किसी भी त्योहार या कर्म काण्ड का मज़ाक़ बनाना अब आम बात मालूम पड़ती है.. मूर्खों का यही तरीक़ा होता है जो बात समझ नहीं आई या जो अपनी समझ से बाहर का हो उसका मज़ाक़ बना दो. देखो कैसे बॉलिवुडिया फ़िल्मों में शास्त्रीय संगीत का मज़ाक़ बनाया जाता है कारण साफ़ है.
श्राद्ध कर्म और मृत्यु भोज का भी ऐसे ही लगातार मज़ाक़ बनाया जाता रहा है और इन दिनों तो इसकी बाढ़ सी आ गई है.
मैंने एक कहानी सुनी थी कि कैसे एक बार एक संत अपने घर के बाहर पानी फेंक रहे थे तो किसी ने पूछा ये क्या कर रहे हो उन्होंने कहा कि अपने खेतों को पानी दें रहा हूँ वह व्यक्ति हंसा कहता है कि यहाँ पानी फेंकने से कैसे ख़ेत को पानी मिलेगा?? संत कहते हैं जैसे यहाँ श्राद्ध कर्म करने से तुम्हारे पितरों को दूसरी दुनियाँ में भोजन मिलता है.
संत की बात सटीक मालूम पड़ती है क्योंकि हमें श्राद्ध कर्म की सच्चाई और विज्ञान का नहीं पता. ये ठीक वैसा है जैसे आप AC के रिमोट से tv को कंट्रोल करना चाहते हों और विज्ञान का मज़ाक़ बनाते हों.
मुझे तो ये श्राद्ध कर्म और मृत्यु पश्चात के रिचुअल्स कमाल मनोवैज्ञानिक मालूम पड़ते हैं. दो अनुभव बताता हूँ -
- मेरे ताऊ जी की जब मृत्यु हुई उस समय मेरे मन में उनके लिए कुछ न कर पाने की टीस थी.. दो दिन तक तो कुछ खाने का भी मन नहीं था, उनको अग्नि देकर घर आने के बाद लगने लगा था जैसे ये संसार आसार है. लेकिन तेरह दिनों के कर्मकांड ने मुझे नार्मल होने में मदद की. लोगों का घर आते रहना और सिर्फ़ रिचुअल्स के लिये उनके साथ खाने बैठना, मेरी अनासक्ति को तोड़ने में कारगर साबित हुए. और इतनी सी बात की वो अभी भी हमारे आसपास हैं, उनके लिए प्रार्थना करना और उनको अपने हाथ से भोजन बना कर परोसना ये सारे कर्मकाण्ड मन की इस ग्लानि को धोने के लिए पर्याप्त थे कि मैं उनके लिए कुछ नहीं कर सका.
- कुछ समय पहले सास को मृत्यु हुई, पंडित जी ने कहा संकल्प लें कि उनकी आख़री इच्छा पूरी करेंगे और उनका श्रद्धाएँ और पिंड दान विधान पूर्वक करेंगे.. मैंने कहा उनकी सारी इच्छाएँ जो कुछ उन्होंने मुझे बताईं उनके जीवन काल में ही पूरी कर चुका हूँ, हाँ एक इच्छा उनकी रह गई थी, गया जाने की तो वो पूरी करूँगा ही….अब जब भी उनकी तिथि आती है बेटियों को ध्यान आता है कि मम्मी को क्या पसंद था वो उस दिन इनके मन का भोजन पकाती हैं और परोसती हैं जो किसी गाय को या किसी वृद्ध को या किसी पक्षी को या किसी ज़रूरतमंद को या किसी विद्वान को खिलाई जाती है, कितनी असीम शांति उनको मिलती होगी ये उनसे ही पूछा जा सकता है.
बहरहाल श्राद्धकर्म उन मूर्खों के लिए भी है जिन्होंने अपने बुजुर्गों को जीते जी सताया लेकिन अब उनके मन में पछतावा है और वो पश्चाताप करना चाहते हैं. कितना सुंदर, कितना गहरा कितना वैज्ञानिक सीधे मानव मन से जुड़ा है ये श्राद्ध पर्व.
जब अपने किसी प्रिय जन की मृत्यु से, आत्मा के आकाश में, ख़ालीपन का पौधा उगे तो उसमें उगने देना संताप के फूल और उससे निकलने वाले शोक की ख़ुशबू को व्याप जाने देना अपने अस्तित्व के ब्रह्मांड में में. फिर समूह पाओगे श्राद्ध पर्व जैसे महत्वपूर्ण कर्मकाण्ड को.
ध्यान रखना श्री कृष्ण ने कहा है -
जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु, ध्रुवम् जन्म मृतस्य च |
तस्माद् अपरिहार्येर्थे, न त्वम् शोचितुमर्हसि ||”
अर्थात: “ जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है..और मृत्यु के बाद जन्म अवश्य होता है... जिसमें कोई परिवर्तन न हो सके ऐसी यह कुदरती व्यवस्था है. अतः किसी की मृत्यु पर शोक करना वैसे तो उचित नहीं है.”
जो भी हो मेरे देखे जीवन की खूबसूरती मृत्यु से है... और जब तक जीवित हैं किसी ग्लानि के बोझ से हम न दबे रहें.. अपने पूर्वजों को याद रखें और इसी बहाने कुछ लोगों को भोजन भी मिल जाए तो बात ही क्या..
✍️एमजे
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