुओं के बदलने पर दिनचर्या बदल जाती थी. ऋतु का बदलना हमारे जीवन में प्रतिबिंबित होता था. गीतों और व्यवहार में ढलता था. मशीनी दुनिया में खासकर शहरों से यह अपनापा खो रहा है. अब मौसम केवल कैलेंडर में ही बदलते हैं, जीवन तो एक समान गति से चल रहा है. हमारे जैसे शहरी इंसान का आसमान फ्लैट में ही कैद हो गया है और घर में बौने पेड़ उग आए हैं. कुछ लोग हमारे हिस्से का सूरज भी खा गए हैं. मेरे देखे पौधे ही नहीं अब इंसान भी बोन्साई हो रहे हैं.

                    आज हमारे जीवन से वसंत खो रहा है क्योंकि जीवन का ताना - बाना प्रकृति के दोहन पर खड़ा है. जिन शहरों में आकाश खो रहा है, वहाँ मदमाती वासंती हवा का स्पर्श मिलना कठिन है. नगरों में रहने वालों का हर दिन, हर सुबह एक जैसी ही है. मोनोटोनस जीवन चर्या के चलते लोगों को वसंत की आहट सुनाई नहीं पड़ती. 

                   बहरहाल वसंत से मेरा जुड़ाव ऐसा है कि वसंत की आहट को मैं समय पर महसूस कर सकता हूँ. जगह-जगह टेसू, पलाश खिल जाते हैं, आम के वृक्ष में बौर आ जाते हैं, शीतल मन्द सुरभित हवा हवा बहने लगती है, मन में कुछ प्रसन्न होने लगता है. प्रकृति के साथ साथ भीतर भी कुछ पुनर्जीवित होता हुआ सा महसूस होता है.

                  वसंत को यूँ ही ऋतुराज नहीं कहा गया है. वैदिक साहित्य में भी वसंत का व्यक्तीकरण करते हुए इसे सुदर्शन, अति आकर्षक, सन्तुलित शरीर वाला, आकर्षक नैन-नक्श वाला, अनेक फूलों से सजा, आम की मंजरियों को हाथ में पकड़े रहने वाला, मतवाले हाथी जैसी चाल वाला आदि गुणों से भरपूर बताया है. भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं को ऋतुओं में वसंत कहा है.

                 मेरे देखे प्रकृति में होने वाले हर बदलाव का हमारे जीवन पर  सीधा प्रभाव पड़ता है. वसंत हमें जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और उत्साह का संदेश देता है. प्रकृति का यह परिवर्तन इस बात की ओर इशारा है कि परिवर्तन ही जीवन है. लगातार अपने में सकारात्मक बदलाव ज़रुरी है. पतझड़ के बाद वसंत का आगमन इस बात का भी परिचायक है कि दुःख की घड़ी में धैर्य धारण करिए, सुख के क्षण आने ही वाले हैं. महसूस करें अपने वसंत को.


महाप्राण निराला के शब्दों में :

सखि, वसंत आया !

भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया
सखि, वसंत आया !

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर तरु-पतिका,
मधुप-वृंद बंदी
पिक-स्वर नभ सरसाया
सखि, वसंत आया !

लता-मुकुल हार गंध-भार भर,
बही पवन बंद मंद मंदतर
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया
सखि, वसंत आया !

आवृत सरसी उर सरसिज उठे
केशर के केश कली के छुटे
स्वर्ण शस्य अँचल
पृथ्वी का लहराया
सखि, वसंत आया !

(c) मनमोहन जोशी  

शनिवार, 20 जनवरी 2018

समता का अर्थ ....


                             एक एड आजकल विभिन्न चैनल्स में देखने को मिल रहा है. एक लड़की टैक्सी से जा रही है, रात का वक्त है, उसके फ़ोन की घंटी बजती है, फ़ोन के दूसरी ओर लड़की का पिता है .
पिता : कहाँ हो ?
लड़की :ऑफिस में काम ज्यादा था. टैक्सी से निकली हूँ. थोड़ी देर में घर पहुँच जाउंगी.
पिता : रात के 12 बज रहे हैं टैक्सी से क्यूँ?
    
              लड़की, पिता की बात ड्राईवर से करवाती है. ड्राइविंग सीट पर एक महिला बैठी हुई है. महिला एवं बाल कल्याण विभाग, भारत सरकार द्वारा यह प्रचारित किया जा रहा है कि समाज में जितनी ज्यादा महिलायें होंगी समाज उतना ही ज्यादा सुरक्षित होगा.  पिछले दिनों एक और समाचार पढने को मिला कि दुबई में कोई कार शो रूम खुला है जहां पुरुषों का प्रवेश वर्जित है. इसी महीने पंद्रह जनवरी के दिन मुंबई के माटुंगा रेलवे स्टेशन को पूरी तरह आल वुमन स्टेशन घोषित कर दिया गया है . अर्थात एक ऐसा रेलवे स्टेशन जहां कोई पुरुष कर्मचारी किसी भी पद पर कार्यरत नहीं है. एक   भ्रामक प्रचार किया जा रहा है. ग़लत बात लोगों के मन में बैठाई जा रही है. हमें ये समझना होगा कि कोई भी व्यक्ति जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय या उसके रंग से अच्छा या बुरा नहीं होता उसकी नियत ही उसे अच्छा या बुरा बनाती है.   
   
              आजकल समता शब्द को गलत अर्थों में लिया जा रहा है. समान का अर्थ बिल्कुल एक जैसा होना नहीं है. मैं किसी के समान नहीं हूँ, कोई किसी के समान नहीं है.  मैं समता की इस अवधारणा का बिलकुल समर्थन नहीं करता. मेरे देखे हम सब यूनिक हैं द मास्टरपीस क्रिएटेड बाय दी ऑलमाइटी”. जिस समता की बात की जानी चाहिए उसका  तात्पर्य  समान अवसर तथा समान इज्जत से है. अब सवाल यह है कि तय कौन करेगा कि महिला और पुरुष में से किसे क्या करना चाहिए? यह पहले से क्यों तय किया जाए कि एक पुरुष क्या करे या एक स्त्री क्या करे? यह योग्यता, क्षमता और रूचि से ही तय होना चाहिए. एक स्त्री को पुरुषों की तरह बनाने की कोशिश करने की बजाय हमें समाज और दुनिया की संरचना इस तरह करनी चाहिए, कि पौरुष और स्त्रैण के लिए बराबरी और सम्मान की भूमिका हो.
      
               पहले पुरुषों का वर्चस्व था और महिलाएं  शोषित हो रहीं थी... अब क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया का समय आ गया मालूम पड़ता है.  जब महिलाओं ने अपनी सामाजिक भूमिका को लेकर सोचना-विचारना आरंभ किया, वहीं  से स्त्री आंदोलन, स्त्री विमर्श और स्त्री अस्मिता जैसे संदर्भों पर बहस शुरु हुई. स्त्री आंदोलन में जहाँ एक ओर स्त्रियों की भूमिका को सामने लाने का प्रयास किया गया वहीं स्त्री विमर्श ने स्त्री को बहस के केंद्र में लाने का प्रयास किया. 

              स्त्री और पुरुष दोनों ही जैविक संरचना हैं यह सत्य है इन्हें बदला नहीं जा सकता. लेकिन इनकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक भूमिका का निर्धारण करते समय इनके अपने स्वतंत्र अस्तित्व के बारे में भी सोचा जाना चाहिए. स्त्री की भूमिका पर बहुत कुछ लिखा गया है. कुछ शानदार दस्तावेज हैं- मारगरेट फूलर की “Women in the Nineteenth Century”,  हैरिस्ट टेलर की  “Enfranchisement of Women”, जॉन स्टुअर्ट मिल की  “A Subjection of Women.” और यह आलेख जो मेरे द्वारा अभी लिखा जा रहा है.

          स्त्री के संदर्भ में हमेशा से माना गया कि वह एक ऑब्जेक्टहै फिर वह चाहे पाश्चात्य में किर्केगार्द हो जिन्होंने नारी को जटिल रहस्मय सृष्टि मानाया फिर नीत्शे जिसका कहना था कि नारी पुरुष का सबसे पसंदीदा या कहें कि खतरनाक खेल है”, वहीं रूसो ने स्त्री की निर्मिति पुरुष को खुश करना स्वीकारा.”  महादेवी वर्मा कहीं लिखती हैं- स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण प्रतिष्ठा चाहती है.  कारण वह जान गई है की एक का अर्थ अन्य की शोभा बढ़ाना है तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाना है, तथा दूसरे का अभिप्राय दूर से उस पुजापे को  देखते रहना है, जिसे उसे न देकर उसी के नाम पर लोग बाँट लेंगे.

          हमें समझना होगा, स्त्री और पुरुष शरीर की बनावट में केवल एक गुणसूत्र ही अलग होता है.  लेकिन इस अतंर को हम स्त्री और पुरुष के पूरे अलगाव का आधार बनाते हैं जैसे कि अड़तालीस के अड़तालीस गुणसूत्र अलग अलग हों. मेरे देखे हम सब भीतर से एक सामान हैं केवल हमारे बाहरी ढाँचे ही अलग अलग हैं . स्त्री या पुरुष होना किसी को अच्छा या बुरा , कमज़ोर या ताकतवर , सक्षम या अक्षम और बुद्धिमान या मुर्ख नहीं बनाता.
           
(c) मनमोहन जोशी  

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

गणतंत्र की अवधारणा ........

           

                 


                   गणतंत्र दिवस आने को है. पिछले कई दिनों से विभिन्न माध्यमों से मेसेज प्राप्त हो रहे हैं कि गणतंत्र पर कुछ लिखिए. राकेशनाम के एक पाठक ने विशेष आग्रह किया है कि मैं अपने लेख में इस बात पर भी प्रकाश डालूं कि वास्तविक रूप में गणतंत्र की शुरुआत कहाँ से हुई है? क्या भारत में गणतंत्र की अवधारणा सबसे पहले आईतो सोचा चलो कुछ लिखा जाए.
  
                    गणतंत्र दिवस की बात करूँ तो कक्षा 12 तक मैंने गणतंत्र दिवस का कोई कार्यक्रम टीवी पर नहीं देखा था. क्यूंकि कक्षा 4 और 5 में मैं पीटी करते हुए, कक्षा 6 और 7 में स्काउट गाइड में शामिल होकर, कक्षा  8 और 9 में NCC कैडेट के रूप में तथा कक्षा 10, 11 और 12 में संगीत प्रस्तुति देने हेतु गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होता रहा. बहरहाल अधिकाँश लोग गणतंत्र और लोकतंत्र में अंतर नहीं कर पाते. तो शुरुआत यहीं से करते हैं कि  इन दोनों में क्या भेद है. तो गणतंत्र”, शासन की ऐसी प्रणाली है जिसमें राष्ट्र के मामलों को सार्वजनिक माना जाता है. राष्ट्र का मुखिया वंशानुगत नहीं होता है. उसको प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित या नियुक्त किया जाता है. जबकि लोक तंत्र में जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का साशन किया जाता है.
  
                     आधुनिक अर्थो में गणतंत्र से आशय सरकार के उस रूप से है जहां राष्ट्र का मुखिया वंशानुगत नहीं होता है. जहां तक मुझे जानकारी है, वर्तमान में दुनिया के 206 संप्रभु राष्ट्रों में से 135 देश आधिकारिक रूप से अपने नाम के साथ रिपब्लिकशब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं.
   
                   उपलब्ध तथ्यों की बात करें तो मध्ययुगीन उत्तरी इटली में कई ऐसे राज्य थे जहां राजशाही के बजाय कम्यून आधारित व्यवस्था थी. सबसे पहले इतालवी लेखक गिओवेनी विलेनीने इस तरह के प्राचीन राज्यों को लिबर्टिस पापुलीअर्थात स्वतंत्र लोगकहा. 15वीं शताब्दी में  इतिहासकार लियोनार्डो ब्रूनीने इस तरह के राज्यों को रेस पब्लिकानाम दिया. लैटिन भाषा के इस शब्द का अंग्रेजी में अर्थ है पब्लिक अफेयर्सअर्थात सार्वजनिक मामले. माना जाता है कि इसी से रिपब्लिक शब्द की उत्पत्ति हुई है जिसे हिंदी में गणतंत्र कहा जाता है.
   
                  भले ही इतिहासकार गणतंत्र शब्द की उत्पत्ति पश्चिम में मानते रहे हों लेकिन भारत के प्राचीनतम साहित्यों में लगातार गणतंत्र शब्द आता रहा है. वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर गणतंत्रीय व्यवस्था थी. मुझे लगता है कालांतर में गणतंत्रीय व्यवस्था में कुछ दोष उत्पन्न हुए होंगे और राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव राजतंत्र की तरफ होने लगा होगा.
  
                 महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें करदेने वाले राज्य बनाने का उल्लेख मिलता है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि गणराज्यों का उल्लेख मिलता है. यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का उल्लेख अपने लेखन में किया है. ऋग्वेद में भी गण और जन का बराबर उल्लेख मिलता है.  महाभारत के शांतिपर्व में युधिष्ठिर ने शरशैय्या पर पड़े भीष्म से पूछा - आदर्श गणतंत्र की परिभाषा क्या है?” गणतंत्र के मूल शब्द गण की अवधारणा अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य और आचार्य पाणिनी की रचनाओं में भी वर्णित है. तब समाज के प्रतिनिधियों के दलों को गण कहा जाता था और यही मिलकर सभा और समितियां बनाते थे. विदेशियों को गण नहीं माना जाता था.

                बौद्ध साहित्य में सफल गणराज्य के सात आधारों का उल्लेख मिलता है जो निम्न लिखित है : 1) सभाएं करना जिसमें अधिक से अधिक सदस्यों का भाग ले सकें.  2) राज्य के कामों को मिलजुल कर पूरा करना. 3) कानूनों के पालन को सुनिश्चित करना.  4) वृद्धों के विचारों का सम्मान करना. 5) महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार न करना. 6) स्वधर्म में दृढ़ विश्वास रखना. तथा 7) कर्तव्य  पालन करना.

                गणतंत्र की बात करें और प्लेटो तथा उनकी कृति रिपब्लिकका उल्लेख न हो तो ग़लत होगा. प्लेटो ने रिपब्लिकमें गणको कुल तीन भागों में विभाजित किया है. पहला- दास. दूसरे- दस्तकार, हस्तशिल्पी जैसे काष्ठकार, बुनकर, चर्मकार, दुकानदार, छोटे व्यवसायी, जो उत्पादन विपणन के लिए जिम्मेदार होते हैं. और तीसरे संरक्षक वर्ग. यह व्यवस्था कुछ कुछ भारत की वर्ण व्यवस्था की तरह मालूम पड़ती है .

                प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य के सर्वोच्च शासनाधिकारी के रूप में दार्शनिक सम्राटको रखा है. सम्राट केवल वही बन सकता है जो बुद्धि, विवेक, साहस, ज्ञान, समानता,दयालुता, निष्पक्षता आदि मानवीय गुणों से संपन्न हो. यह बात समझने लायक है कि प्लेटो अपनी कृतियों  रिपब्लिकएवं दि स्टेट्समेनमें एक ओर जहां राष्ट्र प्रमुख के रूप में दार्शनिक सम्राट का उल्लेख करते हैं तो वहीं दूसरी ओर अपनी कृति लॉजमें वह संरक्षक वर्ग में से चुने गए प्रतिनिधि मंडल को राज्य की बागडोर सौंपने का समर्थन करते पाए जाते हैं. मेरे देखे लॉजतक आतेआते प्लेटो को लगने लगा होगा कि कुछेक व्यक्तियों के हाथ में सत्ता का सिमटना घातक हो सकता है , इसके निदान के लिए वह प्रतिनिधि मंडल के हाथों में सत्ता सौंपने का विचार प्रस्तुत करते हैं. जो वर्तमान गणतंत्र की अवधारणा के निकट मालूम पड़ती है.

                वैसे इतिहास मेरा विषय नहीं रहा है लेकिन कहीं पढ़ा था कि सन् 1929 में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार द्वारा 26 जनवरी 1930 तक भारत को ब्रिटिश साम्राज्य में ही स्वशासित इकाई नहीं बनाया जाता, तो भारत अपने को पूर्णतः स्वतंत्र घोषित कर देगा.

                  26 जनवरी 1930 तक जब अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ कर दिया. उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा. इसके पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन 15 अगस्त को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया. संविधान निर्माण हेतु एक संविधान सभा का गठन किया गया जिसने अपना कार्य 9 दिसम्बर 1946 से आरम्भ किया.

                संविधान सभा में कुल 22 समितीयां थीं. प्रारूप समिति जिसके अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर थे, ने 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में भारतीय संविधान का निर्माण किया और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को 26 नवम्बर 1949 को भारत का संविधान सौंप दिया.  इसलिए 26 नवम्बर को भारत में संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है. 

                 संविधान सभा ने संविधान निर्माण के समय कुल 114 दिन बैठक की. इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी. अनेक सुधारों और बदलावों के बाद सभा के 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को संविधान की दो हस्तलिखित कॉपियों पर हस्ताक्षर किये. इसके दो दिन बाद 26 जनवरी को यह देश भर में लागू हुआ. 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए इसी दिन को तब से गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जा रहा है.


(C) मनमोहन जोशी {MJ}



रविवार, 14 जनवरी 2018

पतंगोत्सव की शुभकानाएं ....









                  कुछ दिनों से whats app में मेसेज आ रहे हैं की पतंग बाजी के क्या नुकसान हो सकते हैं... पर्यावरण और पंछियों को किस तरह से नुक्सान पहुँचता है. मांजे से कैसे पंछी कट जाते हैं आदि आदि... कुछ लोग तो चिकेन बिरियानी और मटन कबाब खाते खाते ऐसे अहिंसात्मक मेसेज फॉरवर्ड करते रहते हैं.
  
               बहरहाल पतंग उड़ाना मुझे भी बहुत पसंद है.  मैंने जीवन की पहली पतंग किस उम्र में उड़ाई ये मुझे नहीं पता ठीक वैसे ही दुनिया की पहली पतंग किसने बनाई और कहाँ उड़ाई गई इस बारे में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है. उपलब्ध तथ्यों से पता चलता है पतंग बाजी का इतिहास हजारों  वर्ष पुराना है और इसकी शुरुआत शायद चीन में हुई थी. चीन से निकल कर यह खेल विश्व भर में फैला ऐसी मान्यता है.
  
                वर्तमान समय में भी चीन में पतंगबाजी का महत्त्व बना हुआ है . वहाँ प्रत्येक वर्ष 9 सितम्बर की तारीख को पतंगोत्सव  मनाया जाता है. अमेरिका में  भी रेशमी कपड़े और प्लास्टिक से बनी पतंगें उड़ाई जाती हैं. वहाँ हर वर्ष जून के महीने में पतंगोत्सव का आयोजन किया जाता है. जापानी मान्यता के अनुसार पतंग उड़ाने से देवता प्रसन्न होते हैं. जापान में हर वर्ष मई माह में पतंगोत्सव मनाया जाता है. भारत में हर वर्ष 14 जनवरी, मकर संक्रांति के दिन को पतंगोत्सव के रूप में मनाया जाता है.
  
                जब मैं छोटा था तब बड़े भैया के साथ पतंग उड़ाता था. कई तरह के पतंग होते थे जैसे नागिन पतंग , भर्रा पतंग, लिपकी पतंग आदि. मांजा हम घर पर ही सूतते थे और अखबार की पतंग भी हम बना लेते थे. मांजा बनाने का अपना पूरा विज्ञान है और पतंग उड़ाने का भी. कमानी कैसी है और ज्योत कैसी बाँधी गई है इस बात का पूरा असर पतंग के उड़ने या न उड़ने पर पड़ता है, यह बात बड़े भैया से ही सीखी थी. कालांतर में जोधपुर में भी मैंने बहुत पतंग उड़ाई.    
  
               मेरे देखे पतंग बाजों की तीन केटेगरी होती है  पतंग उड़ाने वाले , पतंग लड़ाने वाले और पतंग लूटने वाले. मैं पहले तरह की  केटेगरी को बिलोंग करता हूँ . पेंच लड़ाना पतंगबाजी का एक खास हिस्सा है. साधारणतः लोगों का मानना है कि पतंग लड़ाने में (आम बोलचाल में पेंच लड़ाना) में वही जीतता है जिसका मांजा ज्यादा तेज़ हो. मेरे देखे यह एक भ्रम है. पेंच लड़ाने में कई चीज़ों का अहम् योगदान होता है जैसे: पतंग का संतुलित होनापतंगबाज़ का अनुभव, दूसरे की डोर काटने के लिए खुद की पतंग को खूब तेजी से अपनी ओर खींचते जाना या बहुत तेजी से ढील देते जाना और साथ में झटका या ठुनकी देना. डोर को फुर्ती से लपेटने वाले तथा ज़रूरत पड़ने पर निर्बाध रूप से छोड़ते जाने वाले असिस्टेंट की भूमिका भी इस समय बहुत ही ख़ास होती है. जैसे ही एक डोर कटती है, उसे थामने वाले हाथों को मालूम पड़ जाता है. पतंग की ख़ास बात यह है की वह हवा के विपरीत दिशा में ऊपर उठती है. पतंग का ऊपर उठना धागे पर पडने वाले तनाव पर निर्भर करता है . पतंग आमतौर पर हवा से भारी होती है, लेकिन हवा से हल्की पतंग भी होती है, जिसे 'हैलिकाइट' कहा जाता है. ये पतंगें हवा में या हवा के बिना भी उड़ सकती हैं.

              भारत में पतंग उड़ाने का शौक़ अति प्राचीन है. रामचरितमानस में महाकवि तुलसीदास ने ऐसे प्रसंगों का उल्लेख किया है, जब श्रीराम ने अपने भाइयों के साथ पतंग उड़ाई थी जैसे 'बालकांड' में बाबा तुलसी लिखते हैं :


"राम इक दिन चंग उड़ाई.
 इंद्रलोक में पहुँची जाई..
  
जासु चंग अस सुन्दरताई.
 सो पुरुष जग में अधिकाई.."

अर्थात : श्रीराम भाइयों और मित्र मंडली के साथ पतंग उड़ाने लगे. वह पतंग उड़ते हुए देवलोक तक जा पहुँची. उस पतंग को देख कर इंद्र के पुत्र जयंत की पत्नी बहुत आकर्षित हुई. उसने सोचा की जिसका पतंग इतना खूबसूरत है वह पुरुष कैसा होगा.


पतंगोत्सव की शुभकामनाएँ :


(c) मनमोहन जोशी 

शनिवार, 6 जनवरी 2018

काला दिन ......





                              कल इंदौर में जो कुछ भी घटा वो भीतर से झकझोर देने वाला है.. लेकिन इन सब का दोष भाग्य को दे देने और संवेदनाएं ज़ाहिर कर देने भर से ही इति श्री नहीं हो जायेगी. अगर ट्रैफिक रूल्स को लेकर हम 1 प्रतिशत भी ज्यादा समझदार हो सके तो बात बनेगी. पिछले दिनों एक समारोह में इंदौर शहर की मेयर श्रीमती मालिनी गौड़ जी से मुलाक़ात के दौरान मैंने उनसे कहा था कि स्वछता में तो इंदौर नंबर 1 बन गया है अब थोडा ट्रैफिक भी व्यवस्थित हो जाए तो बात बने. 

          सड़क हादसों और उनमें मरने वालों की बढ़ती संख्या के आंकड़ों ने लोगों की चिंता तो बढ़ाई ही है लेकिन एक ज्वलंत प्रश्न भी खड़ा किया है कि नेशनल हाइवे से लेकर राजमार्ग और आम सड़कों पर सर्वाधिक खर्च होने एवं व्यापक परिवहन नीति बनने के बावजूद ऐसा क्यों हो रहा हैनई बन रही सड़कों की गुणवत्ता और इंजीनियरिंग पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं. प्रधानमंत्री सड़क एप का एड देखिये, उसमें बताया जाता है कि  जहां कहीं भी आपको खराब सड़क दिखे उसका फोटो खिंच कर एप में डाल दें ... अगर ऐसा करने लगे तो कभी गंतव्य तक शायद ही पहुँच पायें .

           सड़क हादसों में मरने वालों की बढ़ती संख्या ने एक महामारी का रूप ले लिया है. एक रिसर्च के मुताबिक़ भारत में हर वर्ष  6700 बच्चे सड़क हादसे के शिकार होते हैं. हमें तय करना होगा कि अपने आप को कहां रोकना है. हम परिस्थितियों और हालातों को दोषी ठहराकर बचने का बहाना कब तक ढूंढते  रहेंगेप्रतिकूलताओं से लडऩे के ईमानदार प्रयत्न करने होंगे. अगर 15 साल पुरानी गाडी की स्टीयरिंग फ़ैल हो जाने के कारण या ड्राईवर के लापरवाही पूर्वक गाडी चालने के कारण एक्सीडेंट होता है तो इसके लिए भाग्य दोषी नहीं है. ये तो स्पष्ट हत्या का मामला है.... जिम्मेदारियां तय करनी होगी.
              सड़क दुर्घटनाओं पर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े दिल दहलाने वाले हैं. पिछले वर्ष सड़क हादसों में हर घंटे 16 लोग मारे गए. पिछले दस साल की अवधि में सड़क हादसों में होने वाली मौतों में साढ़े 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
            
             ज्यादातर मौतों का कारण रही है: तेज और लापरवाह ड्राइविंग, नए वाहनों की बढती संख्या, सड़क मार्गों की खस्ता हालत, नौसिखिए चालक. नशे में ड्राइविंग, लैक ऑफ़ ट्रैफिक एजुकेशन,आगे निकलने की होड़, ट्रक ड्राइवरों की अनियमित एवं लम्बी ड्राइविंग, तथा वाहनों की जर्जर दशा आदि. सवारी वाहनों में क्षमता से ज्यादा सवारियां बैठाना और मालवाही वाहनों में ओवर लोडिंग और जगह से ज्यादा रखी लोहे की सरियाँ इत्यादि भी सड़क दुर्घटनाओं के मुख्य कारण  हैं.
             विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि हर साल सड़क दुर्घटनाओं में लगभग 12.5 लाख लोगों की मौत होती है. डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार  विश्वभर में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण सड़क दुर्घटनाएं हैं. और मरने वालों में विशेष रूप से गरीब देशों के गरीब लोगों की संख्या में अविश्वसनीय रूप से वृद्धि हुई है. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि एक विशाल अंतर उच्च आय वाले देशों को कम और मध्य आय वाले देशों से अलग करता है.
            सड़क दुर्घटना से सुरक्षा के लिये देश के प्रत्येक नागरिक को अब जागरूक होना पड़ेगा, जिससे न केवल दुर्घटना में कमी आएगी बल्कि लोग दूसरो की मदद को आगे आयेंगे.  ट्रैफिक नियमों की जानकारी और सावधानी ही सड़क दुर्घटना से सुरक्षा की कुंजी हो सकती है. सड़क दुर्घटना से बचाव के लिये जागरूकता अत्यधिक आवश्यक है .
             मेरे देखे तीन तरह की शिक्षाओं को स्कूल एजुकेशन का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए: 1) यौन शिक्षा  2) विधिक शिक्षा और 3)यातायात शिक्षा. अकबर का बाप कौन था ये जानकारी  व्यावहारिक जीवन में किसी काम की दिखाई नहीं पड़ती. शायद यातायात नियमों की जानकारी से दुर्घटनाओं में कुछ कमी आये.

- (c) मनमोहन जोशी

सोमवार, 1 जनवरी 2018

मेरे मन की ....




                    कुछ दिनों के लिए मेरी सास इंदौर आई हुई हैं... वो दोनों पैरों से लाचार हैं साधारण तौर पर ऐसे लोगों के लिए विक्लांग शब्द का उपयोग किया जाता रहा है. अब उनके लिए नया शब्द गढ़ लिया गया है दिव्यांग. मेरे देखे विक्लांगता कोई दैवीय उपहार नहीं है यह एक अभिशाप ही है. दिव्यांग  जैसे शब्दों के इस्तेमाल से मुझे आपत्ति है क्यूंकि ऐसे शब्द गढ़ लेने भर से ही विक्लांगों के साथ भेदभाव खत्म नहीं किया जा सकेगा.

                    मेरे देखे इस सम्मानजनक संबोधन से उनकी समस्याओं में कोई कमी नहीं आयी है. अधिकतर सार्वजनिक जगहों पर उनके लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव है. आधुनिक होने का दावा करने वाला समाज अब तक विकलांगों के प्रति अपनी बुनियादी सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं ला पाया है. ये लोग मज़ाक या हंसी के पात्र हैं. अधिकतर लोगों के मन में विक्लांगों के प्रति तिरस्कार या दया भाव ही रहता है.. यह दोनों भाव  स्वाभिमान पर चोट करते हैं. दिव्यांग कह भर देने से इनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आएगा. यह केवल छलावा है. मेरे देखे विक्लांगों के प्रति अपनी सोच और मानसिकता को बदलने का समय आ गया है. पिछले दिनों विक्लांगों से सम्बंधित योजनाओं के क्रियान्वयन की सुस्त चाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को फटकार लगायी है.

                    भारत में लगभग ढाई करोड़ लोग विक्लांगता से जूझ रहे हैं. इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद इनकी परेशानियों को समझने और उन्हें जरूरी सहयोग देने में सरकार और समाज दोनों नाकाम दिखाई देते हैं. हमने विक्लांगों और थर्ड जेंडर के अस्तित्व को अस्वीकार सा कर दिया है.

                    विक्लांगता की समस्या से दो चार हो रहे लोगों के लिए जो न्यूनतम आवश्यक सुविधाएं सार्वजानिक जगहों पर होनी चाहिए, उसका अभाव लगभग सभी शहरों में है. अस्पताल, शिक्षा संस्थान, पुलिस स्टेशन जैसी जगहों पर भी उनके लिए टॉयलेट या व्हील चेयर या कोई बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं.

                    मोदी सरकार के एक्सेसिबल इंडिया कैंपेन' यानी सुगम्य भारत अभियानके तहत किए गये एक सर्वे में मुंबई के 51 सार्वजानिक स्थानों की पड़ताल की गयी. लगभग अस्सी फीसदी स्थानों पर रैम्प नहीं पाया गया. किसी भी बिल्डिंग में विकलांगों के लिए अलग से पार्किंग की व्यवस्था नहीं थी. जबकि अधिकतर इमारतों में निर्धारित मानकों के अनुसार विक्लांगों के लिए शौचालय तक नहीं पाया गया. एक्सेसिबल इंडिया कैंपेन के जरिये सरकार विक्लांगों के लिए सक्षम और बाधारहित वातावरण तैयार करने पर जोर दे रही है. इस अभियान के तहत जुलाई 2018 तक राष्ट्रीय राजधानी और राज्य की राजधानियों की कम से कम 50 सरकारी इमारतों को दिव्यांगों के लिए पूरी तरह उपयोग' लायक बनाए जाने का प्रावधान है.

                   मेरे देखे विक्लांग को दिव्यांग कह देने भर से समस्याएँ समाप्त नहीं होंगी.अवरोध मुक्त वातावरण के निर्माण के लिए सरकार को यथा शीघ्र निम्नलिखित सुझावों को अपनाना चाहिए:

 1. सार्वजनिक भवन, परिवहन सुविधाएं, सड़क, फुटपाथ, रेलवे प्लेटफॉर्म, बस स्टॉप,बंदरगाह, हवाई अड्डे, बसट्रेनवायुयान तथा जहाजों, खेल के मैदानखुले स्थान इत्यादि को विक्लांगों के लिए आसानी से पहुंच लायक बनाया जाए.

2 संकेत भाषा को बुनियाद शिक्षा में शामिल किया जाए.

3. विक्लांगों के लिए अवरोध मुक्त भवन बनाने हेतु इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम में सुधार लाया जाए.

4  सार्वजनिक भवनों में व्यापक सुधार कर उन्हें  अवरोध मुक्त किया जाए.

5  राज्य परिवहन उपक्रम, अपने वाहनों में विक्लांग व्यक्तियों के लिए सुविधाजनक परिवर्तन लाएं.

6. रेलवे योजनाबद्ध तरीके से अवरोध मुक्त कोचों की शुरुआत करे.

 7. दृष्टि विक्लांगों को सूचना प्रदान करने के लिए ब्रेल, टेप-सर्विस, बड़े प्रिंट तथा अन्य उचित तकनीकों का इस्तेमाल किया जाए.

                    इन उपायों को यथाशीघ्र अमल में ला कर ही हम सही मायनों में विकास के पथ पर आगे बढ़ सकेंगें.....सरकार के साथ हमें भी संवेदनशील होना होगा... सोचता हूँ कि sensodyne के अधिक इस्तेमाल से ही तो हमारी संवेदनशीलता नहीं मर गई है????

(c) मनमोहन जोशी, MJ