साल 98 के वसंत की दोपहरी, उस दिन मैं कुछ छोटे बच्चों को पढ़ा रहा था, ख़ुद कक्षा बारह में पढ़ता था लेकिन आस पास के छोटे बच्चों को घर पर ही मैथ्स और इंगलिश पढ़ाता था….
हम जॉइंट फ़ैमिली में रहते थे.. जॉइंट फ़ैमिली के जहाँ अपने फ़ायदे हैं कि आप एक ही छत के नीचे बहुत सारे रिश्ते जी सकते हो और आपको सभी का प्यार मिलता है तो वहीं एक शाश्वत पारिवारिक क्लेश आपके जीवन का भाग हो जाता है.
हमारे इसी बड़े संयुक्त परिवार का हिस्सा थे मेरे ताऊ जी. प्यार से हम उन्हें बाबा कहते थे. उनके बीवी बच्चे नहीं थे.. या कहें हम भाई बहन ही उनके बच्चे थे. वे हनुमान जी के पुजारी थे. साफ़ सफ़ेद कपड़े पहनने का उन्होंने शौक़ था और स्पष्टवादी होने के कारण किसी के भी मुँह पर ही सच बोलने का साहस रखते थे और बोलते भी थे.
वो मुझसे बड़ा स्नेह रखते थे मुझे “बब्बू” बोलकर बुलाते थे.. कहते “बब्बू” तो मेरा भगवान है.. कभी हम भाई कुछ खेल रहे होते और वो वहाँ मौजूद होते तो कहते तुम लोग इसको (मतलब मुझे) नहीं हरा पाओगे ( भले ही मैं हार रहा होता था).. अब कोई जीते कोई हारे मुझे तो मेडल मिल चुका होता.. वो मेरा संबल थे.
बहरहाल चलते हैं उस रोज़ पर… उस दिन भी किसी बात पर घर के लोग आपस में झगड़ रहे थे, जब मैं बच्चों को पढ़ा रहा था.. यूँ तो बाबा की हम बच्चों को छोड़कर किसी से भी नहीं बनती थी लेकिन अधिकतर लड़ाइयों में उनकी कोई ग़लती नहीं होती थी. बस परेशानी ये थी कि वो लगातार बोलते रहते थे और मैं ये बिना जाने कि किसकी ग़लती थी और मुद्दा क्या था बस यही कहता था कि आपस में बैठकर बात कर लो.. चिल्लाओ मत.
सो उस दिन भी मैंने यही किया मैं अपने कमरे से बाहर आया और उनसे झल्लाकर बोला चिल्लाओ मत… मुझे याद है, मैंने ये बात बड़ी नाराज़गी से कही थी और वापस पढ़ाने चला गया कमरे में.
वो थोड़ी देर बाद मेरे कमरे में आये, बोले मैं गाँव जा रहा हूँ अब नहीं रह पाऊँगा यहाँ ( वो अक्सर ऐसा कहते थे )
मैं - ठीक है जाओ
वो - देखना मेरे पास कितने पैसे हैं, और बताना कितने टैक्सी वाले को देना है, उतने पैसे अलग कर देना
(मैंने वैसा ही किया, पैसों को उनके पर्स के अलग- अलग खानों में जमा दिया. टैक्सी वाले को देने के पैसे अलग कर दिए खुल्ले पैसे अलग और बड़े नोट अलग..फिर पर्स उनके हाथ में रख दिया.)
वो - जा रहा हूँ , अब वापस नहीं आऊँगा, देख लेना तुम लोग
मैं- हाँ हाँ जाओ
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और फिर वो कभी नहीं आये.. तीन दिन बाद खबर मिली कि वो लापता हैं.. बाद में गाँव के कुएँ से उनकी लाश मिली.. पुलिस वालों का कहना था कि रात में पाँव फिसलने के कारण वो गिर गये होंगे.. आत्महत्या या अपराध जैसी की बात से इनकार किया गया.
कई महीनों तक मेरे कानों में उनकी आवाज़ गूंजती रही.. आज भी बस यही सोचता हूँ कि जाने के पहले एक बार उनके गले लग लिया होता या पाँव छू कर आशीर्वाद ले लिया होता या टैक्सी स्टैंड पर उनको छोड़ आया होता या कम से कम एक बार उनको ये बता पाता कि उनका मेरे जीवन में क्या महत्व है… लेकिन..
कल गणपति विसर्जन करते हुए यही ख़्याल आया कि मिलन का उत्सव तो मनाया ही जाता है.. विदा कितना गौरवपूर्ण हो सकता है अनंत चतुर्दशी इस इस बात के महत्व को रेखांकित करने ही आती है… ये विदा का गीत है… हर एक व्यक्ति गौरवपूर्ण विदाई का हक़दार है.. मेरे देखे विदा गौरवपूर्ण ही होना चाहिए.. अंतिम विदा नहीं हर एक विदा क्यूँकि हमें नहीं पता कि कौन सी विदाई अंतिम है.
मुझे लगता है बिछोह की ऊष्मा का पौधा जब दिल की ज़मीन पर उगे तो उसके पुष्प की ख़ुशबू चेतना के आकाश में किस तरह व्याप जानी चाहिए ये दिखाने आते हैं गणपति. मिलन और जुदाई दोनों ही उल्लास और उत्सव से भरे हों ये बताने आते हैं गणपति.
आइये अपने आस पास भी विदा के इस गीत को उत्सव में बदलने का प्रयास करें ताकि फिर कोई बब्बू अपने बाबा से इस तरह विदा ना हो कि उम्र भर हृदय में विदा का गीत गूंजने कि जगह विदा का शूल चुभता रहे..
✍️एमजे
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