Diary Ke Panne

सोमवार, 30 दिसंबर 2024

मोहन की नगरी…






जब तक मैं छत्तीसगढ़ में रहा तब तक नया साल मतलब घूमने और पिकनिक का समय होता था. मेरे मित्रों के अलग-अलग कई ग्रुप थे. संगीत वाले दोस्तों का एक ग्रुप, लॉ वाले दोस्तों का एक, स्कूल फ्रेंड्स का एक और ऐसे ही अन्य… सभी के साथ वन डे पिकनिक के प्लान बनाते और 31 दिसंबर से लेकर जनवरी के पहले सप्ताह तक तीन चार जगह तो घूम ही आते थे.


फिर कुछ समझदार हुए तो नए साल के दिन निकलना बंद कर दिया क्यूंकि न्यू ईयर सेलिब्रेशन में केवल धक्का-मुक्की और भीड़ ही मिलती है और कुछ नहीं.


फिर जब बेटा हुआ तो तीन चार साल कहीं निकले ही नहीं और अब वो स्कूल में है तो सारी प्लानिंग उसके वेकेशन के हिसाब से ही बनती है.


लंबे समय बाद नए साल के स्वागत में अपने घर से बाहर हूँ. प्लानिंग में था कि बनारस में BHU कैंपस में बुक लांच की सेरेमनी रखी जाएगी… BHU के विभागाध्यक्ष लंबे समय से बुला रहे हैं बस मैं ही समय नहीं निकाल पा रहा…. या ये कहूँ तो बेहतर होगा जो समय वो देते हैं मेरी व्यस्तताएँ रहती हैं और जो समय मैं देता हूँ उस दौरान उनकी.


इस बार भी ऐसा हुआ मैंने 25 से 31 दिसम्बर तक का समय दिया और पता चला कि इस दौरान BHU में विंटर वेकेशंस होंगे. बहरहाल विनीत भाई ने पूरा प्लान सेट किया. 27 दिसंबर का समय तय हुआ. हम सीधे बनारस ना जा कर रीवा में रुके. कुछ मित्रों का आग्रह था. फिर ये भी पता चला कि रीवा से बनारस मात्र तीन घंटे का ही सफ़र है. 


रीवा मध्य प्रदेश का एक खूबसूरत शहर है.. रीवा शहर मध्य प्रदेश प्रांत के विंध्य पठार के एक हिस्से का निर्माण करता है और टोंस, बीहर, बिछिया नदी एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा सिंचित है. इसके उत्तर में उत्तर प्रदेश राज्य, पश्चिम में सतना, पूर्व में मऊगंज एवं पूर्व तथा दक्षिण में सीधी जिले स्थित है.  रीवा के जंगलों में ही सफेद बाघ की नस्ल पाई गई हैं. जिले की प्रमुख उपज धान है. यहाँ के ताला नामक जंगल में बांधवगढ़ का ऐतिहासिक किला स्थित है. ये जगह प्राकृतिक नज़ारों से भरपूर सफेद शेर मोहन का घर. और कोई शहर कैसे खूबसूरत होता है? प्रकृति से, और वहाँ के खूबसूरत लोगों से. रीवा में ये दोनों ही प्रचुर मात्रा  है. 


सुबह जैसे ही हम रीवा पहुँचे गुड्डू भैया लेने आ गए… अनमोल ने सारा इंतज़ाम कर रखा था और इस प्लानिंग में जुड़ गए प्रिय प्रियांशु.


पहुँचते ही गरिमा का मेसेज आ गया “सर, आज का भोजन हमारे यहाँ कीजिए!” इतने स्नेह पूर्ण निमंत्रण को मैं अस्वीकार नहीं कर पाया. गरिमा का पूरा परिवार हमारे स्वागत के लिए उपस्थित था. उनकी मम्मी ने विभिन्न प्रकार के पकवान बनाए थे इसमें ख़ास था रीवा का लोकल फ़ूड “उसना”… हम उनके साथ बात करने में ऐसे खो गए जैसे पहले से ही एक दूसरे को जानते हों.. बेटा और श्रीमती जी ज़्यादा घुल मिल गए.. प्यार भरी मुलाक़ात में फ़ोटो लेना रह गया. 


वर्तमान दौर का चलन है दिल मिले या ना मिले फोटो खिंचवाते रहिए.. मैं इसमें अभी भी कच्चा हूँ. बहुत सारे मोमेंट कैप्चर ही नहीं हो पाते कैमरे से, लेकिन दिल में जगह बना लेते हैं… शायद यही सही तरीका हो मिलने का 🤔


बहरहाल सत्ताईस दिसंबर की सुबह हम वाराणसी के लिए निकले.. जो भारत का प्राचीनतम बसा शहर है. भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है… इसे ‘बनारस’ और ‘काशी’ भी कहते हैं


प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: “बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।”


क्रमशः …..


✍️एमजे 
 

रविवार, 29 दिसंबर 2024

शुक्रिया 2024

 








सुबह घर पर बात कि तो मम्मी से पता चला की जब मैं पाँच बरस का था तो पहली बार पूरे परिवार के साथ बनारस घूमने गए थे.. रेल से सफ़र करते थे और धर्मशाला में रुकते थे. 

घूमने का शौक शायद जीन्स में ही आ गया है. अब हम होटल्स में रुकते हैं और अपनी गाड़ी से ट्रैवल करते हैं. लेकिन ट्रेवलिंग कैसे भी की जाये आपको हमेशा कुछ नया सीखने को मिलता है.

आप ट्रैवल करते समय सस्ते होटल में रुकें या पाँच सितारा में इससे बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन सामान उठाने वाले को तुरंत कुछ रुपए निकाल कर टिप्स दे देना, कमरे को साफ रखना, थैंक्स कहना, आहिस्ता बोलना, लोगों से सम्मान पूर्वक बात करना... ये है असल लग्जरी.

मै हमेशा लग्जरी में रहता हूं और रहना पसंद करता हूँ.. मुझे लगता है पाँच सितारा कोई प्रॉपर्टी नहीं होती बल्कि वहाँ सर्विस देने वाले लोग होते हैं और लक्ज़री आपकी तबियत में होती है, आपकी आदतें होती है फ़ाइव स्टार... ये दीवारें, ये फर्नीचर कभी फ़ाइव स्टार नहीं हो सकते. कई बार मैं ऐसी प्रॉपर्टी में भी रुका हूँ जो बहुत अच्छी नहीं थी लेकिन वहाँ काम करने वाले लोगों ने उस यात्रा को यादगार बना दिया.

घूमने का भी एक कल्चर है..इसके कुछ असूल हैं. पैसों से केवल सुविधा मिल सकती है, तमीज नहीं.  पैसे केवल आपको उस जगह ले जा सकते हैं, आनंद आपको आपकी फितरत से आएगा.  क्लास आपके बिहेवियर से नजर आता है...

बहरहाल बनारस की पाँच सितारा रही इस यात्रा में स्नेहिल मित्रों ने चार चाँद लगा दिए विनीत, नीति, रवि, अमित,सौरभ,अनमोल और प्रियांशु का साथ आनंद को कई गुना कर गया.

बाबा विश्वनाथ, माँ अन्नपूर्णा के दर्शन और गंगा आरती करके हमने 2024 को प्रेमपूर्वक विदा कहा. आशा है 2025 सभी के लिए समृद्धि, स्वास्थ्य और खुशहाली लेकर आए.

✍️एमजे 

PS: बनारस की यादें, खैरूआ सरकार के दर्शन और रीवा के मित्रों पर बहुत कुछ लिखा है. जिनको अलग-अलग ब्लॉग में जगह दी जाएगी जुड़े रहना. 


रविवार, 15 दिसंबर 2024

हमने यूँ दिल को समझाया

 


कक्षा आठ में था जब पहली बार तबला शब्द सुना. ढोलक पता था देखा था छुआ भी था लेकिन ये तबला क्या होता है ? पापा चाहते थे कि मैं ढोलक बजाना सीखूँ जिसके लिए शहर के सबसे योग्य शिक्षक की तलाश की गई और उन्होंने सुझाया कि मोहन को तबला सिखाओ ढोलक और बाक़ी दूसरे ताल वाद्य तो वो वैसे ही बजा लेगा. 


पिताजी के साथ योग्य गुरु से मिलने पहुँचे, तो उन्होंने कहा कि रोज़ एक घंटे की क्लास लगेगी और घर पर भी कम से कम एक घंटे रियाज़ करना होगा मैं हाँ में हाँ मिलाता रहा. और हम रामदास गुरुजी के यहाँ से लौट आए. मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि पूछता तबला कैसा होता है? उससे मिलवाइये ना सही कम से कम शक्ल ही दिखा दीजिए. 


बहरहाल सीखना शुरू हुआ और मुझे घर पर रियाज़ करने के लिए तबला ख़रीदना था. माता जी से कहा तो बोली हर महीने कुछ पैसा जमा करके ख़रीदलेना एक साथ ढाई हज़ार रुपए नहीं दे सकती. घर का सारा बजट वही देखती थी. पैसों के मामले में एकदम सुलझी. हमने कभी उनको फ़िज़ूल खर्ची करते नहीं देखा. 


खैर घर पर हमारे एक जर्सी गाय पाल रखी थी. मैं रोज़ एक घर में दूध की डिलीवरी करने जाता जहाँ से हर महीने 400 रुपए मिलते. पूरे पैसे जमा करता अपने गुल्लक में और कुछ महीनों के भीतर ही मेरे पास 2800 रुपए जमा हो चुके थे. तबला ख़रीदने विशेष रूप से रायपुर गया और वहाँ से ख़ूबसूरत सा तबला ख़रीद लाया.


कुछ वर्षों बाद जब मैं भी कमाने लगा था और मेरी तबले की विधिवत शिक्षा पूरी हो चुकी थी और उच्च शिक्षा के लिए गुरुदेव छोटेलाल व्यास के सान्निध्य और सेवा में लगा था तब मेरे एक मित्र थे उधौ चतुर्वेदी (गुरु जी हमें उधौ और माधौ कहते थे) के साथ हैदराबाद तबला ख़रीदने गया और उसी जगह से तबला ख़रीदकर लाया जहाँ से उस्ताद ज़ाकिर हुसैन तबला बनवाते थे.  ये वो समय था जब तबले और शास्त्रीय संगीत के प्रति मेरी दीवानगी अपने चरम पर थी. लगता था जैसे यही जीवन है. 


इस समय तक मन ही मन एक और व्यक्ति को गुरु मान चुका था उस्ताद ज़ाकिर  हुसैन.. इनके कैसेट हमारे घर पर थे… और दूरदर्शन पर यदा कदा  उनके दर्शन हो जाया करते थे. उस्ताद जी से एक ही बार संयोग से मिलना हुआ वो भी तब जब मैंने तबला बजाना छोड़ दिया था. राजस्थान के जोधपुर शहर में एक कार्यक्रम का आयोजन था जहाँ मुझे भी श्रोता के रूप में निमंत्रित किया गया था.. मंत्रमुग्ध कर देने वाले तबला वादन को सुनने के बाद ग्रीन रूम में उनसे मिलने पहुंचा, मैंने कहा उस्ताद जी प्रणाम, बोले उस्ताद बड़े लोग होते हैं मुझे ज़ाकिर ही कहो. बेहद सादा दिल महान कलाकार.. उन्होंने पूछा क्या अभी तबला बजाते हो ?? मैंने कहा नहीं बस आपको सुनता रहता हूँ तबला बजाना छोड़ दिया है… 


बहरहाल कल शाम से ही मन असहज था पता नहीं क्यों रात नींद ही नहीं आ रही थी. बेचैनी का कोई कारण तो ना था लेकिन मन बेचैन था सुबह उठा तो उस्ताद जी के नहीं रहने की खबर पढ़ कर मन अवाक् रह गया.. फिर ख्याल आया कि आत्मा के आकाश से तारा जो टूटा था, मन कैसे बेचैन ना होता??


हमने ये सुन के दिल को समझाया 

कि जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं… 


उस्ताद ज़ाकिर साहब 🙏 मेरे गुरु थे. उनका जाना अपूरणीय है.


✍️एमजे 

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024

गौहर-ए-नायाब


 

पिछले दिनों एक स्टूडेंट का मिलने आना हुआ. वो अपने माता पिता के साथ मिलने आई थी. जज बन चुकी है और पोस्टिंग को भी कई महीने बीत चुके. मुझे लगा शायद कुछ सीरियस मैटर है.


जब भी स्टूडेंट्स का सिलेक्शन होता है तो अधिकतर से मेरी फ़ोन पर बात हो जाती है और मिलना भी हो जाता है. लेकिन इस स्टूडेंट से ना तो मेरी बात ही हो पाई थी और ना ही मिलना. उसका कारण ये है कि बाजारवाद के इस दौर में मैं सलेक्टेड कैंडिडेट को कॉल लगाकर बात करने से बचना चाहता हूँ. जहां हर कोई सफलता का बाप बनने की कोशिश कर रहा हो तो वहाँ मैं उन स्टूडेंट्स के साथ खड़ा हो जाना ठीक समझता हूँ, जो किसी कारण से रह गये. ऐसे में मैंने कॉल नहीं किया और उसका भी कॉल नहीं आया.


बेहद सौम्य मुस्कान वाली ये लड़की जब 2021 में पढ़ने आई थी तो बेहद शांत और घबराई सी रहती थी एक बार मैंने किसी बात पर ज़ोरदार डाँट दिया था तो आँसू बह निकले थे, और फिर मुझे ही अपना रूमाल देना पड़ा था… उसे देखकर सारी पुरानी बातें याद आ गई. 


आते ही उसने पाँव छुए और बोली सर मैं आपसे माफ़ी माँगने आई हूँ. क्यूँकि सिलेक्शन के बाद मैं अभी आ रही हूँ और आपसे बात भी नहीं की.

मैं- अरे किस बात को माफ़ी अब तो तुम “जज” हो बधाई लेने का समय है ये ना कि माफ़ी माँगने का.


उसके पिता भी मेरे पाँव छूने के लिए झुके और मैंने उनका हाथ थाम लिया, मैंने कहा- ना ना आप बड़े हैं आप तो आशीर्वाद दीजिए. 


हाथ जोड़े बैठे पिता ने बताया कि वो चाय का ठेला लगाते हैं और माता जी भी घरों में काम करती है. 


लड़की बोली सर आपको याद है जब मैं पढ़ने आई थी तो आपने ही हौसला बढ़ाया था कि तुम थोड़ी मेहनत करो तो जज बन सकती हो, आपकी डाँट से मैं तो रो पड़ती थी लेकिन मेरा फ़ोकस भी उसके कारण ही बढ़ा. आपने अपनी किताबें भी मुझे पढ़ने के लिए दी, आप हर एक स्टूडेंट का ख़्याल रखते हैं.. आप मेरा नाम लेकर क्लास में कहते थे जागो तो मुझे तो स्पेशल फील होता था. आपके लिखाए नोट्स आज भी मेरे काम आ रहे हैं और आपके लेक्चर्स तो मैं आज भी मिस करती हूँ. उसकी आँखों में फिर आंसू थे. 


मैंने माहौल हल्का करने के लिए बात बदली, चाय के लिए कमल को बोला और फिर पूछा ये बताओ सिलेक्शन के बाद क्यूँ नहीं आई, कॉल तक नहीं किया.


वो बोली- बात ये है कि मैं फ़ोन पर बात नहीं करना चाहती थी. आपसे मिलकर आशीर्वाद लेना चाहती थी. बताना चाहती थी कि आपने रास्ते के पत्थर को तराशकर अनमोल हीरा बना दिया है. दूसरी बात ये कि आप सलेक्टेड लोगों का सम्मान करते हैं जबकि सम्मान आपका होना चाहिए. मेरे पास पैसे नहीं थे कि आपको कुछ दे पाती… ख़ाली हाथ आने का मन नहीं था… सोचा था पहली सैलरी मिलते ही आपके चरणों में रख दूँगी लेकिन काम में ऐसी उलझी की आने वक्त ही नहीं मिला.  लेकिन मैंने पहली सैलरी निकाल कर रख ली थी जो आज लेकर आई हूँ .


उसने आग्रह पूर्वक मेरी ओर नोटों से भरा लिफ़ाफ़ा बढ़ाते हुए कहा स्वीकार कीजिए और आशीर्वाद दीजिए. मैंने लिफ़ाफ़ा लिया अब मेरी आँखें नम थीं, भावनाओं का ज्वार उमड़-घुमड़ रहा था, कितनी दुआएँ दूँ इस बच्ची को!! ये कृतघ्नता का दौर है आज के समय में बच्चे माँ बाप को क्रेडिट नहीं देते और देखो तो क्या ही प्यारे संस्कार हैं कि ये अपनी मेहनत और सफलता का श्रेय मुझे दे रही है.


मैंने उसमें से एक पाँच सौ का नोट निकाला कमल को बुलाकर कहा कि मिठाई ले आओ और लिफ़ाफ़ा माता जी के हाथों में थमा दिया और कहा कि इसपर पहला हक़ माँ का है. बोली सर माँ का हक़ तो सब पर है ये आप रखिए.


मैंने लिफ़ाफ़ा उसके पर्स में डाल दिया क्यूँकि जो सुख और अनुभूति का एहसास मैं कर रहा था उसके सामने सारे संसार की संपदा भी तुच्छ मालूम पड़ रही थी…. लगा जैसे वो बच्ची ही नहीं सफल हुई मेरा शिक्षक होना भी सफल हुआ.


“कर दिया ख़ुद को समुंदर के हवाले हम ने

तब कहीं गौहर-ए-नायाब निकाले हम ने


ज़िंदगी नाम है चलने का तो चलते ही रहे

रुक के देखे न कभी पाँव के छाले हम ने”


✍️एमजे




रविवार, 6 अक्टूबर 2024

कल रात जहां मैं था…









देश में नवरात्रि की धूम है, माता रानी के दरबार और दुर्गा पंडालों में गरबे… और उसपर इंदौर टॉक द्वारा सजाया गया गरबा ग्रूव. कल रात मैं सपरिवार यहीं इसी कार्यक्रम का हिस्सा बना, गवाह बना. 

जब ज़िम्मेदारी के पौधे में कर्तव्य के पुष्प पल्लवित होते हैं तो उसकी सुगंध कैसी होती है ये महसूस करना हो तो इंदौर टॉक के किसी भी कार्यक्रम में पहुँच जाइए.. अतुल और आशीष भाई द्वारा कसे हुए कार्यक्रम कैसे आयोजित किए जाते हैं? कार्यक्रम में पारिवारिक माहौल के बीच भव्यता को कैसे सजाया जाता है? सुरक्षा को कितना महत्व दिया जाना चाहिये..आदि-आदि कई बातें हैं जो इनके इवेंट से समझी और सीखी जा सकती हैं. सबसे महत्वपूर्ण किसी भी सेलिब्रिटी से ज़्यादा महत्वपूर्ण परिवार और स्थानीय मित्र होते हैं ये बात सिर्फ़ और सिर्फ़ इंदौर टॉक के कार्यक्रमों में ही देखने को मिलती है.

कल का कार्यक्रम भी कुछ ऐसा ही अद्भुत था. मैरियट होटल के लॉन में सजा था गरबा पंडाल और कार्यक्रम की शुरुआत माँ की भव्य आरती से की गई.. फिर हनुमत पथक का मंत्र मुग्ध कर देने वाला और रोंगटें खड़े कर देने वाला ढोल वादन.. जिसमें युवा लड़के और लड़कियाँ अपने वज़न के बराबर ही वज़न का ढोल कमर में बांधे गणपति, दुर्गा और शिव की स्तुति करते हैं, अपने ढोल वादन से.. आपने इनके वायरल वीडियो देखे होंगे केदार नाथ और तुंग नाथ में वादन करते हुए. कुल 6 वर्ल्ड रिकॉर्ड्स हैं हनुमत पथक के नाम पर.

फिर शुरू हुआ लाईव म्यूजिक, और गरबा करते लोग घण्टों झूमते रहे आकांक्षा की आवाज़ और उनके ऑर्केस्ट्रा के संगीत पर. वैष्णवी ने क्या ही खूब संचालन किया!

अहा ! क्या तो आयोजन और क्या ही संयोजन… व्यावसायिकता के इस दौर में पारिवारिकता और शुचिता को महत्व देते इस तरह का आयोजन करने के लिए भाई साहब मोहन पांडे जी और इंदौर टॉक की पूरी टीम को साधुवाद… मुझे गर्व होता है कि हम तिवारी बंधुओं के स्नेह और सम्मान के पात्र हैं ❤️


 

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

श्राद्ध का मनोविज्ञान



किसी भी त्योहार या कर्म काण्ड  का मज़ाक़ बनाना अब आम बात मालूम पड़ती है.. मूर्खों का यही तरीक़ा होता है जो बात समझ नहीं आई या जो अपनी समझ से बाहर का हो उसका मज़ाक़ बना दो. देखो कैसे बॉलिवुडिया फ़िल्मों में शास्त्रीय संगीत का मज़ाक़ बनाया जाता है कारण साफ़ है.


श्राद्ध कर्म और मृत्यु भोज का भी ऐसे ही लगातार मज़ाक़ बनाया जाता रहा है और इन दिनों तो इसकी बाढ़ सी आ गई है.


मैंने एक कहानी सुनी थी कि कैसे एक बार एक संत अपने घर के बाहर पानी फेंक रहे थे तो किसी ने पूछा ये क्या कर रहे हो उन्होंने कहा कि अपने खेतों को पानी दें रहा हूँ वह व्यक्ति हंसा कहता है कि यहाँ पानी फेंकने से कैसे ख़ेत को पानी मिलेगा?? संत कहते हैं जैसे यहाँ श्राद्ध कर्म करने से तुम्हारे पितरों को दूसरी दुनियाँ में भोजन मिलता है.


संत की बात सटीक मालूम पड़ती है क्योंकि हमें श्राद्ध कर्म की सच्चाई और विज्ञान का नहीं पता. ये ठीक वैसा है जैसे आप AC के रिमोट से tv को कंट्रोल करना चाहते हों और विज्ञान का मज़ाक़ बनाते हों.


मुझे तो ये श्राद्ध कर्म और मृत्यु पश्चात के रिचुअल्स कमाल मनोवैज्ञानिक मालूम पड़ते हैं. दो अनुभव बताता हूँ -


  1. मेरे ताऊ जी की जब मृत्यु हुई उस समय मेरे मन में उनके लिए कुछ न कर पाने की टीस थी.. दो दिन तक तो कुछ खाने का भी मन नहीं था, उनको अग्नि देकर घर आने के बाद लगने लगा था जैसे ये संसार आसार है. लेकिन तेरह दिनों के कर्मकांड ने मुझे नार्मल होने में मदद की. लोगों का घर आते रहना और सिर्फ़ रिचुअल्स के लिये उनके साथ खाने बैठना, मेरी अनासक्ति को तोड़ने में कारगर साबित हुए. और इतनी सी बात की वो अभी भी हमारे आसपास हैं, उनके लिए प्रार्थना करना और उनको अपने हाथ से भोजन बना कर परोसना ये सारे कर्मकाण्ड मन की इस ग्लानि को धोने के लिए पर्याप्त थे कि मैं उनके लिए कुछ नहीं कर सका.
  2. कुछ समय पहले सास को मृत्यु हुई, पंडित जी ने कहा संकल्प लें कि उनकी आख़री इच्छा पूरी करेंगे और उनका श्रद्धाएँ और पिंड दान विधान पूर्वक करेंगे.. मैंने कहा उनकी सारी इच्छाएँ जो कुछ उन्होंने मुझे बताईं उनके जीवन काल में ही पूरी कर चुका हूँ, हाँ एक इच्छा उनकी रह गई थी, गया जाने की तो वो पूरी करूँगा ही….अब जब भी उनकी तिथि आती है बेटियों को ध्यान आता है कि मम्मी को क्या पसंद था वो उस दिन इनके मन का भोजन पकाती हैं और परोसती हैं जो किसी गाय को या किसी वृद्ध को या किसी पक्षी को या किसी ज़रूरतमंद को या किसी विद्वान को खिलाई जाती है, कितनी असीम शांति उनको मिलती होगी ये उनसे ही पूछा जा सकता है.


बहरहाल श्राद्धकर्म उन मूर्खों के लिए भी है जिन्होंने अपने बुजुर्गों को जीते जी सताया लेकिन अब उनके मन में पछतावा है और वो पश्चाताप करना चाहते हैं. कितना सुंदर, कितना गहरा कितना वैज्ञानिक सीधे मानव मन से जुड़ा है ये श्राद्ध पर्व.


जब अपने किसी प्रिय जन की मृत्यु से, आत्मा के आकाश में, ख़ालीपन का पौधा उगे तो उसमें उगने देना संताप के फूल और उससे निकलने वाले शोक की ख़ुशबू को व्याप जाने देना अपने अस्तित्व के ब्रह्मांड में में. फिर समूह पाओगे श्राद्ध पर्व जैसे महत्वपूर्ण कर्मकाण्ड को.


 ध्यान रखना श्री कृष्ण ने कहा है -

जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु, ध्रुवम् जन्म मृतस्य च |

 तस्माद् अपरिहार्येर्थे, न त्वम् शोचितुमर्हसि ||” 


अर्थात: “ जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है..और मृत्यु के बाद जन्म अवश्य होता है... जिसमें कोई परिवर्तन न हो सके ऐसी यह कुदरती व्यवस्था है. अतः किसी की मृत्यु पर शोक करना वैसे तो उचित नहीं है.”

   

                  जो भी हो मेरे देखे जीवन की खूबसूरती मृत्यु से है... और जब तक जीवित हैं किसी ग्लानि के बोझ से हम न दबे रहें.. अपने पूर्वजों को याद रखें और इसी बहाने कुछ लोगों को भोजन भी मिल जाए तो बात ही क्या..


✍️एमजे


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मंगलवार, 17 सितंबर 2024

विदा गीत ❤️


 साल 98 के वसंत की दोपहरी, उस दिन मैं कुछ छोटे बच्चों को पढ़ा रहा था, ख़ुद कक्षा बारह में पढ़ता था लेकिन आस पास के छोटे बच्चों को घर पर ही मैथ्स और इंगलिश पढ़ाता था….

हम जॉइंट फ़ैमिली में रहते थे.. जॉइंट फ़ैमिली के जहाँ अपने फ़ायदे हैं कि आप एक ही छत के नीचे बहुत सारे रिश्ते जी सकते हो और आपको सभी का प्यार मिलता है तो वहीं एक शाश्वत पारिवारिक क्लेश आपके जीवन का भाग हो जाता है.


हमारे इसी बड़े संयुक्त परिवार का हिस्सा थे मेरे ताऊ जी. प्यार से हम उन्हें बाबा कहते थे. उनके बीवी बच्चे नहीं थे.. या कहें हम भाई बहन ही उनके बच्चे थे. वे हनुमान जी के पुजारी थे. साफ़ सफ़ेद कपड़े पहनने का उन्होंने शौक़ था और स्पष्टवादी होने के कारण किसी के भी मुँह पर ही सच बोलने का साहस रखते थे और बोलते भी थे.


वो मुझसे बड़ा स्नेह रखते थे मुझे “बब्बू” बोलकर बुलाते थे.. कहते “बब्बू” तो मेरा भगवान है.. कभी हम भाई कुछ खेल रहे होते और वो वहाँ मौजूद होते तो कहते तुम लोग इसको (मतलब मुझे) नहीं हरा पाओगे ( भले ही मैं हार रहा होता था).. अब कोई जीते कोई हारे मुझे तो मेडल मिल चुका होता.. वो मेरा संबल थे.


बहरहाल चलते हैं उस रोज़ पर… उस दिन भी किसी बात पर घर के लोग आपस में झगड़ रहे थे, जब मैं बच्चों को पढ़ा रहा था.. यूँ तो बाबा की हम बच्चों को छोड़कर किसी से भी नहीं बनती थी लेकिन अधिकतर लड़ाइयों में उनकी कोई ग़लती नहीं होती थी. बस परेशानी ये थी कि वो लगातार बोलते रहते थे और मैं ये बिना जाने कि किसकी ग़लती थी और मुद्दा क्या था बस यही कहता था कि आपस में बैठकर बात कर लो.. चिल्लाओ मत.


सो उस दिन भी मैंने यही किया मैं अपने कमरे से बाहर आया और उनसे झल्लाकर बोला चिल्लाओ मत… मुझे याद है, मैंने ये बात बड़ी नाराज़गी से कही थी और वापस पढ़ाने चला गया कमरे में. 


वो थोड़ी देर बाद मेरे कमरे में आये, बोले मैं गाँव जा रहा हूँ अब नहीं रह पाऊँगा यहाँ ( वो अक्सर ऐसा कहते थे )

मैं - ठीक है जाओ 

वो - देखना मेरे पास कितने पैसे हैं, और बताना कितने टैक्सी वाले को देना है, उतने पैसे अलग कर देना 

(मैंने वैसा ही किया, पैसों को उनके पर्स के अलग- अलग खानों में जमा दिया. टैक्सी वाले को देने के पैसे अलग कर दिए खुल्ले पैसे अलग और बड़े नोट अलग..फिर पर्स उनके हाथ में रख दिया.)

वो - जा रहा हूँ , अब वापस नहीं आऊँगा, देख लेना तुम लोग 

मैं- हाँ हाँ जाओ 

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और फिर वो कभी नहीं आये.. तीन दिन बाद खबर मिली कि वो लापता हैं.. बाद में गाँव के कुएँ से उनकी लाश मिली.. पुलिस वालों का कहना था कि रात में पाँव फिसलने के कारण वो गिर गये होंगे.. आत्महत्या या अपराध जैसी की बात से इनकार किया गया.


कई महीनों तक मेरे कानों में उनकी आवाज़ गूंजती रही.. आज भी बस यही सोचता हूँ कि जाने के पहले एक बार उनके गले लग लिया होता या पाँव छू कर आशीर्वाद ले लिया होता या टैक्सी स्टैंड पर उनको छोड़ आया होता या कम से कम एक बार उनको ये बता पाता कि उनका मेरे जीवन में क्या महत्व है… लेकिन..


कल गणपति विसर्जन करते हुए यही ख़्याल आया कि मिलन का उत्सव तो मनाया ही जाता है.. विदा कितना गौरवपूर्ण हो सकता है अनंत चतुर्दशी इस इस बात के महत्व को रेखांकित करने ही आती है… ये विदा का गीत है… हर एक व्यक्ति गौरवपूर्ण विदाई का हक़दार है.. मेरे देखे विदा गौरवपूर्ण ही होना चाहिए.. अंतिम विदा नहीं हर एक विदा क्यूँकि हमें नहीं पता कि कौन सी विदाई अंतिम है.


मुझे लगता है बिछोह की ऊष्मा का पौधा जब दिल की ज़मीन पर उगे तो उसके पुष्प की ख़ुशबू चेतना के आकाश में किस तरह व्याप जानी चाहिए ये दिखाने आते हैं गणपति. मिलन और जुदाई दोनों ही उल्लास और उत्सव से भरे हों ये बताने आते हैं गणपति.


आइये अपने आस पास भी विदा के इस गीत को उत्सव में बदलने का प्रयास करें ताकि फिर कोई बब्बू अपने बाबा से इस तरह विदा ना हो कि उम्र भर हृदय में विदा का गीत गूंजने कि जगह विदा का शूल चुभता रहे..


✍️एमजे


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