Diary Ke Panne

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024

गौहर-ए-नायाब


 

पिछले दिनों एक स्टूडेंट का मिलने आना हुआ. वो अपने माता पिता के साथ मिलने आई थी. जज बन चुकी है और पोस्टिंग को भी कई महीने बीत चुके. मुझे लगा शायद कुछ सीरियस मैटर है.


जब भी स्टूडेंट्स का सिलेक्शन होता है तो अधिकतर से मेरी फ़ोन पर बात हो जाती है और मिलना भी हो जाता है. लेकिन इस स्टूडेंट से ना तो मेरी बात ही हो पाई थी और ना ही मिलना. उसका कारण ये है कि बाजारवाद के इस दौर में मैं सलेक्टेड कैंडिडेट को कॉल लगाकर बात करने से बचना चाहता हूँ. जहां हर कोई सफलता का बाप बनने की कोशिश कर रहा हो तो वहाँ मैं उन स्टूडेंट्स के साथ खड़ा हो जाना ठीक समझता हूँ, जो किसी कारण से रह गये. ऐसे में मैंने कॉल नहीं किया और उसका भी कॉल नहीं आया.


बेहद सौम्य मुस्कान वाली ये लड़की जब 2021 में पढ़ने आई थी तो बेहद शांत और घबराई सी रहती थी एक बार मैंने किसी बात पर ज़ोरदार डाँट दिया था तो आँसू बह निकले थे, और फिर मुझे ही अपना रूमाल देना पड़ा था… उसे देखकर सारी पुरानी बातें याद आ गई. 


आते ही उसने पाँव छुए और बोली सर मैं आपसे माफ़ी माँगने आई हूँ. क्यूँकि सिलेक्शन के बाद मैं अभी आ रही हूँ और आपसे बात भी नहीं की.

मैं- अरे किस बात को माफ़ी अब तो तुम “जज” हो बधाई लेने का समय है ये ना कि माफ़ी माँगने का.


उसके पिता भी मेरे पाँव छूने के लिए झुके और मैंने उनका हाथ थाम लिया, मैंने कहा- ना ना आप बड़े हैं आप तो आशीर्वाद दीजिए. 


हाथ जोड़े बैठे पिता ने बताया कि वो चाय का ठेला लगाते हैं और माता जी भी घरों में काम करती है. 


लड़की बोली सर आपको याद है जब मैं पढ़ने आई थी तो आपने ही हौसला बढ़ाया था कि तुम थोड़ी मेहनत करो तो जज बन सकती हो, आपकी डाँट से मैं तो रो पड़ती थी लेकिन मेरा फ़ोकस भी उसके कारण ही बढ़ा. आपने अपनी किताबें भी मुझे पढ़ने के लिए दी, आप हर एक स्टूडेंट का ख़्याल रखते हैं.. आप मेरा नाम लेकर क्लास में कहते थे जागो तो मुझे तो स्पेशल फील होता था. आपके लिखाए नोट्स आज भी मेरे काम आ रहे हैं और आपके लेक्चर्स तो मैं आज भी मिस करती हूँ. उसकी आँखों में फिर आंसू थे. 


मैंने माहौल हल्का करने के लिए बात बदली, चाय के लिए कमल को बोला और फिर पूछा ये बताओ सिलेक्शन के बाद क्यूँ नहीं आई, कॉल तक नहीं किया.


वो बोली- बात ये है कि मैं फ़ोन पर बात नहीं करना चाहती थी. आपसे मिलकर आशीर्वाद लेना चाहती थी. बताना चाहती थी कि आपने रास्ते के पत्थर को तराशकर अनमोल हीरा बना दिया है. दूसरी बात ये कि आप सलेक्टेड लोगों का सम्मान करते हैं जबकि सम्मान आपका होना चाहिए. मेरे पास पैसे नहीं थे कि आपको कुछ दे पाती… ख़ाली हाथ आने का मन नहीं था… सोचा था पहली सैलरी मिलते ही आपके चरणों में रख दूँगी लेकिन काम में ऐसी उलझी की आने वक्त ही नहीं मिला.  लेकिन मैंने पहली सैलरी निकाल कर रख ली थी जो आज लेकर आई हूँ .


उसने आग्रह पूर्वक मेरी ओर नोटों से भरा लिफ़ाफ़ा बढ़ाते हुए कहा स्वीकार कीजिए और आशीर्वाद दीजिए. मैंने लिफ़ाफ़ा लिया अब मेरी आँखें नम थीं, भावनाओं का ज्वार उमड़-घुमड़ रहा था, कितनी दुआएँ दूँ इस बच्ची को!! ये कृतघ्नता का दौर है आज के समय में बच्चे माँ बाप को क्रेडिट नहीं देते और देखो तो क्या ही प्यारे संस्कार हैं कि ये अपनी मेहनत और सफलता का श्रेय मुझे दे रही है.


मैंने उसमें से एक पाँच सौ का नोट निकाला कमल को बुलाकर कहा कि मिठाई ले आओ और लिफ़ाफ़ा माता जी के हाथों में थमा दिया और कहा कि इसपर पहला हक़ माँ का है. बोली सर माँ का हक़ तो सब पर है ये आप रखिए.


मैंने लिफ़ाफ़ा उसके पर्स में डाल दिया क्यूँकि जो सुख और अनुभूति का एहसास मैं कर रहा था उसके सामने सारे संसार की संपदा भी तुच्छ मालूम पड़ रही थी…. लगा जैसे वो बच्ची ही नहीं सफल हुई मेरा शिक्षक होना भी सफल हुआ.


“कर दिया ख़ुद को समुंदर के हवाले हम ने

तब कहीं गौहर-ए-नायाब निकाले हम ने


ज़िंदगी नाम है चलने का तो चलते ही रहे

रुक के देखे न कभी पाँव के छाले हम ने”


✍️एमजे




रविवार, 6 अक्टूबर 2024

कल रात जहां मैं था…









देश में नवरात्रि की धूम है, माता रानी के दरबार और दुर्गा पंडालों में गरबे… और उसपर इंदौर टॉक द्वारा सजाया गया गरबा ग्रूव. कल रात मैं सपरिवार यहीं इसी कार्यक्रम का हिस्सा बना, गवाह बना. 

जब ज़िम्मेदारी के पौधे में कर्तव्य के पुष्प पल्लवित होते हैं तो उसकी सुगंध कैसी होती है ये महसूस करना हो तो इंदौर टॉक के किसी भी कार्यक्रम में पहुँच जाइए.. अतुल और आशीष भाई द्वारा कसे हुए कार्यक्रम कैसे आयोजित किए जाते हैं? कार्यक्रम में पारिवारिक माहौल के बीच भव्यता को कैसे सजाया जाता है? सुरक्षा को कितना महत्व दिया जाना चाहिये..आदि-आदि कई बातें हैं जो इनके इवेंट से समझी और सीखी जा सकती हैं. सबसे महत्वपूर्ण किसी भी सेलिब्रिटी से ज़्यादा महत्वपूर्ण परिवार और स्थानीय मित्र होते हैं ये बात सिर्फ़ और सिर्फ़ इंदौर टॉक के कार्यक्रमों में ही देखने को मिलती है.

कल का कार्यक्रम भी कुछ ऐसा ही अद्भुत था. मैरियट होटल के लॉन में सजा था गरबा पंडाल और कार्यक्रम की शुरुआत माँ की भव्य आरती से की गई.. फिर हनुमत पथक का मंत्र मुग्ध कर देने वाला और रोंगटें खड़े कर देने वाला ढोल वादन.. जिसमें युवा लड़के और लड़कियाँ अपने वज़न के बराबर ही वज़न का ढोल कमर में बांधे गणपति, दुर्गा और शिव की स्तुति करते हैं, अपने ढोल वादन से.. आपने इनके वायरल वीडियो देखे होंगे केदार नाथ और तुंग नाथ में वादन करते हुए. कुल 6 वर्ल्ड रिकॉर्ड्स हैं हनुमत पथक के नाम पर.

फिर शुरू हुआ लाईव म्यूजिक, और गरबा करते लोग घण्टों झूमते रहे आकांक्षा की आवाज़ और उनके ऑर्केस्ट्रा के संगीत पर. वैष्णवी ने क्या ही खूब संचालन किया!

अहा ! क्या तो आयोजन और क्या ही संयोजन… व्यावसायिकता के इस दौर में पारिवारिकता और शुचिता को महत्व देते इस तरह का आयोजन करने के लिए भाई साहब मोहन पांडे जी और इंदौर टॉक की पूरी टीम को साधुवाद… मुझे गर्व होता है कि हम तिवारी बंधुओं के स्नेह और सम्मान के पात्र हैं ❤️


 

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

श्राद्ध का मनोविज्ञान



किसी भी त्योहार या कर्म काण्ड  का मज़ाक़ बनाना अब आम बात मालूम पड़ती है.. मूर्खों का यही तरीक़ा होता है जो बात समझ नहीं आई या जो अपनी समझ से बाहर का हो उसका मज़ाक़ बना दो. देखो कैसे बॉलिवुडिया फ़िल्मों में शास्त्रीय संगीत का मज़ाक़ बनाया जाता है कारण साफ़ है.


श्राद्ध कर्म और मृत्यु भोज का भी ऐसे ही लगातार मज़ाक़ बनाया जाता रहा है और इन दिनों तो इसकी बाढ़ सी आ गई है.


मैंने एक कहानी सुनी थी कि कैसे एक बार एक संत अपने घर के बाहर पानी फेंक रहे थे तो किसी ने पूछा ये क्या कर रहे हो उन्होंने कहा कि अपने खेतों को पानी दें रहा हूँ वह व्यक्ति हंसा कहता है कि यहाँ पानी फेंकने से कैसे ख़ेत को पानी मिलेगा?? संत कहते हैं जैसे यहाँ श्राद्ध कर्म करने से तुम्हारे पितरों को दूसरी दुनियाँ में भोजन मिलता है.


संत की बात सटीक मालूम पड़ती है क्योंकि हमें श्राद्ध कर्म की सच्चाई और विज्ञान का नहीं पता. ये ठीक वैसा है जैसे आप AC के रिमोट से tv को कंट्रोल करना चाहते हों और विज्ञान का मज़ाक़ बनाते हों.


मुझे तो ये श्राद्ध कर्म और मृत्यु पश्चात के रिचुअल्स कमाल मनोवैज्ञानिक मालूम पड़ते हैं. दो अनुभव बताता हूँ -


  1. मेरे ताऊ जी की जब मृत्यु हुई उस समय मेरे मन में उनके लिए कुछ न कर पाने की टीस थी.. दो दिन तक तो कुछ खाने का भी मन नहीं था, उनको अग्नि देकर घर आने के बाद लगने लगा था जैसे ये संसार आसार है. लेकिन तेरह दिनों के कर्मकांड ने मुझे नार्मल होने में मदद की. लोगों का घर आते रहना और सिर्फ़ रिचुअल्स के लिये उनके साथ खाने बैठना, मेरी अनासक्ति को तोड़ने में कारगर साबित हुए. और इतनी सी बात की वो अभी भी हमारे आसपास हैं, उनके लिए प्रार्थना करना और उनको अपने हाथ से भोजन बना कर परोसना ये सारे कर्मकाण्ड मन की इस ग्लानि को धोने के लिए पर्याप्त थे कि मैं उनके लिए कुछ नहीं कर सका.
  2. कुछ समय पहले सास को मृत्यु हुई, पंडित जी ने कहा संकल्प लें कि उनकी आख़री इच्छा पूरी करेंगे और उनका श्रद्धाएँ और पिंड दान विधान पूर्वक करेंगे.. मैंने कहा उनकी सारी इच्छाएँ जो कुछ उन्होंने मुझे बताईं उनके जीवन काल में ही पूरी कर चुका हूँ, हाँ एक इच्छा उनकी रह गई थी, गया जाने की तो वो पूरी करूँगा ही….अब जब भी उनकी तिथि आती है बेटियों को ध्यान आता है कि मम्मी को क्या पसंद था वो उस दिन इनके मन का भोजन पकाती हैं और परोसती हैं जो किसी गाय को या किसी वृद्ध को या किसी पक्षी को या किसी ज़रूरतमंद को या किसी विद्वान को खिलाई जाती है, कितनी असीम शांति उनको मिलती होगी ये उनसे ही पूछा जा सकता है.


बहरहाल श्राद्धकर्म उन मूर्खों के लिए भी है जिन्होंने अपने बुजुर्गों को जीते जी सताया लेकिन अब उनके मन में पछतावा है और वो पश्चाताप करना चाहते हैं. कितना सुंदर, कितना गहरा कितना वैज्ञानिक सीधे मानव मन से जुड़ा है ये श्राद्ध पर्व.


जब अपने किसी प्रिय जन की मृत्यु से, आत्मा के आकाश में, ख़ालीपन का पौधा उगे तो उसमें उगने देना संताप के फूल और उससे निकलने वाले शोक की ख़ुशबू को व्याप जाने देना अपने अस्तित्व के ब्रह्मांड में में. फिर समूह पाओगे श्राद्ध पर्व जैसे महत्वपूर्ण कर्मकाण्ड को.


 ध्यान रखना श्री कृष्ण ने कहा है -

जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु, ध्रुवम् जन्म मृतस्य च |

 तस्माद् अपरिहार्येर्थे, न त्वम् शोचितुमर्हसि ||” 


अर्थात: “ जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है..और मृत्यु के बाद जन्म अवश्य होता है... जिसमें कोई परिवर्तन न हो सके ऐसी यह कुदरती व्यवस्था है. अतः किसी की मृत्यु पर शोक करना वैसे तो उचित नहीं है.”

   

                  जो भी हो मेरे देखे जीवन की खूबसूरती मृत्यु से है... और जब तक जीवित हैं किसी ग्लानि के बोझ से हम न दबे रहें.. अपने पूर्वजों को याद रखें और इसी बहाने कुछ लोगों को भोजन भी मिल जाए तो बात ही क्या..


✍️एमजे


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