Diary Ke Panne

सोमवार, 9 जुलाई 2018

डर का मनोविज्ञान...


               कल रात मैंने डर के रसायन पर एक आलेख लिखा था. हुआ यह था कि कल मैं और श्रीमती जी “एनाबेला द क्रिएशन” देख रहे थे और उसके बाद मेरी आँखों के सामने वो सब घटनाएं तैरने तैरने लगीं जिसे उँगलियों ने लैपटॉप के माध्यम से स्क्रीन पर उतार दिया. ये पारलौकिक घटनाएँ काल्पनिक नहीं हैं. रूमी के अनुसार जो कुछ भी हम सोचते हैं उसका अस्तित्व कहीं न कहीं होता है.

             मुझे याद आता है वर्ष 2002 के आषाढ़ के एक दिन घनघोर बारिश हो रही थी. हम कुछ मित्र अपनी एक महिला मित्र का जन्मदिन मनाने उसके घर पर इकठ्ठा हुए थे. बातों बातों में मैंने उस मित्र से पूछा क्या तुम्हें कोई आत्मा वगैरह दिखाई देती है? उसने हँसते हुए बात टाल दी बोली ये क्या बकवास है? फिर पार्टी का दौर चला. केक कटिंग हुई. थोड़ी देर बाद मित्र की मम्मी मेरे पास आई और मुझे नीचे कमरे में ले गई उन्होंने पूछा तुम क्या पूछ रहे थे??
मैं- कुछ नहीं आंटी जी बस ऐसे ही??
आंटी- तुमने ऐसा क्यूँ पूछा ??
मैं – (दांत निपोरते हुए) यूँ ही.
आंटी – बेटा, इसको सही में आत्मा दिखती है. मित्र सामने ही बैठ कर रोते हुए हाँ में सर हिला रही थी.
मैं – (डरते हुए) कोई बात नहीं. लेकिन किसकी आत्मा दिखाई देती है? कब और कहाँ?
मित्र- मेरी एक छोटी बहन थी जिसकी मृत्यु
13 वर्ष की आयु में एक्सीडेंट से हो गई थी (एक तस्वीर, जिस पर फूलों की माला टंगी हुई थी, की और इशारा करते हुए उसने कहा) उसकी आत्मा. वो यहीं हमारे साथ रहती है.

उस दिन के बाद मैं कभी उस महिला मित्र के यहाँ नहीं गया.

                मुझे लगता है कि जीवन में अनजाने का ही भय होता है. जैसे भविष्य को हम नहीं जानते, तो उसका भय. परीक्षा का परिणाम क्या होगा पता नहीं, उसका भय. अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ता, उसका भय. भूत, प्रेत, आत्मा, पारलौकिक शक्तियां उनका भय. 

                लेकिन जी. कृष्णमूर्ति अपनी पुस्तक “प्रथम और अंतिम मुक्ति” में लिखते हैं कि डर ज्ञात के प्रति ही हो सकता है अज्ञात के प्रति डर  बनने का कोई कारण नहीं है. जिसे जाना नहीं उसका डर कैसा. यही कारण है कि छोटे बच्चे सांप से नहीं डरते उन्हें नहीं पता होता है कि वो क्या कर सकता है. सही मायने में एकदम छोटे बच्चे सबसे ज्यादा निडर होते हैं. जानकारी उन्हें डरपोक बनाती है. कहा भी गया है कि मुर्ख को किसी बात का भय नहीं होता.     

                   विख्यात हंगेरियन मनोवैज्ञानिक फेरेज नैडेस्डी ने अपनी पुस्तक “फियर ऑर फ्रीडम” में डर का एक अन्य कारण बताते हुए लिखा है कि डर वहीं उत्पन्न होता है जहाँ एक विशेष प्रकार के ढाँचे में जीने की चाह होती है.

                   ब्रिटिश मनःशास्त्री रिचर्ड गार्नेट ने अपनी पुस्तक “साइकोलॉजी ऑफ फियर” में लिखा है कि शारीरिक कष्ट एक स्नायुगत अभिक्रिया है किंतु डर तब उत्पन्न होता है जब व्यक्ति का किसी वस्तु से गहनतम तादात्म्य हो जाता है.

                   प्रसिद्ध मनोचिकित्सक एवं कॉसमॉस इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस  के निदेशक डॉ. सुनील मित्तल के अनुसार व्यक्ति का डर “एमिगडला” नामक हमारे मस्तिष्क के एक छोटे से हिस्से के द्वारा नियंत्रित होता है. यह हिस्सा केवल हमारी भावनात्मकता से संबंधित है. यह हमारी भावनाओं और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है. जब व्यक्ति भविष्य में होने वाली अनहोनी बातों, मौत या अतीत में हुयी दर्दनाक घटना या दुर्घटना के बारे में सोचता है तो यह भाग अत्यधिक सक्रिय हो जाता है जिससे डर उत्पन्न होता है.

                    मेरा अनुभव कहता है , सभी तरह के डर से मुक्ति का एक मात्र उपाय है अपने मन को मजबूत बनाकर डर का सामना करना.


- मन मोहन जोशी 

2 टिप्‍पणियां:

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