कक्षा आठ में था जब पहली बार तबला शब्द सुना. ढोलक पता था देखा था छुआ भी था लेकिन ये तबला क्या होता है ? पापा चाहते थे कि मैं ढोलक बजाना सीखूँ जिसके लिए शहर के सबसे योग्य शिक्षक की तलाश की गई और उन्होंने सुझाया कि मोहन को तबला सिखाओ ढोलक और बाक़ी दूसरे ताल वाद्य तो वो वैसे ही बजा लेगा.
पिताजी के साथ योग्य गुरु से मिलने पहुँचे, तो उन्होंने कहा कि रोज़ एक घंटे की क्लास लगेगी और घर पर भी कम से कम एक घंटे रियाज़ करना होगा मैं हाँ में हाँ मिलाता रहा. और हम रामदास गुरुजी के यहाँ से लौट आए. मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि पूछता तबला कैसा होता है? उससे मिलवाइये ना सही कम से कम शक्ल ही दिखा दीजिए.
बहरहाल सीखना शुरू हुआ और मुझे घर पर रियाज़ करने के लिए तबला ख़रीदना था. माता जी से कहा तो बोली हर महीने कुछ पैसा जमा करके ख़रीदलेना एक साथ ढाई हज़ार रुपए नहीं दे सकती. घर का सारा बजट वही देखती थी. पैसों के मामले में एकदम सुलझी. हमने कभी उनको फ़िज़ूल खर्ची करते नहीं देखा.
खैर घर पर हमारे एक जर्सी गाय पाल रखी थी. मैं रोज़ एक घर में दूध की डिलीवरी करने जाता जहाँ से हर महीने 400 रुपए मिलते. पूरे पैसे जमा करता अपने गुल्लक में और कुछ महीनों के भीतर ही मेरे पास 2800 रुपए जमा हो चुके थे. तबला ख़रीदने विशेष रूप से रायपुर गया और वहाँ से ख़ूबसूरत सा तबला ख़रीद लाया.
कुछ वर्षों बाद जब मैं भी कमाने लगा था और मेरी तबले की विधिवत शिक्षा पूरी हो चुकी थी और उच्च शिक्षा के लिए गुरुदेव छोटेलाल व्यास के सान्निध्य और सेवा में लगा था तब मेरे एक मित्र थे उधौ चतुर्वेदी (गुरु जी हमें उधौ और माधौ कहते थे) के साथ हैदराबाद तबला ख़रीदने गया और उसी जगह से तबला ख़रीदकर लाया जहाँ से उस्ताद ज़ाकिर हुसैन तबला बनवाते थे. ये वो समय था जब तबले और शास्त्रीय संगीत के प्रति मेरी दीवानगी अपने चरम पर थी. लगता था जैसे यही जीवन है.
इस समय तक मन ही मन एक और व्यक्ति को गुरु मान चुका था उस्ताद ज़ाकिर हुसैन.. इनके कैसेट हमारे घर पर थे… और दूरदर्शन पर यदा कदा उनके दर्शन हो जाया करते थे. उस्ताद जी से एक ही बार संयोग से मिलना हुआ वो भी तब जब मैंने तबला बजाना छोड़ दिया था. राजस्थान के जोधपुर शहर में एक कार्यक्रम का आयोजन था जहाँ मुझे भी श्रोता के रूप में निमंत्रित किया गया था.. मंत्रमुग्ध कर देने वाले तबला वादन को सुनने के बाद ग्रीन रूम में उनसे मिलने पहुंचा, मैंने कहा उस्ताद जी प्रणाम, बोले उस्ताद बड़े लोग होते हैं मुझे ज़ाकिर ही कहो. बेहद सादा दिल महान कलाकार.. उन्होंने पूछा क्या अभी तबला बजाते हो ?? मैंने कहा नहीं बस आपको सुनता रहता हूँ तबला बजाना छोड़ दिया है…
बहरहाल कल शाम से ही मन असहज था पता नहीं क्यों रात नींद ही नहीं आ रही थी. बेचैनी का कोई कारण तो ना था लेकिन मन बेचैन था सुबह उठा तो उस्ताद जी के नहीं रहने की खबर पढ़ कर मन अवाक् रह गया.. फिर ख्याल आया कि आत्मा के आकाश से तारा जो टूटा था, मन कैसे बेचैन ना होता??
हमने ये सुन के दिल को समझाया
कि जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं…
उस्ताद ज़ाकिर साहब 🙏 मेरे गुरु थे. उनका जाना अपूरणीय है.
✍️एमजे
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अविस्मरणीय
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