31 March 2017
आज सुबह का अखबार खोला तो एक खबर पर नज़र गई भारत वंशी निक्की हेली जो यू
एन में अमेरिकी राजदूत हैं ने एक भाषण में कहा कि भारत में महिलाओं को बराबरी के
अवसर नहीं मिलते हैं .. उन्होंने अपनी माँ का ज़िक्र करते हुए कहा कि उनकी माँ राजकौर
रंधावा को केवल इस कारण जज बनने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि वह एक महिला
थीं अन्यथा उनकी माँ को भारत की पहली महिला जज होने का गौरव प्राप्त हो जाता .
हालांकि अखबार के अनुसार यह बात ग़लत है क्योंकि उनकी माता जी के देश छोड़ने से 21 वर्ष
पहले ही श्रीमती अन्ना चान्डी को देश की पहली महिला जज बनने का गौरव हासिल हो चुका
था.
तो क्या न्यायपालिका में महिलाओं को बराबर का स्थान तब से मिला हुआ है???? सोचता हूँ जानकारी के खजाने से चिंतन की गहराई में झांकते हुए इस तथ्य की पड़ताल करूँ. भारतीय गणतंत्र के 68 वर्ष पूरे हो गए हैं. इतिहास के इन ‘गौरवशाली’ 68 वर्षों में , सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी तक एक भी महिला नहीं
पहुँच पाई कैसे?. वर्तमान स्थिति के अनुसार, अगस्त
2022 तक, कोई स्त्री मुख्य न्यायाधीश नहीं बन
सकेगी.
संविधान लागू होने के लगभग
40 वर्षों बाद, फातिमा बीवी (6 अक्टूबर, 1989) सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनीं. वे 1992 में
सेवानिवृत्त हो गईं. इसके बाद, सुजाता वी. मनोहर, रुमा पाल , ज्ञान सुधा मिश्रा , रंजना प्रकाश देसाई और आर.
बानूमथि (2014) को सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनने का अवसर मिला. कुल मिला
कर, 65 सालों में, 219 (41 पूर्व मुख्य न्यायाधीशों, 150
पूर्व न्यायाधीशों और 28 वर्तमान न्यायाधीशों) न्यायाधीशों में से केवल 6 महिलाएं थीं.
सन 2000, जो माननीय सुप्रीम कोर्ट का स्वर्ण जयंती वर्ष था, में
29 जनवरी को, मुख्य न्यायाधीश ए.एस.आनंद द्वारा तीन नए न्यायमूर्तियों (डोरेस्वामी
राजू, रूमा पाल और वाई.के.सभरवाल) को शपथ दिलाई जानी थी. अचानक, ना जाने क्यों, शपथग्रहण की तारीख 29 की बजाय 28 जनवरी कर दी गई. शायद
स्वर्ण जयंती समारोह की वजह से. डोरेस्वामी राजू और वाई.के.सभरवाल को 28 जनवरी को
सुबह शपथ दिलाई गई और रूमा पाल को दोपहर बाद | बाद में पता चला कि डोरेस्वामी राजू
और वाई.के.सभरवाल को समय रहते शपथग्रहण की तारीख में परिवर्तन की सूचना मिल गई
परन्तु रूमा पाल को नहीं मिली. और इसी देरी के चलते 2 जून 2006 को रुमा पाल मुख्या न्यायाधीश बने बिना ही सुप्रीम
कोर्ट की न्यायमूर्ति के रूप रिटायर हो गयीं
रूमा पाल को समय से सूचना मिलने में इतनी देरी हुई कि देश की किसी ‘बेटी’ को
ना जाने कितने साल और देश का मुख्य न्यायाधीश बनने के लिए इंतज़ार करना होगा. शपथ
लेने में कुछ घंटों की देरी से देश के न्यायिक इतिहास की धारा ही उलट गई. कहना
कठिन है कि यह ‘नियति’ थी या ‘पितृसत्ता का षड्यंत्र’?
जहाँ सर्वोच्च न्यायालय में यह स्थिति है, वहीं
देश के अधिकाँश उच्च-न्यायालय अपनी ‘प्रथम महिला मुख्य न्यायाधीश’ का इंतज़ार कर रहें हैं. 9 फरवरी, 1959
को अन्ना चांडी देश में किसी भी उच्च
न्यायायलय की पहली महिला न्यायाधीश बनीं जब उन्हें केरल उच्च न्यायालय में
न्यायाधीश के रूप में शपथ दिलाई गयी. इसके कई साल बाद, (30
मई, 1974) पी.जानकी अम्मा और के.के.उषा (1991) केरल उच्च न्यायालय की
न्यायाधीश बनीं. लीला सेठ, दिल्ली उच्च न्यायालय की प्रथम महिला न्यायाधीश (25.7.1978) थीं, जो
भारत में किसी भी उच्च-न्यायालय की ‘प्रथम महिला मुख्य न्यायाधीश’ (हिमाचल, 1991) बनीं. सन 2013 में टी. मीना कुमारी
को मेघालय उच्च न्यायालय , 2014 में जी. रोहिणी को दिल्ली उच्च न्यायालय और डॉक्टर मंजुला
चेल्लुर को कलकत्ता उच्च-न्यायालय की ‘प्रथम महिला मुख्य न्यायाधीश’ बनने का गौरव प्राप्त हुआ.
देश भर के
24 उच्च न्यायालयों में अब तक नियुक्त महिला न्यायधीशों की संख्या 7 प्रतिशत से
अधिक नहीं है. न्यायपालिका में महिला न्यायधीशों की कमी का एक कारण यह बताया जाता
है कि वकालत के पेशे में ही महिलाओं की संख्या, पुरुषों के मुकाबले बहुत कम है. काश यही सही कारण हो.
लेकिन आश्चर्यजनक तथ्य यह कि इन 68 वर्षों में भारत के कानून मंत्री
(भीमराव आम्बेडकर से लेकर शिवानन्द गौडा तक) व राष्ट्रीय विधि आयोग और
राष्ट्रीय मानवाधीकार आयोग के अध्यक्ष पदों पर भी पुरुषों का ही कब्ज़ा बना हुआ
है. भारत के अटोर्नी जनरल और सोलिसिटर जनरल का पद भी मानों पुरुषों के लिए आरक्षित
रहा है. हाँ, कुछ समय पहले, इंदिरा जयसिंह को अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल बना कर, महिला
सशक्तिकरण की जय-जयकार अवश्य की गई थी. मतलब यह कि सभी महत्वपूर्ण निर्णय-स्थलों
पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है.
यही नहीं, वकीलों की अपनी संस्थाओं में भी महिला अधिवक्ताओं को हाशिये पर ही
खड़ा रखा गया. बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया के अभी तक सभी अध्यक्ष (एम सी. सीतलवाड़ से
लेकर मन्नन कुमार मिश्र तक) पुरुष ही रहे
हैं.
यहाँ उल्लेखनीय है कि रगीना गुहा के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय
(1996) और सुधांशु बाला हजारा के मामले में
पटना उच्च न्यायालय (1922) ने कहा था कि “महिलायें कानून की डिग्री के बावजूद
अधिवक्ता होने की अधिकारी नहीं हैं”. इस संदर्भ में ये दोनों ऐतिहासिक दस्तावेज पढने योग्य हैं.
24 अगस्त, 1921
को पहली बार इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कोर्नेलिया सोराबजी को वकालत करने की
अनुमति दी थी. स्त्री अधिवक्ता अधिनियम, 1923 पारित कर अंततः महिलाओं की इस ‘अयोग्यता’ को
समाप्त किया. इस हिसाब से देखें तो महिलाओं को वकालत के पेशे में सक्रिय भूमिका
निभाते अभी 100 साल भी पूरे नहीं हुए हैं. सन 2021 में, जब इसकी शताब्दी मनाई जाएगी, तब
तक क्या यह विश्वास और उम्मीद की जा सकती है कि न्याय व्यवस्था में लिंग भेद नहीं
होगा?
सोचें .........................रात के 11.30 बज रहे हैं मैं तो चला सोने.
- मन मोहन जोशी “Mj”