Diary Ke Panne

रविवार, 13 अगस्त 2017

संवाद हीनता या संवेदन हीनता का दौर....





"कबीर क्षुधा कूकरी, करत भजन में भंग।
वाकूं टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग।।"
                                             -संत कबीर


शुक्रवार 11 अगस्त 2017.... दरवाजे की घंटी बजती है..... चौंक कर उठता हूँ तो सीधे घडी पर नज़र जाती है, रात के तीन बजे हैं? पत्नी से पूछता हूँ क्या तुमने घंटी की आवाज़ सुनी ?? यही प्रश्न वो भी दोहराती है?...... और दोनों एक साथ कहते हैं हाँ......

उठ कर दरवाज़ा खोलता हूँ .... एक अनजान महिला और पुरुष दरवाजे पर खड़े हैं....दरवाज़ा खोलते ही दोनों मार्मिक  आवाज़ में कहते हैं हमें गाडी की ज़रूरत है दीदी को हॉस्पिटल ले जाना है?.... मैं दोनों को नहीं जानता हूँ..... पूछता हूँ तो पता चलता है दोनों पास वाली multi में रहते हैं और उनके परिवार की कोई बुजुर्ग महिला बीमार है....

 मैं - ठीक है आप गाडी ले जाइए ....
 वे- हमें कार चलाना नहीं आता
मैं – हम्म............. आपने अपनी multi में किसी को क्यूँ नहीं उठाया?
वे- कोई दरवाज़ा नहीं खोल रहा
मैं- यहाँ भी कई लोगों के पास कार है देखिये अगर कोई जाने को तैयार हो तो... अगर कोई न उठे तो मुझे वापस उठा लेना...... इतना कहकर बिना उनका उत्तर सुने मैं दरवाज़ा बंद कर देता हूँ......

दरवाज़ा बंद करते ही सोचता हूँ ये मैंने क्या कहा? मैं कैसे इतना असंवेदनशील हो सकता हूँ ?? मैं तो sensodyne  भी नहीं लगाता मुझे तो सेंसिटिव होना ही चाहिए .... ये सुन कर की कोई परिवार परेशान है मुझे झनझनाहट क्यों नहीं हुई?

कार की चाबी ले कर जिस हालत में होता हूँ उसी हालत में यानी शॉर्ट्स और बनियान में नीचे उतरता हूँ देखता हूँ की दंपत्ति किसी और के फ्लैट की घंटी बजा रहे हैं ....... वो मुझे देख मेरे साथ चल देते हैं....रास्ते में पूछता हूँ कि मेरे फ्लैट की घंटी क्यूँ बजाई क्या वो मुझे जानते हैं ? जवाब मिलता है कि नीचे चौकीदार ने बताया 201 की घंटी बजाइए जोशी जी मदद करेंगे...... महिला को हॉस्पिटल में एडमिट करवा कर मैं वापस घर आता हूँ .....

सुबह के पांच बज रहे हैं कई सारे प्रश्न दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे हैं ..... कहाँ जा रहे हैं हम?? ये संचार क्रांति का दौर हैं या संवाद हीनता का या संवेदन हीनता का......

लगातार कई ख़बरें भी पढने को मिल रही हैं एक महिला बिल्डिंग के अठारहवें माले में अपने फ्लैट में मरकर कंकाल हो जाती है और किसी को पता तक नहीं चलता.... एक IAS अधिकारी पारिवारिक कलेश के कारण आत्म हत्या कर लेता है.... कई बच्चे हॉस्पिटल में कुछ अधिकारियों और एक गैस सप्लाई करने वाली कंपनी की संवेदनहीनता से मर जाते हैं???

रविवार 13 अगस्त 2017 शाम के 6 बजकर 52 मिनट हो रहे हैं, व्यस्तता के चलते लिखना नहीं हो पा रहा था , आज इस लेख  को पूरा करने बैठा हूँ | दो दिनों से ये बातें दिमाग में कौंध रही हैं.... स्वतंत्रता दिवस करीब है.... जश्न के इस माहौल में तय कर लिया जाना चाहिए कि कौन ज़िम्मेदार है ???? 

मेरे देखे ये समय आत्ममंथन का है.. चिंतन का है... यह तय करने का समय है कि कौन ज़िम्मेदार है??  जिन्होंने दरवाज़ा नहीं खोला वो पडौसी या वो अधिकारी जिन्होंने कंपनी के बिल नहीं भरे या वो कंपनी जिसने लोगों की जान से ज्यादा पैसे को महत्व दिया या वो पत्नी जिसे केवल अपनी चिंता रही या वो माँ बाप जो बहु से नहीं निभा पाए ..... कौन ज़िम्मेदार है???????


हम प्रकृति पर्यावरण और आस पड़ोस के प्रति ही नहीं वरन्  अपने परिवार और स्वयं के प्रति भी संवेदनहीन होते जा रहे हैं...संवेदनशीलता के उदहारण के रूप में मुझे याद आता है  कि हर्षवर्धन ने  उनकी प्रसिद्ध रचना नागानान्द नाटक  में एक संत के आश्रम का वर्णन करते हुए कहा  है कि उनके  आश्रम में पेड़ों की केवल ऊपरी खाल  निकालते  हैं, क्यों कि  गहरे स्तर पर जाने और खुरचने से पेड़ों को बहुत दर्द  होता है | श्लोक कुछ इस प्रकार है : 
          
              “कण्डूयमानेन कटम् कदाचिद्वनद्विपेनोन्मथिता त्वगस्य
              अथैनमद्रेस्तनया शुशोच सेनान्यमालीढ मिवासुरास्त्रै: ||



इस दौर में जहाँ हर कोई दूसरों पर दोष मढ रहा है, संवाद हीनता संवेदन हीनता में बदलती जा रही है.... हर कोई  दूसरों को दोष दे रहा है , दूसरों को पूछ रहा है  कि तुमने क्या किया या क्या कर रहे हो ?? मुझे लगता है प्रत्येक व्यक्ति को इन सभी चीज़ों के लिए स्वयं की ज़िम्मेदारी तय करनी चाहिए  .....

 मेरे देखे मैं ज़िम्मेदार हूँ ... समय हैं ज़िम्मेदारी लेने का..... समय है संवेदनशील होने का..... समय है किसी के लिए उठ खड़े होने का.... कब तक दूसरों को दोष देते रहेंगे???
 ... सोचें..........

                    -मन मोहन जोशी “मन”

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