Diary Ke Panne

शनिवार, 15 जनवरी 2022

सुर्खरू होता है इंसां, ठोकरें खाने के बाद (ग़ज़लनामा भाग -3)


(भाग -2 से आगे .....)

तो मैं इन दिनों लगातार संस्मरण ही लिख रहा हूँ ऐसा इसीलिए कि हाल ही के अनुभव सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देना बड़ी समझदारी नहीं । फिर मैं ऐसी बातें ही यहां पोस्ट करना चाहता हूँ जिसे पढ़कर पाठक गण को भी कुछ अनंदभूति हो... 

वैसे वर्तमान जीवन के अनुभव भी समय समय पर यहाँ आते रहेंगे...

बहरहाल बात 97 -98 की ही है युवा वय का मैं और मेरे साथ मेरा प्रेम संगीत। एक ग़ज़ल कंपेटीशन में मिलना हुआ भाई "भारती" जी से।। लंबा पूरा कद, बड़ी आंखें, घुंघराले लंबे बाल और उर्दू के शब्दों का कमाल उच्चारण, बेहतरीन हारमोनियम वादक और मुझे छोटे भाई की तरह प्रेम करने वाले... मुझे "मनु" कहकर पुकारते थे वो, मुझसे उम्र में काफी बड़े ( वैसे मैंने उनसे कभी उनकी उम्र, वैवाहिक जीवन या कमाई के बारे में कुछ भी नहीं पूछा)।

तो पहली ग़ज़ल जो उनसे सुनी वो पंकज उधास साहब की गाई हुई ग़ज़ल थी... एक-एक मिसरा लाजवाब... एक एक शेर कमाल । बोल थे :

"ला पिला दे साकिया ,पैमाना पैमाने के बाद 
होश की बातें करूँगा , होश में आने के बाद 

दिल मेरा लेने की खातिर मिन्नतें क्या क्या न की 
कैसे नज़रें फेर ली, मतलब निकल जाने के बाद 

वक़्त सारी ज़िन्दगी में, दो ही गुज़रे है कठिन 
एक तेरे आने से पहले , एक तेरे जाने के बाद 

सुर्खरू होता है इंसां, ठोकरें खाने के बाद 
रंग लाती है हीना, पत्थर पे पिस जाने के बाद "

इसके बाद तो बैठकों का सिलसिला चल पड़ा। वो पंकज उधास, चंदन दास और अहमद मोहम्मद हुसैन को ही गाते थे।। उनकी रूहानी आवाज़ में ग़ज़ल सुनना कमाल का सुकून देता था।।

मैंने पंकज उधास और चंदन दास साहब को जितना भी सुना भारती जी के मुख से ही सुना कभी कोई कैसेट या CD नहीं खरीदी।

मुझे लगता था ये आदमी एक दिन बहुत ही बड़ा कलाकार बनेगा।

 लगातार उनका हमारे घर आना जाना कुछ समय तक बना रहा  फिर अचानक से वो एक दिन गायब हो गए... मुझे न तो उनका घर पता था और न ही उनका कोई लैंड लाइन फ़ोन नंबर था। ढूंढता भी तो कहाँ।

फिर कई साल बीतने के बाद  एक रोज़ किसी शादी की बारात में मैंने कीबोर्ड की धुन सूनी और उस धुन में जानी पहचानी खुशबू सूंघ कर मैं पहुंचा उस की बोर्ड बजाने वाले के पास।।

देखता क्या हूँ ये तो वही महान कालाकार है बारात में बैंड का हिस्सा बना हुआ है , शरीर सूख चूका , रंग झुलस गया है और आदमी परेशान दिखाई पड़ रहा है।।

मैंने पास जाकर बात करने की कोशिश की लेकिन बारात की भीड़ में और शायद काम में मशगूल होने के कारण कुछ बात नहीं हो पाई मुझे लगा शायद ये पहचानना नहीं चाह रहे लेकिन मुझे देख कर उनकी आंखों में एक चमक तो आ ही गई थी।

बात हुई तो बताया कि उन्होंने ग़ज़ल गाना छोड़ दिया है। कुछ छोटे मोटे काम करके गुज़ारा कर रहे हैं।। मैन कहा घर आइएगा बैठकर कुछ प्लान करते हैं। और फिर उनसे दोबारा आज तलक मिलना नहीं हुआ।। खुद्दार इंसान की यही पहचान है खुशियां बांटता है और ग़म पी जाता है।।

समय की मार और मुफलिसी इंसान को जो न कराए वो थोड़ा है। एक महान ग़ज़ल गायक पता नहीं आज किस स्थिति में है।। उम्मीद करता हूँ कि जीवन के किसी मोड़ पर उनसे मुलाक़ात होगी।।

मेरे देखे समाज की यह महती ज़िम्मेदारी है कि अपने आस पास के कालाकारों को सहेजें।। ध्यान रहे दुनियां ऐसे लोगों से ही खूबसूरत है।।

फ़िराक़ याद आते हैं:

"माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी

ख़ुदा को पा गया वायज़, मगर है
ज़रूरत आदमी को आदमी की

मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी"


✍️MJ

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