Diary Ke Panne

शनिवार, 20 जनवरी 2018

समता का अर्थ ....


                             एक एड आजकल विभिन्न चैनल्स में देखने को मिल रहा है. एक लड़की टैक्सी से जा रही है, रात का वक्त है, उसके फ़ोन की घंटी बजती है, फ़ोन के दूसरी ओर लड़की का पिता है .
पिता : कहाँ हो ?
लड़की :ऑफिस में काम ज्यादा था. टैक्सी से निकली हूँ. थोड़ी देर में घर पहुँच जाउंगी.
पिता : रात के 12 बज रहे हैं टैक्सी से क्यूँ?
    
              लड़की, पिता की बात ड्राईवर से करवाती है. ड्राइविंग सीट पर एक महिला बैठी हुई है. महिला एवं बाल कल्याण विभाग, भारत सरकार द्वारा यह प्रचारित किया जा रहा है कि समाज में जितनी ज्यादा महिलायें होंगी समाज उतना ही ज्यादा सुरक्षित होगा.  पिछले दिनों एक और समाचार पढने को मिला कि दुबई में कोई कार शो रूम खुला है जहां पुरुषों का प्रवेश वर्जित है. इसी महीने पंद्रह जनवरी के दिन मुंबई के माटुंगा रेलवे स्टेशन को पूरी तरह आल वुमन स्टेशन घोषित कर दिया गया है . अर्थात एक ऐसा रेलवे स्टेशन जहां कोई पुरुष कर्मचारी किसी भी पद पर कार्यरत नहीं है. एक   भ्रामक प्रचार किया जा रहा है. ग़लत बात लोगों के मन में बैठाई जा रही है. हमें ये समझना होगा कि कोई भी व्यक्ति जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय या उसके रंग से अच्छा या बुरा नहीं होता उसकी नियत ही उसे अच्छा या बुरा बनाती है.   
   
              आजकल समता शब्द को गलत अर्थों में लिया जा रहा है. समान का अर्थ बिल्कुल एक जैसा होना नहीं है. मैं किसी के समान नहीं हूँ, कोई किसी के समान नहीं है.  मैं समता की इस अवधारणा का बिलकुल समर्थन नहीं करता. मेरे देखे हम सब यूनिक हैं द मास्टरपीस क्रिएटेड बाय दी ऑलमाइटी”. जिस समता की बात की जानी चाहिए उसका  तात्पर्य  समान अवसर तथा समान इज्जत से है. अब सवाल यह है कि तय कौन करेगा कि महिला और पुरुष में से किसे क्या करना चाहिए? यह पहले से क्यों तय किया जाए कि एक पुरुष क्या करे या एक स्त्री क्या करे? यह योग्यता, क्षमता और रूचि से ही तय होना चाहिए. एक स्त्री को पुरुषों की तरह बनाने की कोशिश करने की बजाय हमें समाज और दुनिया की संरचना इस तरह करनी चाहिए, कि पौरुष और स्त्रैण के लिए बराबरी और सम्मान की भूमिका हो.
      
               पहले पुरुषों का वर्चस्व था और महिलाएं  शोषित हो रहीं थी... अब क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया का समय आ गया मालूम पड़ता है.  जब महिलाओं ने अपनी सामाजिक भूमिका को लेकर सोचना-विचारना आरंभ किया, वहीं  से स्त्री आंदोलन, स्त्री विमर्श और स्त्री अस्मिता जैसे संदर्भों पर बहस शुरु हुई. स्त्री आंदोलन में जहाँ एक ओर स्त्रियों की भूमिका को सामने लाने का प्रयास किया गया वहीं स्त्री विमर्श ने स्त्री को बहस के केंद्र में लाने का प्रयास किया. 

              स्त्री और पुरुष दोनों ही जैविक संरचना हैं यह सत्य है इन्हें बदला नहीं जा सकता. लेकिन इनकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक भूमिका का निर्धारण करते समय इनके अपने स्वतंत्र अस्तित्व के बारे में भी सोचा जाना चाहिए. स्त्री की भूमिका पर बहुत कुछ लिखा गया है. कुछ शानदार दस्तावेज हैं- मारगरेट फूलर की “Women in the Nineteenth Century”,  हैरिस्ट टेलर की  “Enfranchisement of Women”, जॉन स्टुअर्ट मिल की  “A Subjection of Women.” और यह आलेख जो मेरे द्वारा अभी लिखा जा रहा है.

          स्त्री के संदर्भ में हमेशा से माना गया कि वह एक ऑब्जेक्टहै फिर वह चाहे पाश्चात्य में किर्केगार्द हो जिन्होंने नारी को जटिल रहस्मय सृष्टि मानाया फिर नीत्शे जिसका कहना था कि नारी पुरुष का सबसे पसंदीदा या कहें कि खतरनाक खेल है”, वहीं रूसो ने स्त्री की निर्मिति पुरुष को खुश करना स्वीकारा.”  महादेवी वर्मा कहीं लिखती हैं- स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण प्रतिष्ठा चाहती है.  कारण वह जान गई है की एक का अर्थ अन्य की शोभा बढ़ाना है तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाना है, तथा दूसरे का अभिप्राय दूर से उस पुजापे को  देखते रहना है, जिसे उसे न देकर उसी के नाम पर लोग बाँट लेंगे.

          हमें समझना होगा, स्त्री और पुरुष शरीर की बनावट में केवल एक गुणसूत्र ही अलग होता है.  लेकिन इस अतंर को हम स्त्री और पुरुष के पूरे अलगाव का आधार बनाते हैं जैसे कि अड़तालीस के अड़तालीस गुणसूत्र अलग अलग हों. मेरे देखे हम सब भीतर से एक सामान हैं केवल हमारे बाहरी ढाँचे ही अलग अलग हैं . स्त्री या पुरुष होना किसी को अच्छा या बुरा , कमज़ोर या ताकतवर , सक्षम या अक्षम और बुद्धिमान या मुर्ख नहीं बनाता.
           
(c) मनमोहन जोशी  

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