14 February
2017
शाम के 5.50 बजे हैं ... valentine’s day सेलिब्रेट करने वाइफ के साथ अभी ऑफिस से निकला हूँ.... एक फ़ोन कॉल
आता है....... निश्छल खिलखिलाती हुई हंसी के साथ आवाज़ कान में पड़ती है.... मनमोहन?....
मैं कहता हूँ, हाँ!.....आवाज़ आती है कैसा है??.....
मैं पूछता हूँ कौन अनुराग??...... एक बचपन का मित्र जिसने एक दिन
पहले फेस बुक पर मेरा नंबर लिया था उसने फ़ोन किया है.....कई सालों बाद हमने फ़ोन पर
एक दुसरे की आवाज़ सुनी........ मिले तो कई साल बीत गए.... लगता है जैसे कई जन्म बीत गए
हों.... लेकिन जब याद करता हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है की कल ही की तो बात थी जब हम एक ही स्कूल के एक ही क्लास में पढ़ते थे (पढ़ते तो क्या थे बदमाशियां करते थे) ..... मैं कहता हूँ तेरी आवाज़ तो
बदली ही नहीं... और जवाब में वही जानी पहचानी हंसी.....
सोचता हूँ की जीवन की असली कमाई ये दोस्त ही तो हैं...... याद आता है मैं एक बार जोधपुर (राजस्थान का
एक शहर) में बीमार पड़ा था, सात दिनों तक हॉस्पिटल में एडमिट रहा था और सात दिन बाद जब
डॉक्टर ने डिस्चार्ज करने की बात की तो मैंने पूछा था क्या एक आध दिन और रह सकता
हूँ?? कारण थे वो मित्र जिन्होंने सुबह शाम हॉस्पिटल में मेरा ख्याल रखा ... घर
वालों की तो याद ही नहीं आई.....
ये फ्रेंडशिप या मित्रता आखिर क्या बला है ?? मेरे देखे ये ऐसा
प्रगाढ़ सम्बन्ध है जो देश, काल, परिस्थिति , लिंग , वंश, जन्मस्थान, जाति आदि से
परे है..... मित्रता की अवधारणा, स्वरूप
और उसके सामाजिक-मनोवैज्ञानिक पक्षों का समाजशास्त्र, सामाजिक
मनोविज्ञान, नृतत्वशास्त्र,
दर्शन,
साहित्य आदि आकादमिक अनुशासनों में अध्ययन किया जाता रहा है। इससे
संबंधित अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि सामाजिक विनिमय
सिद्धांत, साम्य सिद्धांत,
संबंधात्मक द्वंद्ववाद, आसक्ति पद्धति आदि।
विश्व खुशहाली डाटाबेस के अध्ययनों में पाया गया
है कि जिनके अधिक मित्र होते हैं वे तुलनात्मक रूप से ज्यादा खुशहाल रहते हैं ।
मेरे देखे दुनिया की कोई भी ख़ुशी परिपूर्ण नहीं होती, जब तक कि उसमें मित्रों का साथ न हो । आचार्य श्री रामचंद्र
शुक्ल ने कहा है, “सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की सी निपुणता और परख
होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती है, ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक को करना चाहिए।" सोचता हूँ क्या
मित्रता भी प्रयत्न करने से हो सकती है????
एक बार किसी व्यक्ति ने गौतम बुद्ध से पूछा कि क्या बुद्धपुरुष के भी
मित्र होते हैं? उन्होंने जवाब दिया: नहीं। प्रश्नकर्ता अचंभित रह गया, क्योंकि वह सोच रहा था कि जो व्यक्ति स्वयं बुद्ध हो चुका उसके लिए
सारा संसार ही मित्र होना चाहिए। पर मेरे देखे गौतम बुद्ध बिलकुल सही कह रहे हैं। जब वे कहते हैं कि बुद्धपुरुष के मित्र नहीं होते, तब वे कह रहे हैं कि उनका कोई मित्र
नहीं होता, क्योंकि उनका कोई शत्रु भी नहीं होता। ये दोनों चीजें एक साथ आती हैं। इससे
ये बात तो साफ़ हुई की बुद्ध बनने की राह पर चलते हुए अपन महावीर के स्यात वाद तक
भी नहीं पहुँच पाए .... क्यूंकि अपने तो मित्र हैं....
बरबस ही निदा फाजली की कुछ पंक्तियाँ मन के द्वार पर दस्तक दे रही हैं :
“हँसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत,
रोने की यहाँ वैसे भी फ़ुर्सत नहीं मिलती |
कुछ लोग यूँही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं,
हर एक से अपनी भी तबीअ'त
नहीं मिलती ||”
-
मन मोहन जोशी “मन”
8 टिप्पणियां:
अति उत्तम सर जी दोस्ती की अब तक की सबसे अच्छी परिभाषा
Shukriya Arvind...
Man ki bat dil ko Chu gyi sir..apne hamari jigayasha ko apne savdo me me paribhashit kar diya..Ty sir
शुक्रिया अजीत..... पढ़ते रहें और अपने मित्रों से भी शेयर करें.
शुक्रिया अजीत..... पढ़ते रहें और अपने मित्रों से भी शेयर करें.
We r very thnkful sir to know ur great thoughts
शुक्रिया अपर्णा।।
एक टिप्पणी भेजें