डेढ़ दशक से भी ज्यादा पुरानी चक्री जो पापा ने भेंट दी थी और बेहद खूबसूरत होने की कारण कभी उपयोग में नहीं लाई गई. अब जा कर उपयोग में आई. क्या खूबसूरती से संभाल कर रखा था मम्मी ने. |
वो काटा |
भगवान् सूर्य नारायण अस्ताचल में रुके कर पतंगबाजी का आनंद लेते हुए |
सूर्य की गति पर आधारित मकर संक्रांति का यह उत्सव भारतीय मनीषा को रेखांकित करता है.
मकर संक्रांति में “मकर” शब्द आकाशमें स्थित एक तारामंडल का नाम है जिसे मकर राशी
कहा जाता है. सूर्य के इस राशी में प्रवेश
से एक दिन पूर्व मनाया जाने वाला यह उत्सव
सूर्य का उत्तरायण में स्वागत उत्सव है.
उत्तरायण का अर्थ है पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के सापेक्ष में स्थित आकाश
का भाग अर्थात उत्तरी अयन. जब सूर्य उत्तरायण में आता है तो इसकी किरणें पृथ्वी पर
क्रमशः सीधी होने लगती है. जिससे धीरे धीरे गर्मी बढ़ने लगती है. यह शीत ऋतु का अंत माना जाता है.
सूर्य की बारह महीनों में कुल बारह संक्रांति होती है. सूर्य एक राशी
के सामने एक महीना रहता है फिर दूसरे महीने दूसरी राशि के सामने चला जाता है. इस
प्रकार पूरे एक वर्ष में बारह महीनों में बारह राशियों का भ्रमण करते हुए सूर्य
अपना एक वर्ष पूर्ण कर लेता है.
कभी कभी यह सोच कर मन आश्चर्य से भर जाता है की भारत में छः ऋतुओं की
पूरी परिकल्पना पञ्चाङ्ग में मिल जाती है.
प्रकृति में घटने वाली एक एक घटना चाहे वो पृथ्वी पर घटित हो या ब्रह्मांड में उन
सब का विवरण पञ्चाङ्ग में मिल जाता है .
भारत के बहुत बड़े हिस्से में इसे मकर संक्रांति कहा जाता है. पंजाब,
हरियाणा और दिल्ली में लोहड़ी के नाम से मनाया जाता है. आसाम में इसे
बिहू कहा जाता है. आसाम के कुछ क्षेत्रों में इसे माघ बिहू भी कहा जाता है. कुछ
क्षेत्रों में इसे भोगाली बिहू भी कहते हैं. तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश में इसे
पोंगल के नाम से मनाया जाता है. कर्नाटक
के किसानों का यह सुग्गी उत्सव है. कर्नाटक में इसे किछु हाईसुवुडडू के रूप में भी
मनाया जाता है. हिमाचल प्रदेश में शिमला के आसपास इसे माघ साज्जि कहा जाता है.
कुमाऊं क्षेत्र में इस उत्सव को घुघुटिया के रूप में मनाया जाता है.
उड़ीसा में इसे मकर बासीबा कहकर मनाया जाता है. बंगाल में इसे मागे सक्राति के रुप
में मनाते हैं. गोआ और महाराष्ट्र में हल्दी कुमकुम मनाया जाता है.
आश्चर्य होता है कि कैसे एक त्यौहार जिसमें फसल चक्र से लेकर अर्थ
चक्र और स्वास्थ्य चक्र से लेकर आयुषचक्र तक का चिंतन भी समाहित है सैकड़ों हज़ारों
वर्ष पूर्व गढ़ दिया गया था. इस सम्पूर्ण वांग्मय
के समक्ष पूरा विश्व और वैश्विक ज्ञान बौना मालूम पड़ता है.
संक्रांति और पतंग का एक अटूट रिश्ता है. जनवरी मध्य की गुनगुनी धूप
हो, हाथ में तिल-गुड़ हो और नज़र उठा कर आसमान को देखें तो नीला आसमान
रंग-बिरंगी पतंगों से भरा दीखता है. मानो
रंग बिरंगी पतंग से हम उत्तरायण होते सूर्य नारायण की अगवानी करने आकाश के द्वार
पर पहुँचते हों.
कल शाम ऑफिस की छत पर ही पतंग उड़ाने का आयोजन किया गया.
अभिषेक और रोहित पतंग और माँजा ले आये थे कुछ पतंग और बरेली मांजा मैंने भी किशोर
से मंगवा लिए थे.
लेक्चर्स और ज़रूरी मीटिंग्स के बाद लगभग पांच बजे हम छत पर पहुंचे. थोड़ी देर बाद माथुर जी, गुप्ता जी, बड़े भैया और सुनील भाई भी छत पर आ गए. अंकित, बलबीर, कमल, कमलेश और बाकी टीम भी छत पर जमी थी. कमाल ये था कि सूर्य देव अस्ताचल पर ठिठक गए थे इस पतंगोत्सव को देखने. (ऊपर के चित्रों में देखें)
बड़े भैया ने अपनी पतंग की स्किल दिखाई दूर छत पर बैठे कबूतरों को उड़ा
कर. उनकी स्किल तो इतनी शानदार रही है की पेड़ पर लगा आम मांझे से काट दें.... और
फिर दौर शुरू हुआ पेंच लड़ाने का.
गौर करें तो हमारा जीवन भी पतंग की मानिंद है. सुंदर, हल्का और उम्मीदों से भरा. हमारा मन आकाश छू लेना चाहता है अपनी इच्छाओं की डोर के सहारे. उम्र के हर पड़ाव
पर इच्छाएं जन्म लेती हैं. हर प्रयास उन्हें पूरा होते देखना चाहता है. एक सपना
सदा साथ रहता है, आसमान की पतंग सा. जो हर मुश्किल परिस्थिति को हवा की मानिंद चीरता
हुआ विचरता फिरता है सफलता के अनंत आकाश में.
मन और आत्मा रुपी दो खपच्चियों से शरीर रुपी कागज़ साधा हुआ है. इसमें
कर्म की ज्योत ठीक से बाँध दी जाए और रिश्तों के धागों को मजबूती के साथ थामें रखें
तो हमें सुख और सफलता के आकाश में विचरने से कोई नहीं रोक सकता.
-मनमोहन जोशी
1 टिप्पणी:
आपने पतंग और जीवन को इतनी खूबसूरती से जोड़ा है..सचमुच अद्भुत है!ब्लॉग पर दिए आपके प्रभावशाली विचारों को इन दिनों पढ़ रही हूँ, हर गुज़रते दिन के साथ आपके लिए मेरा सम्मान गहरा होता जा रहा है। तहेदिल से शुक्रिया आपका, मनमोहन सर..
एक टिप्पणी भेजें