Diary Ke Panne

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

शिशुपाल वध , माघ और मैं......

31 January 2017



         तबीअत नासाज़ है छुट्टी पर चल रहा हूँ और छुट्टियों का सदुपयोग कैसे किया जाय ये मुझसे अच्छा भला कौन जानता होगा ...... जी हाँ पढ और लिख कर.... शायद इस तरह से छुट्टियों का ही नहीं जीवन का भी सदुपयोग किया जा सकता है.... तो क्या? महाकवि माघ की रचना उठा ली पढने के लिए “शिशुपाल वध”... अहा! क्या शिल्प है... वाह! क्या काव्य है... ऐसा लगा जैसे मेरे हाथ कोई खजाना लग गया हो.... यदि आप संस्कृत भाषा से प्रेम करते हैं और आपने माघ को नहीं पढ़ा तो फिर आपका प्रेम अधुरा है..........

           मुझे याद आता है संस्कृत से मेरा विधिवत परिचय कक्षा छठी में हुआ.... शाला उत्सव में मुझे कार्यक्रम की शुरुआत सरस्वती वंदना से करनी थी और बड़े भैया ने उस समय के कक्षा आठ का पहला पाठ मुझे कंठस्थ करने को कहा.... कठिन शब्दावली..... जिसे पढ़ते न बने उसे याद करना बाप रे बाप!! .... मझले भैया  की मदद से याद कर पाया.... और मुझे वो अभी भी याद है :

या कुंदेंदु तुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता | या वीणावर दण्डमंडितकरा, या श्वेतपद्मासना ||
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता | सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्यापहा ||
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमां आद्यां जगद्व्यापिनीं| वीणा पुस्तक धारिणीं अभयदां जाड्यान्धकारापाहां||
हस्ते स्फटिक मालीकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां| वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धि प्रदां शारदां||

            यहाँ से वंदना शुरू होती थी और समाप्त होती थी ...... “नाद ब्रहम मई जय वागीश्वरी तव चरणौ प्रणमामः “ शब्दों के साथ ...... पहली मंचीय प्रस्तुति भी मेरे जीवन में यही रही जैसा मुझे याद है... बड़ी जन सभा के सामने मंच पर जाने का साहस मैं नहीं जुटा पा रहा था..... बड़े भैया ने कहा मैं मंच पर रहूँगा और कुछ भूल जाएगा तो याद दिला दूंगा.... इस बात से मुझे बड़ा संबल मिला.... फिर क्या था वंदना मैंने पढ़ी और पूरा सभाग्रह तालियों की अनुगूँज से भर गया.... यहाँ से शुरू होता है मेरा संस्कृत प्रेम.......

         बहरहाल मैं शिशुपाल वध पढ़ रहा हूँ ..... पूरा पढ़ लूँगा तो शायद कुछ लिखने की स्थिति में नहीं बचूंगा इसीलिए कुछ ख़ास बातें जो मैंने पढ़ीं और समझी सोचता हूँ डायरी में उतार लूं | इस महा काव्य  को पढ़कर मैं संस्कृत  साहित्य की अनंतता को भी  समझ रहा हूँ... एक श्लोक जो मुझे  प्रिय लगा कुछ इस तरह है:
           "चतुर्थोपायसाध्ये तु शत्रौ सान्त्वमपक्रिया। 
           स्वेधमामज्वरं प्राज्ञः कोऽम्भसा परिषिञ्चति।।"
अर्थात: दण्ड के द्वारा वश में आने वाले लोगों  के साथ शान्तिपूर्ण व्यवहार करना अंततः हानि ही पहुंचता है, क्योंकि पसीना लाने वाले ज्वर को कौन सा चिकित्सक पानी छिड़ककर शान्त करता है ? अर्थात् कोई नहीं।

             इस महाकाव्य को पढ़ते हुए  पहली बार मेरा परिचय एकाक्षर श्लोक से हुआ.... एकाक्षर श्लोक ऐसा श्लोक होता है जिसमें केवल एक ही अक्षर से शब्दों की रचना और फिर श्लोक भी रच दी जाते हैं देखिये महाकवि माघ की विद्वत्ता का एक और परिचय...... अद्भुत श्लोक .
         “दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः|
           दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः||”
         इस श्लोक में  केवल द अक्षर का ही प्रयोग किया गया है .... अद्भुत

अर्थ  : दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खण्डन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया|  इस अद्भुत श्लोक के माध्यम से महाकवि ने उस समय का वर्णन करने हेतु द वर्ण के प्रयोग से चमत्कार उत्पन्न किया है जब शिशुपाल का वध करने हेतु श्री कृष्ण खड़े हुए और हाथ में सुदर्शन चक्र ले लिया...... वाह!

आनंद के सागर में गोते लगा रहा हूँ ....


                                   -मन मोहन जोशी "मन"

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