Diary Ke Panne

मंगलवार, 7 मार्च 2017

दादुर बोल रहे हों जब .......राजद्रोह बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता.



            


         "दादुर बोल रहे हों जब, तब कोयल का चुप रहना ठीक ,
          भाग्य अंततः सागर हो, तो धीमे धीमे बहना ठीक |"
                                                                          -मध्यम 
            
             हाल ही में गुलमेहर विवाद और रामजस college  में जो कुछ घटा और उसके बाद ट्विटर पर जिस तरह से तथाकथित celebrities छिछालेदर करते नज़र आये, एक बार फिर से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बहस का मुद्दा बन गई है.... एक बात तो समझ लेने जैसी है कि हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है | भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 हमें विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है.... लेकिन कोई भी व्यक्ति देश के खिलाफ नहीं बोल सकता (धारा  124 a IPC में अपराध), किसी धर्म के खिलाफ नहीं बोला जा सकता (अध्याय 15 IPC में अपराध ), किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं बोला जा सकता ( धारा 499-500  में अपराध)..... इसका सीधा सा  अर्थ यह निकलता है की हमारी बोलने की स्वतंत्रता आत्यंतिक अर्थात पूर्ण नहीं है इस पर निर्बन्धन यानी रोक लगाई  जा सकती है .. ऐसा नहीं है की बोलने की आज़ादी है तो कुछ भी अनर्गल बोलते रहें.....

            फिर समय – समय पर कन्हैया कुमार, असीम त्रिवेदी, लेखिका अरुंधती रॉय, डॉक्टर विनायक आदि पर राजद्रोह का आरोप लगता रहा है और फिर एक बहस में समाज के दो वर्ग बाँट जाते हैं .... ग़ौरतलब है कि जब भी इस तरह का मामला प्रकाश में आता है तो देश में इस बात को लेकर एक बड़ी बहस होती है कि यदि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हरेक व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है, तो फिर सरकार या नेताओं की आलोचना करना, सरकारी नीतियों या प्रशासनिक अधिकारियों की बुराई करना या देश के खिलाफ कुछ बोलना अपराध  क्यों और कैसे है? ऐसे में, कुछ लोग तो अतिउत्साह में संबंधित कानूनों को ही पूर्णतया अनावश्यक करार दे देते हैं। उनका तर्क होता है कि लोकतंत्र में विरोध करना या अपनी बात कहना जनता का बुनियादी हक है और लोकतंत्र की सार्थकता इसी से सिद्ध होती है। फिर जनता द्वारा निर्वाचित सरकार किस आधार पर अपने ही नागरिकों को देशद्रोही साबित करने हेतु औपनिवेशिक कानून का पोषण करती है, जबकि इस मामले में सरकार के तर्क में मुख्य चिंता उग्रवादियों, आतंकवादियों और किसी भी प्रकार के अतिवाद से उत्पन्न होने वाले खतरे से देश को बचाए रखने की होती है।

              दरअसल Indian penal code-1860 में देश द्रोह नाम का कोई अपराध है ही नहीं... sec 124 a में राजद्रोह नाम से अपराध है ...... राज द्रोह अर्थात राजा से द्रोह कौन सा राजा ?? वही जो ब्रिटेन में बैठ कर पूरी दुनिया पर अपनी हुकुमत चला रहा था .... आईपीसी की धारा “124 क” के अनुसार, "बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा जो कोई भी भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, असंतोष उत्पन्न करेगा या करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास या तीन वर्ष तक के कारावास से  और जुर्माने से  दंडित किया जाएगा।" 

स्पष्टिकरण: इस धारा में असंतोषशब्द के अंतर्गत अभक्ति (Disloyalty) और शत्रुता (Enmity) की सभी भावनाएँ आती हैं। किंतु घृणा, अवमान या असंतोष उत्तेजित किये बिना वैधानिक साधनों से सरकार की प्रशासनिक या अन्य प्रक्रिया के प्रति असंतोष प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ अपराध नहीं मानी जाती हैं।

              अब प्रश्न यह उठता है कि Freedom of expression के अधिकार के तहत यदि सरकार के खिलाफ जनता को विरोध या विद्रोह के लिये उकसाया जाता है या गदर को प्रोत्साहित किया जाता है  जैसे, आए दिन कश्मीर या उत्तर-पूर्वी राज्यों में भारत सरकार के प्रति विरोधी स्वर उभरता है और कई दफा यह हिंसात्मक रूप ले लेता है। इसके अलावा, देश के विभिन्न हिस्सों में नक्सली या माओवादी ताकतें भी व्यवस्था विरोधी क्रियाकलापों के जरिये आंतरिक सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करती हैं। ऐसे में, राजद्रोह को गंभीर अपराध की श्रेणी में रखना और इसके लिये आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान करना क्या गलत है?

               शासन चाहे राजतंत्रात्मक हो अथवा औपनिवेशिक, संघात्मक हो अथवा साम्यवादी, हर प्रकार की व्यवस्था में शासन के खिलाफ आवाज उठाना दंडनीय अपराध माना जाता रहा है। भारत में भी प्राचीन और मध्यकाल में यह किसी-न-किसी रूप में मौजूद था। आधुनिक काल में, अंग्रेजी शासन के दौरान लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में प्रथम विधि आयोग (Law Commission) ने 1837 में जो कानूनी मसौदा  तैयार किया था, उसकी धारा 113 के अधीन राजद्रोह संबंधी कानूनी प्रावधान डाला गया। 1860 में भारतीय दंड संहिता बनाई गई तो धारा 113 को हटाकर राजद्रोह संबंधी प्रावधानों को धारा 124 A के अंतर्गत स्थान दिया क्यूंकि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश शासन को राजद्रोह संबंधी प्रावधानों को दंड के साथ अमल में लाना आवश्यक जान पड़ा। हिंसक बहावी आंदोलन को कुचलने में इस धारा का खूब इस्तेमाल किया गया। आगे 1898 में इस कानून में संशोधन किया गया। इस बीच नाट्य प्रदर्शन अधिनियम, 1876 और वर्नाकुलर प्रेस एक्ट, 1878 जैसे कानूनों ने भी भारतीय जनता की वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनने का ही काम किया। औपनिवेशिक दौर में बने इस प्रकार के दमनकारी कानून जनविरोधी अंग्रेजी सत्ता की रक्षा के लिये बने थे। अंग्रेजों के खिलाफ बोलना या अंग्रेजी शासन पर किसी माध्यम से (प्रेस, भाषण, चित्र आदि द्वारा) सवाल उठाना दंडनीय अपराध था। फिर भी राष्ट्रभक्त लोगों ने यह खतरा मोल लिया और ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद की। बाल गंगाधर तिलक (1897) और महात्मा गांधी (1922) जैसे लोगों पर भी राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया। 

               जो प्रश्न बहस के दौरान तिलक ने अदालत में उठाया था, वह प्रश्न धारा 124 A को लेकर आज भी एक सार्वभौमिक प्रश्न है। तिलक ने पूछा था कि यह ब्रिटिश भारतीय सरकार के खिलाफ लोगों का राजद्रोह है या भारतीय लोगों के खिलाफ सरकार का देशद्रोह?

              पिछले दिनों मोदी सरकार ने कुछ पोर्न sights को ban कर दिया था तब भी देश के तथाकथित बुद्धिजिवियों  ने एक स्वर में इस कदम को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताया था | मुझे समझ में नहीं आता की ऐसी sights पर क्या अभिव्यक्त किया जा रहा है और कैसे इन sights पर ban लगाने पर तथाकथित बुद्धिजिवी वर्ग की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हो जाता है???

सोचें ..................................

              अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जहां बात आती है तो मुझे लगता है :

“ऐसी वैसी बातों से तो खामोशी ही बेहतर है , 
या फिर ऐसी बात करो जो ख़ामोशी से बेहतर है |”

                       -मन मोहन जोशी “मन”


4 टिप्‍पणियां:

  1. सर मुझे लगता है कि ये पूर्व प्रायोजित घटनाएं हैं जो थोड़े थोड़े समयांतराल पर जनता के सामने किसी विशेष उद्देश्य से प्रस्तुत की जाती हैं । नए शब्दों से लोगों का परिचय होता है और कुछ नए नेता उत्पन्न कर दिए जाते हैं । और जनता अपना कीमती वक़्त इस फालतू की पूर्व प्रायोजित बहस में पड़ कर ख़राब करती है।

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  2. प्रिय तीर्थराज,
    हो सकता है कि आप सही हों लेकिन जनता के सामने सभी तथ्य आने चाहिए और इसी बहाने ही सही लोग नए तथ्यों से परिचित तो हो रहे हैं.

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