Diary Ke Panne

मंगलवार, 11 जनवरी 2022

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत का भरम रख (ग़ज़लनामा भाग 2)


तो बात है साल 97 की, तब मैं तबला बजाता था और खूब ही बजाता था । संगीत ही मेरी दुनियां थी। पढ़ने लिखने के अलावा दूसरा काम तबला बजाना और क्रिकेट खेलना था।

एक रोज़ निशा देशपांडे जी का फ़ोन आया (तब लैंडलाइन फोन ही हुआ करते थे) कहा कि एक कम्पटीशन में पार्टिसिपेट करना है क्या तुम मेरे साथ संगत करोगे ? मैंने हामी भर दी।

शाम को घर पहुंचा तो पूरी टीम बैठी हुई थी। तबले पर मेरी जगह खाली थी। जहां मैं बिना किसी के कुछ बोले ही जम गया।।

ग़ज़ब के सुरों के साथ जो ग़ज़ल कानों में पड़ी वो अहमद फ़राज़ साहब की ग़ज़ल थी :-

"रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ"


एक एक शब्द सीधे कानों से उतर कर ज़ेहन में पैवस्त हो गए और मैं उत्सुक था मेहदी हसन साहब को जानने के लिए । वो इंटरनेट का ज़माना नहीं था। इंटरनेट धीरे धीरे पैर पसार ही रह था।।

जानने का स्रोत केवल किताबें ही थी या ऑडियो कैसेट या कोई बड़े बुज़ुर्ग। सबसे पहले फ़राज़ साहब की "मेरी ग़ज़लें मेरी नज़्में" खरीद कर पफह डाली और निशा जी से ही मेहदी साहब की ऑडियो कैसेट ले ली।

कुछ दिन इन दोनों के खुमार में ही डूब रहा और फिर दिन आया कंपीटिशन का ।। 

जगदलपुर शहर के रोटरी भवन में कार्यक्रम का आयोजन था जहां मुझे कुछ और ग़ज़ल गायकों को सुनने का मौका मिला जिनमें से एक थे राकेश भारती। जो ग़ज़ल उन्होंने गाई उसके एक शेर पर मेरा दिल अटक गया बोल थे :

"वक्त सारी जिंदगी में दो ही गुजरे हैं कठिन,
इक तेरे आने से पहले, इक तेरे आने के बाद।"

अहा क्या कमाल। कमाल।कमाल.... अब मुझे उत्सुकता थी इस आदमी और उस ग़ज़ल को जानने की.... 

क्रमशः....

PS : बता दूं कि निशा जी विजयी घोषित की गईं और भारती जी उपविजेता रहे।। :)

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