Diary Ke Panne

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

निजता का अधिकार : ऐसी भी अदालत है जो रूह परखती है...



               आज कल इतना कुछ घट रहा है (निजी जीवन और देश काल में भी) कि लिखने को बहुत कुछ है...आज सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार पर अपना बहु प्रतीक्षित फैसला सुना दिया. मेरे लिए ये निर्णय यूँ ख़ास है कि मैं लगातार इस मुद्दे पर लिखता और बोलता रहा हूँ... जस्टिस खेहर सिंह कुछ ही दिनों में रिटायर होने वाले हैं, लगता है वो, जाने से पहले सारे विवादित मामले निपटा कर जाना चाहते  हैं.....

                              बहरहाल निजता के अधिकार का मुद्दा केंद्र सरकार की तमाम समाज कल्याण योजनाओं का लाभ हासिल करने के लिए आधार को अनिवार्य करने संबंधी कदम को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान उठा था.

               केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह सवाल उठा कर सबको चौंका दिया कि क्या निजता का अधिकार मूल अधिकार है ? यह सवाल इसलिए भी व्यर्थ है, क्योंकि सुप्रीमकोर्ट ने अपनी कई व्याख्याओं में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकारों के तहत माना है | केंद्र सरकार  “आधार”  को अनिवार्य करने के  चक्कर में तरह - तरह की दलीलें दिए जा रही है.

                   केंद्र सरकार की ओर से “ आधार “ को आधार प्रदान करने के लिए बहस करते हुए अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने अदालत में कहा कि संविधान निजता के अधिकार को मान्यता नहीं देता. उन्होंने इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट को उन फैसलों पर पुनर्विचार करने को कहा जिनमें निजता के अधिकार को मूल अधिकार के तौर पर परिभाषित किया गया है. उल्लेखनीय है कि बिना संसद की मंज़ूरी और शीर्ष अदालत की मुहर के UPA सरकार ने “आधार” को लागू करने की हड़बड़ी दिखाई और उसी सरपट चाल को मोदी सरकार भी पकड़े हुए है. जबकि इसी वर्ष 16 मार्च को सुप्रीमकोर्ट इसकी अनिवार्यता पर रोक लगा चुकी है.

                हद तो ये है कि  कुछ ईष्ट देवों के अतिरिक्त जानवरों के भी आधार कार्ड  बन चुके हैं और कुछ सीनियर सिटीजन के हाथ के निशान घिस जाने या कैमरे पर न आने के कारण उनके “आधार” बनाने से इन्कार कर दिया गया है.

               शुरू में तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने सात जुलाई को कहा कि आधार से जुड़े सारे मुद्दों पर वृहद पीठ को ही फैसला करना चाहिए और मुख्य न्यायमूर्ति  इस संबंध में संविधान पीठ गठित करने के लिए कदम उठाएंगे. इसके बाद, मुख्य न्यायमूर्ति  के सामने इसका उल्लेख किया गया तो उन्होंने इस मामले में सुनवाई के लिये पांच सदस्यीय संविधान पीठ गठित की थी.

               हालांकि, पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 18 जुलाई को कहा कि इस मुद्दे पर नौ सदस्यीय संविधान पीठ विचार करेगी. संविधान पीठ के सामने विचारणीय सवाल था कि क्या निजता के अधिकार को संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार घोषित किया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट की छह और आठ सदस्यीय पीठ द्वारा क्रमश: खड़ग  सिंह (1962 )और एम पी शर्मा (1954) के मामलों में में दी गयी व्यवस्थाओं की विवेचना के लिए नौ सदस्यीय संविधान पीठ गठित करने का फैसला किया गया.

                मुख्य न्यायमूर्ति  की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने इस सवाल पर तीन सप्ताह के दौरान करीब छह दिन तक सुनवाई की थी. सुनवाई के दौरान निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार में शामिल करने के पक्ष और विरोध में दलीलें दी गईं. संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में जस्टिस जे चेलामेश्वर, जस्टिस एस ए बोबडे, जस्टिस आर के अग्रवाल, जस्टिस आर एफ नरिमन, जस्टिस ए एम सप्रे, जस्टिस धनन्जय वाई चन्द्रचूड, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एस अब्दुल नजीर शामिल थे.

                 संविधान पीठ ने दो अगस्त को फैसला सुरक्षित रखते हुये सार्वजनिक दायरे में आयी निजी सूचना के संभावित दुरूपयोग को लेकर चिंता व्यक्त की थी और कहा था कि मौजूदा प्रौद्योगिकी के दौर में निजता के संरक्षण की अवधारणा एक हारी हुयी लडाई है. इससे पहले, 19 जुलाई को सुनवाई के दौरान पीठ ने टिप्पणी की थी कि निजता का अधिकार मुक्म्मल नहीं हो सकता और सरकार के पास इस पर उचित प्रतिबंध लगाने के कुछ अधिकार हो सकते हैं.

                 अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने दलील दी कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकारों के दायरे में नहीं आता  क्योंकि वृहद पीठ के फैसले हैं कि यह सिर्फ न्यायिक व्यवस्थाओं के माध्यम से विकसित एक सामान्य कानूनी अधिकार है. केन्द्र ने भी निजता को एक अनिश्चित और अविकसित अधिकार बताया था

                 इस दौरान न्यायालय ने भी सभी सरकारी और निजी प्रतिष्ठानों से निजी सूचनाओं को साझा करने के डिजिटल युग के दौर में निजता के अधिकार से जुडे अनेक सवाल पूछे . इस बीच, याचिकाकर्ताओं ने दलील दी थी कि निजता का अधिकार, “जीने की स्वतंत्रता” के अधिकार में ही समाहित है.  

                निजता को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा दिलाने के खिलाफ अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल, वरिष्ठ अधिवक्ता सीए सुंदरम और राकेश द्विवेदी और अडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बहस की। इन वकीलों ने निजता को मौलिक अधिकार बनाए जाने की वकालत कर रहे गोपाल सुब्रमण्यम, कपिल सिब्बल, श्याम दीवान, सजन पवय्या, आनन्द ग्रोवर और मीनाक्षी अरोरा का विरोध किया।

                अनुभवी और दिग्गज वकीलों के पेश होने के बाद अर्घ्य सेनगुप्ता और गोपाल शंकरनारायणन ने बहस की। हल्की-फुल्की वकालत पृष्ठभूमि की वजह से जिरह के लिए उन्हें केवल 15 मिनट का समय दिया गया था। लेकिन इन युवा वकीलों ने जिस तरह से देश के बाहर निजता के अधिकार की संवैधानिक स्थिति का विश्लेषण किया, खासकर अमेरिका में निजता के अधिकार पर गहराई से प्रकाश डाला, उससे कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। जब दोनों ने अपने कोटे का समय खत्म कर लिया तो जस्टिस नरीमन ने कहा कि दोनों युवा वकीलों ने उम्मीद से कहीं ज्यादा शानदार वकालत की। निजता के संवैधानिक दर्जा देने के पक्षकार सुब्रमण्यन जैसे ही जवाब देने के लिए उठे, जस्टिस नरीमन ने उनसे कहा कि पहले इन युवा वकीलों को बधाई दीजिए।

                 अमेरिका में निजता के अधिकार को लेकर लम्बा आन्दोलन चला है ....अमेरिकी अदालतों ने इस अधिकार की रक्षा 19 वीं सदी के अंत तक नहीं की क्योंकि कॉमन लॉ ने इसे मान्यता नहीं दी थी. इसे मान्यता तब मिली जब चार्ल्स वारेन तथा लूई ब्रैंडाइस ने हार्वाड लॉ रिव्यू (1890) में एक ऐतिहासिक लेख लिखा- “द राइट टू प्राइवेसी”. निजता के अधिकार से संबंधित सैकड़ों मामले अमेरिकी अदालतों के समक्ष आये.  पहली बार इस मामले में न्यूयॉर्क अपीलेट कोर्ट ने रॉबर्सन बनाम रोचेस्टर फोल्डिंग बॉक्स कम्पनी (1908 )  में इस पर विचार किया और प्रतिवादी को इस अधिकार के उल्लंघन के लिए दोषी करार दिया।

                    फिर ग्रिसवर्ल्ड मामले (1965)  में जस्टिस डगलस ने कहा कि भले ही बिल ऑफ राइट्स में इस अधिकार का स्पष्ट उल्लेख नहीं है लेकिन निजता का अधिकार  अन्य अधिकारों में निहित है । जस्टिस डगलस को ही निजता के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में स्थापित करने का श्रेय जाता है.

                    शंकरनारायणन ने कोर्ट में कहा कि अगर निजता को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया तो सभी सोशल नेटवर्किंग साइट्स को यूजर्स से निजी जानकारी लेने से प्रतिबंधित कर दिया जाएगा क्योंकि सोशल प्लैटफॉर्म और यूजर्स के बीच निजता का अनुबंध होगा।

                     सेनगुप्ता ने कहा, किसी व्यक्ति की कुछ करने या ना करने की स्वतंत्रता ही निजता है। निजता कई मायनों में असीमित है। अमेरिका जैसे विकसित देश में निजता को संवैधानिक दर्जा दिया गया है, फिर भी वहां सुप्रीम कोर्ट ने अबॉर्शन और एलजीबीटी जैसे अधिकारों की वैधता की जांच करने के लिए 'राइट टु प्रिवेसी' को हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया है।
                    सभी दलीलों को सुनने के उपरांत संविधान पीठ ने निजता के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत मिले प्राण और देह की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत एक मौलिक अधिकार घोषित किया है. यानी अब किसी की निजी जानकारी पर सरकार का हक नहीं होगा. सर्वोच्‍च अदालत की 9 जजों की बेंच ने इस पर मामले पर एक मत से फैसला सुनाया. आधार से जुड़े मामले में कोर्ट बाद में सुनवाई करेगी.

                    सुप्रीम कोर्ट के एक के बाद एक शानदार निर्णयों को पढ़ कर “आलोक” जी का एक शेर याद आता है:

“ऐसी भी अदालत है जो रूह परखती है,
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक. “ 


                                 - मनमोहन जोशी "Mj"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें