Diary Ke Panne

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

गहन साक्षात्कार.....




                 आधी रात के वक्त बहुत तेज़ गर्मी महसूस होने लगी. मानो सूरज कमरे में घुस आया हो. आँख खोल कर देखा तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था. सिर्फ तेज़ चौंधियाती रौशनी. एक आवाज़ कानों में पड़ी उठो “मन” तुम्हारे प्रश्नों का जवाब देने आया हूँ मैं.

मैं : कौन ??
आवाज़: वही तुम जिसे दिनभर करता , दाता , मालिक , इश्वर या पता नहीं क्या - क्या  कह कर याद करते हो ...

 मैं :
मेरे पास कुछ भी नहीं है पूछने को. अपने उत्तर मैं खुद तलाश लूँगा... अच्छा एक बात बताओ तुम मुझे क्यूँ खोज रहे हो?
आवाज़ : जो मुझे खोजना बंद कर देते हैं , मैं उन्हें खोजने निकलता हूँ.

 मैं :
हर ज़र्रे में किस शान से तू जल्वा-नुमा है, हैरां है मगर अक़्ल के कैसा है तू
, क्या है?*
आवाज़ : अगर तुम्हारी समझ में आ गया तो फिर असीम कैसे रह जाऊँगा.
फिर तो सीमा ही बंध गई.

 मैं :
अच्छा! ढूँढे नहीं मिले हो
, न ढूँढे से कहीं तुम. और फिर ये तमाशा है जहाँ हम हैं वहीं तुम !*
आवाज़: बिलकुल ठीक. अब तुम ठीक ठीक समझ रहे हो.

 मैं :
अच्छा! एक बात तो बताओ – सुकरात को ज़हर क्यूँ दिया ?
आवाज़ : तुमने वकालत क्या कर लिया है , अब तुम
सारी दुनिया की वकालत करोगे... हाँ? तुम्हें एक अवसर मिला है अपने बारे में कुछ जानना चाहते हो तो जान लो या कुछ माँगना हो तो मांग लो. यूँ मेरा वक़्त जाया न करो.
 मैं :
हर बात की शर्त तुम नहीं तय करोगे. मैंने तो तुम्हें बुलाया नहीं. शायद तुम मेरा वक़्त जाया कर रहे हो. और एक बात, मैं औरों के प्रश्न भी पूछूँगा और औरों के लिए भी पूछुंगा.
आवाज़: अच्छा चलो बताओ सुकरात से तुम्हारा क्या लेना देना है ? कितना जानते हो तुम सुकरात के बारे में ? क्या तुमने सुकरात को पूरा पढ़ा भी है?
मैं : सब कुछ तो नहीं, लेकिन हाँ बहुत कुछ.
आवाज़ : समझो..... तुम्हारे देखने में और मेरे देखने में बहुत अंतर है . तुम क्षुद्र को पकड़ते हो और मैं विराट को देखता हूँ . जिसे तुम ज़हर का प्याला कह रहे हो मेरे देखे तो वो अमृत था. और उस एक प्याले से सुकरात ही नही, प्लेटो और अरस्तु भी अमर हो गए.

 मैं :
और जीजस ?? उसे क्यूँ सूली दे दी?
आवाज़ : वो भी अमरत्व का ही मार्ग था .

मैं :
दिल पे हैरत ने अजब रँग जमा रखा है!
एक उलझी हुई तसवीर बना रखा है!
कुछ समझ में नहीं आता के ये चक्कर क्या है
?
खेल क्या तुमने अज़ल से ये रचा रखा है!
रूह को जिस्म के पिंजरे का बनाकर कैदी
उसपे फिर मौत का पहरा भी बिठा रखा है!
ये बुराई
, वो भलाई, ये जहन्नुम, वो बहिश्त
इस उलट-फेर में फ़र्माओ तो क्या रखा है
?*     
आवाज़ : ह्म्म्म

मैं :
बनके रह जाता हूँ तसवीर परेशानी की
ग़ौर से जब भी कभी दुनिया का दर्पन देखूँ
एक ही ख़ाक़ पे फ़ित्रत के तजादात इतने!
इतने हिस्सों में बँटा एक ही आँगन देखूँ!
कहीं ज़हमत की सुलग़ती हुई पत्झड़ का समा
कहीं रहमत के बरसते हुए सावन देखूँ
कहीं फुँकारते दरिया
, कहीं खामोश पहाड़!
कहीं जंगल
, कहीं सहरा, कहीं गुलशन देखूँ
ख़ून रुलाता है ये तक़्सीम का अन्दाज़ मुझे
कोई धनवान यहाँ पर कोई निर्धन देखूँ
कहीं मुरझाए हुए फूल हैं सच्चाई के
और कहीं झूठ के काँटों पे भी जोबन देखूँ!*
आवाज़: एक गहन खामोशी .

मैं :
रात क्या शय है
, सवेरा क्या है?
ये उजाला
, ये अंधेरा क्या है?*
आवाज़: (नाराजगी से) क्या बकवास कर रहे हो??? ये सब मिलकर ही दुनिया बनती है. सब अच्छा अच्छा हो तो अच्छे का पता ही न चले. उजाले को समझने के लिए अँधेरे की ज़रूरत होती है. और अच्छे को समझने के लिए बुरे की.  

मैं :
जो कहता हूँ माना तुम्हें लगता है बुरा सा
फिर भी मुझे तुमसे बहर-हाल है ग़िला सा
हर ज़ुल्म की तौफ़ीक़ है ज़ालिम की विरासत
मज़लूम के हिस्से में तसल्ली न दिलासा
कल ताज सजा देखा था जिस शक़्स के सर पर
है आज उसी शक़्स के हाथों में ही कासा!*
यह क्या है??
आवाज़: इस राज़ से हो सकता नहीं कोई खुलासा.
अब मैं जा रहा हूँ. हो सकता है उत्तरों के साथ जल्द तुम्हें मिलूं. कुछ और कहना चाहते हो?

मैं:
सिर्फ इतना ही कि “जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला**.”  


© मनमोहन जोशी. 


Note: *sher nusrat saab ki qawaali se aur chitr internet se sabhaar.
** nida fazli





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