पत्थर साहिब गुरुद्वारा |
आज 30 मई है. लद्दाख की धरती पर हमारा अंतिम दिन. यहाँ आने पर यह अहसास हुआ
कि सिर्फ समुद्र तट को छोड़ दें तो प्रकृति ने इस जगह को हर खूबसूरती दी है. कहीं बर्फीली
घाटियों से ढंके पहाड़ हैं तो कहीं हरियाली चुनर ओढ़े धरती. प्रत्येक दस
किलोमीटर के बाद दृश्य बदल जाता है. भूरे, बंजर, पत्थरों
से पटी विशाल पर्वत श्रृंखलाएं, हजारों फीट की ऊंचाई वाले पर्वतों के
बीच बेहद खूबसूरत घाटियां, कल-कल बहते ठंडे पहाड़ी झरने, कांच की तरह साफ और मटमैली दोनों तरह की नदियां, रेगिस्तान की तरह बिछी रेत, पठार और पठारों पर खूबसूरत झील, रंग बदलते पहाड़,
सर्पीले घुमावदार रास्ते ये सब कुदरत की खूबसूरत कारीगरी है, जो यहाँ यत्र-तत्र देखने
को मिलती है. अद्भुत... अविस्मरणीय... अप्रतिम... सौंदर्य से भरपूर... इतनी सारी
विविधता अपने विशाल आंचल में समेटे ये क्षेत्र है लद्दाख.
बहरहाल आज हम ज़न्स्कार नदी में रिवर राफ्टिंग के रोमांच का अनुभव कर
आगे चल पड़ते हैं, पत्थर साहिब गुरूद्वारे की ओर. लेह से कुछ किलोमीटर की दूरी पर
स्थित है पत्थर साहिब गुरुद्वारा. इस गुरुद्वारे पर एक पत्थर रखा है जिसमें एक
इंसानी आकृति और एक पैंर का निशान साफ दिखाई पड़ता है. माना जाता है की गुरुनानक जी
जब इस क्षेत्र में आये थे तो उनपर किसी राक्षस ने पहाड़ से एक विशाल पत्थर लुढका
दिया था जो उनसे टकराते ही मोम की तरह मुलायम हो गया. जब राक्षस ने उस पर पांव रखा
तो उसका पैंर भी उस पर धंस गया. पत्थर पर बनी मनुष्य की आकृति बाबा नानक की है और
पैंर की आकृति राक्षस की है.
गुरू नानक सिखों के प्रथम गुरु हैं. इन्हें गुरु नानक, गुरु नानक देव जी, बाबा नानक और नानक शाह नामों से
संबोधित किया जाता है. लद्दाख में लोग इन्हें
नानक लामा कहते हैं. गुरु नानक अपने
व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ,
धर्मसुधारक, समाजसुधारक व कवि थे.
हम सब गुरूद्वारे पर मत्था
टेक कर पवित्र पत्थर के दर्शन करते हैं. दर्शन के बाद मेरा प्रिय कडाह प्रसाद लेकर
हम बाहर आते हैं. बाहर आने पर पता चलता है की यहाँ एक चौबीसों घंटे का लंगर चल रहा
है. यहाँ लंगर में गरमा गरम चाय और टोस्ट
बांटी जा रही है. हम लंगर चख कर बाहर आ जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि एक बार बाबा नानक को
उनके पिता ने व्यापार करने के लिए कुछ पैसे दिए और कहा कि वो बाज़ार से सौदा करके
कुछ लाभ कमा लाये. नानक देव जी इन पैसों को लेकर जा ही रहे थे कि उन्होंने कुछ
भिखारियों और भूखों को देखा, उन्होंने वो पैसे भूखों को खिलाने में
खर्च कर दिए और खाली हाथ घर लौट आये. नानक जी की इस हरकत से उनके पिता बहुत नाराज़ हुए.
सफ़ाई में बाबा नानक ने कहा कि सच्चा लाभ तो सेवा करने में है. और इस तरह लंगर की
शुरुआत हुई. नत मस्तक हूँ सिक्ख भाइयों के इस व्यवहार के प्रति. इस दुरूह क्षेत्र
में भी जिस सेवा भाव से ये काम कर रहे हैं वो तो बस कमाल ही है.
शाम के 6:00 बज रहे हैं. हम लोग लेह
मार्केट में हैं. सोच रहे हैं कुछ शौपिंग कर लें. यहाँ सब कुछ महंगा है. महंगाई का
कारण यह है कि यहाँ केवल तीन महीने ही टूरिस्ट आते हैं. यही यहाँ के व्यापारियों
के कमाने का सीजन है. दो घंटे की शॉपिंग के बाद हम होटल वापस आ गए हैं. श्रीमती
जी और मैं सामानों की पैकिंग करते हुए बात कर रहे हैं कि जीवन में एक बार हर किसी को
लद्दाख की यात्रा करनी ही चाहिए. अगर किसी ने लद्दाख नहीं देखा तो फिर क्या
देखा???
- - मन मोहन जोशी
1 टिप्पणी:
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