संयुक्त परिवारों के टूटने की चिंता अक्सर वही लोग करते हैं जो कभी संयुक्त
परिवार में रहे नहीं. क्यूंकि संयुक्त परिवार में रहना तब आसान था जब पूरा परिवार
एक ही कार्य करता था और परिवार की बागडोर एक मुखिया के हाथ में होती थी. आज के दौर
में जब परिवार में सब के काम अलग अलग हैं, एक भाई साल के दस लाख रुपये कमाता हो और दूसरा एक लाख तो संयुक्त
परिवार की अवधारणा वैसे ही ख़त्म हो जाती है. लेकिन संयुक्त परिवार की अनेक
बुराइयों पर एक खूबी भारी पड़ती है वह है त्योहारों का मनाना. मेरे दखे त्योहारों
का सही आनंद संयुक्त परिवार में ही है.
मेरा बचपन संयुक्त परिवार में ही बीता है.
पिताजी के कुल चार भाई और सात बहनें थे (कोई शक नहीं की देश की आबादी में दादा जी
का बड़ा योगदान रहा है). इनके अलावा भी पापा ने कई राखी बहनें बना रखी थी. अतः ये तो स्पष्ट है कि हमारे घर में रक्षा बंधन का
त्यौहार बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता था. सुबह से बुआओं का आना-जाना लगा रहता
था और भाँती भाँती के पकवान खाने को मिल जाते थे.
मेरी कोई बहन नहीं और श्रीमती जी का कोई भाई नहीं. इस डिस्क्लेमर को
किसी खेद के रूप में न देखा जाए. या ऐसे न समझा जाए कि मुझे किसी बहन की तलाश है.
मेरे दखे सारे रिश्ते नाते हम जन्म के साथ ही पा जाते हैं. हमें केवल मित्र बनाने
का ही अधिकार होता है. बचपन में रक्षा
बंधन इतना मना लिया की अब यह एक मात्र त्यौहार का दिन बचा है जिसे हम छुट्टी के
रूप में आनंद के साथ मनाते हैं.
रक्षाबन्धन प्रतिवर्ष
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से
लेकर रंगीन कलावे,
रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है. रक्षासूत्र
बाँधते समय संस्कृत का एक श्लोक का उच्चारित किया जाता है, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि
से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है. भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा
निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए निम्नलिखित
स्वस्तिवाचन किया था. यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है -
“येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥“
अर्थात - "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा
बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी) ! तुम अडिग
रहना"
स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का
प्रसंग मिलता है. कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण
कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु
से प्रार्थना की. तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से
भिक्षा माँगने पहुँचे. गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी.
भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज
दिया. बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान
को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया. भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी
जी को नारद जी ने एक उपाय बताया. उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि
के पास जाकर उसे राखी बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति को अपने साथ ले आयीं. उस
दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी. विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि
श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों
को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था. हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का
प्रतीक माना जाता है.
इस त्यौहार का सम्बन्ध गुरु-शिष्य से भी है. प्राचीन गुरुकुल
पद्धति में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण
करने के बाद गुरुकुल से विदा लेता था तो वह गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करने के
लिए उसे रक्षासूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ
रक्षासूत्र बांधते थे कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में
उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे. ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की
रक्षा करने में भी सफल हो.
मेरे देखे रक्षाबन्धन का यह पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता का सांस्कृतिक उपाय भी रहा है. विवाह के बाद बहन दुसरे घर चली जाती है. इस त्यौहार के बहाने प्रतिवर्ष अपने भाइयों को उनके घर जाकर राखी बाँधती है और इस प्रकार अपने रिश्तों का नवीनीकरण करती रहती है. दो परिवारों का और कुलों का पारस्परिक मिलन होता रहता है.
अपने राजस्थान प्रवास के दौरान मुझे “रामराखी” और “चूड़ाराखी” या “लूंबा” को भी करीब से जानने समझने का अवसर प्राप्त हुआ. रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है. इसमें
लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुँदना लगा होता है. यह राखी भगवान को ही बाँधी जाती है. चूड़ा राखी महिलाओं
की चूड़ियों में बाँधी जाती है. जोधपुर में इस दिन गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को
शुद्ध किया जाता है. इसके बाद गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के मंडल बनाकर उनकी मन्त्रोच्चारण के साथ
पूजा की जाती हैं. धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनायी जाती
है. राखी को कच्चे दूध से अभिमन्त्रित बांधते हैं और इसके बाद ही भोजन करने का प्रावधान
है.
मैंने कहीं पढ़ा था कि
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को
बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का
राजनीतिक उपयोग किया था. 16 अक्टूबर 1905 को बंग भंग की नियत घोषणा के दिन रक्षा बन्धन
की योजना साकार हुई. लोग गंगा स्नान करके सड़कों पर यह कहते हुए उतर आये-
“सप्त कोटि लोकेर करुण क्रन्दन, सुनेना सुनिल कर्ज़न दुर्जन.
ताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करिल, आमि स्वजने राखी बन्धन..”
एक बार रक्षा बंधन के इस दिन मैं मुंबई में था तब एक मित्र से यह जानकारी मिली कि महाराष्ट्र में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है. इस दिन सागर तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और पूजा करते हैं. इस अवसर पर वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परम्परा है. यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल से भर जाते हैं.
रक्षा बंधन के इस पावन पर्व की शुभकानाएं.
- मनमोहन जोशी