Diary Ke Panne

बुधवार, 18 जुलाई 2018

सच की पड़ताल....

                          
                         हमारे समकालीन व्यंग्यकार संपत सरल जी का एक प्रसिद्ध व्यंग्य है, “फेसबुक पर पांच हज़ार दोस्त हैं और परिवार में बोल चाल बंद है”. कुछ लोगों को लगता है कि फेसबुक के आने से लोग अपने पड़ोसियों से कट गए हैं, सोशल मीडिया के चलते लोगों का आपस में मिलना जुलना बंद हो गया है, इन्टरनेट के चलते बच्चों की फिजिकल एक्टिविटी कम हो गई है, आदि आदि.  तो ये कुछ प्रश्न हैं जिसकी पड़ताल हम इस आलेख में करेंगे: 1. क्या आभासी दुनिया वाकई में आभासी है? 2. क्या फेसबुक की वजह से परिवार में बोलचाल बंद है? 3. क्या फेसबुक के आने से पहले पारिवारिक जीवन खुशहाल था या लोग अपने पड़ोसियों को पहचानते थे?? 4. क्या फेसबुक या इन्टरनेट के कारण बच्चों ने खेलना बंद हो गया है?

 1. क्या आभासी दुनिया वाकई में आभासी है??:- इस प्रश्न की बुनियाद में जाने से पहले ये समझना होगा की आजकल लोग आभासी दुनिया को ही वास्तविक मानने लगे हैं ऐसा कुछ विद्वानों का कहना है. उन सभी को मैं ये बताना चाहता हूँ कि आप जिस दुनिया में हैं और जिसे वास्तविक समझ रहे हैं उसको भी बुद्धिमानों ने आभासी कहा है. उमा कहौं मैं अनुभव अपना- तुलसी दास .

 2.  क्या फेसबुक की वजह से परिवार में बोलचाल बंद है? या लोगों ने आपस में मिलना जुलना बंद कर दिया है?:- तो इसका जवाबी भी नकारात्मक ही है. जिसकी प्रवृत्ति आपस में मिलने जुलने की है वो लोग आज भी आपस में मिल जुल रहे हैं और जिनकी प्रवृत्ति नहीं है वो लोग कभी किसी से नहीं मिलते जुलते. इसका सम्बन्ध सोशल मीडिया से न होकर व्यक्ति से ही है. उदाहरण के लिए हम उस दौर में बड़े हुए हैं जब सोशल मीडिया नहीं हुआ करता था. और बड़ों को आपस में लड़ाई करते और बिना बोल चाल के रहते देखा है. पूरे मोहल्ले का एक मात्र टाइम पास था लड़ाई झगडा और गाली गलौच. धन्यवाद  इस सोशल मीडिया का अब कम से कम लोग अपने- अपने में व्यस्त तो हैं.

 3. तीसरी बात ये कि सोशल मीडिया और इन्टरनेट ने बच्चों की फिजिकल एक्टिविटी कम कर दी है:- इसका मतलब ये कि माँ बाप चाहते हैं कि बच्चा फिजिकल एक्टिविटीज में भाग ले, घर से बाहर जा कर खेले. तो इस बात को भी समझते हैं. जब हम बच्चे थे और इन्टरनेट कनेक्शन जैसी चीज़ नहीं होती थी और जब खेल कर हम वापस आते थे तो मम्मी- पापा हमारे स्वागत के लिए खड़े रहते थे?? अरे नहीं जनाब गालियाँ ही पड़ती थी और कई बार कूटे भी जाते थे. दिन भर खेल खेल- खेल हाँ.            
  
                             ये जो लोग आज सोशल मीडिया को गालियाँ दे रहे हैं ये वही लोग हैं जो 59 ई.पू. का द रोमन एक्टा डिउरनानामक विश्व के पहले समाचार पत्र के प्रकाशित होने पर सक्रीय हुए होंगे. या आठवीं शताब्दी में चीन में हस्तलिखित समाचारपत्रो का प्रचलन हुआ तब सक्रीय हुए होंगे. या भारत में जब पहला अख़बार बंगाल गजट प्रकाशित हुआ तब. या पहला हिंदी समाचार पत्र जब  30 मई 1826 को उदंत मार्तंडके नाम से प्रकाशित हुआ तब.  ये कहते हुए कि हाय अब परिवार के लोग एक दुसरे को समय कम देते हैं. या पतिदेव को सारी दुनियां की खबर है बस परिवार और पड़ोसियों को छोड़ कर. सारा समय अखबार पढ़ने में ही बीता देते हैं.

                             ये वही लोग हैं जो नवीं शताब्दी में तब सक्रीय हुए थे जब लकड़ी के ब्लाकों से छपाई करने का अविष्कार चीन में हुआ. टाइप से छपाई का आरंभ भी नवीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है. इसके बाद आसान हुआ किताबों के छपने का सफर. मुद्रण के आविष्कार से पहले प्रकाशन का कार्य कातिब या प्रशिक्षित गुलाम किया करते थे. वे चर्मपत्र पर किसी पांडुलिपि की अनेक प्रतिलिपियाँ लिखते रहते थे. टालेमी वंश के शासनकाल में मिस्र में, तथा यूनान और गणतांत्रिक रोम के प्रमुख नगरों में चर्मपत्र तैयार करने वाले अनेक उद्योग खुल गए थे.
   
                       आज पुस्तकों का जो रूप हमारे सामने है यह कैसे प्रचलित हुआ, इसका भी एक पुराना और लंबा इतिहास है. ऐसा माना जाता है कि रोम साम्राज्य के जूरियों को जिल्द से बँधी पुस्तकों का ज्ञान सर्वप्रथम हुआ. सबसे पहले जिल्दबँधी किताबों को "कोडेक्स" कहा जाता था. चर्मपत्र के समान "कोडेक्स" भी हाथ से लिखे जाते थे.
  
                       15वीं शताब्दी में योआन गटेनबर्ग द्वारा वर्णमाला के अक्षरों को टाइप करने के अविष्कार के बाद प्रकाशन के क्षेत्र में बड़ी प्रगति हुई. गटेनबर्ग का प्रयोग बहुत ज्यादा सफल नहीं रहा फिर भी उसके अविष्कार के बाद उसका नगर मेंज, यूरोप का सबसे बड़ा प्रकाशन केंद्र बन कर उभरा.  सन् 1500 से पहले यूरोप में लगभग 30000 पुस्तकें छप चुकी थीं. और तथाकथित बुद्धिमान तब और परेशान हुए की हाय लोग परिवार से कटते जा रहे हैं. अब तो अखबार के साथ- साथ किताबों को भी समय देना होता था.

                    फिर 20वीं सदी में सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन, सचित्र पत्र, पत्रिकाएँ तथा मनोरंजन और ज्ञानवर्धन के अन्य साधनों ने लोगों को और उनके मन -मस्तिष्क चहूं और से घेर लिया था तब भी लोगों ने यही कहा होगा हाय परिवार के लिए समय ही नहीं है. अब 21 वीं सदी में यही रोना इन्टरनेट  और सोशल मीडिया को लेकर भी रोया जा रहा है. 

                      
    - मनमोहन जोशी

5 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
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  2. Aalochna bhi jaroori he .
    Sabhi prashansa karege to kese chalega.

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    उत्तर
    1. ये कौन सा तर्क हुआ कि कोई तो आलोचना करने वाला भी होना चाहिए इसी लिए आलोचना को जा रही है।।

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  3. Sir Log kuch %me kahi social media ko rong mante hoge and social media ki wajha se logo me bat karna band hoga isme social media responsible Nhi and hamara ye manna hai social media se kuch nhi sir all students iske atrect me hai sir unlogo logo ko iski lat lag gai hai wo घंटों facebook uz kar rhe and other social media ap students ka time ये social media Jada kha rha hai wo log kuch bhi study Nhi kar pa rhe hia unko modeling dikh rhe hai unka koi dream Nhi bacha hai sir wo log whatapp pe status ap lod karege sir students के लिए Facebook and other social media हानिकारक है सर...

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