रावण वध... |
बस्तर दशहरे का विहंगम दृश्य.. |
दशहरा शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों के संयोजन ’दश’ व
’हरा’
से हुयी है,
जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात
रावण का वध कर राक्षस राज की समाप्ति से
है. यही कारण है कि इस दिन को अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा
के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने उन्हें युद्ध में विजय का
आशीर्वाद दिया था. इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर
विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया
जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण के पुतले का दहन कर अन्याय पर न्याय के
विजय की उद्घोषणा की जाती है.
रामचरित मानस में राम रावण के युद्ध का एक अद्भुत प्रसंग आता है... रावण रथ
पर सवार होकर चला आ रहा है, कवच और
हथियारों से सुसज्जित. जबकि राम रथविहीन पैदल हैं. यह देख विभीषण अधीर हो उठते हैं.
राम के प्रति अपने अति प्रेम व चिंता वश कहते हैं, "प्रभु आपके पास न रथ है, न ही सुरक्षा हेतु कवच है. किस तरह इतने बलशाली योद्धा से जीत सकेंगे?" राम
यह सुनकर मुस्कुराते हैं,
कहते हैं कि मित्र जिस रथ से
विजयश्री मिलती है वह कोई और रथ होता है. सुनो सफलता प्राप्ति का मंत्र.....
राम कहते हैं विजयश्री प्रदान करने वाले रथ के पहिये शौर्य व धैर्य होते
हैं. सत्य व मर्यादा उसकी पताका होते हैं. बल बुद्धि व अनुशासन उसके घोड़े होते
हैं. जो क्षमा, कृपा व समता की रस्सी से आपस में जुड़े होते हैं. ईश्वर की आराधना ही
उसका सारथी है. विरक्ति उसकी ढाल है और संतोष ही उसका कृपाण होता है. दान उसका
फरसा और बुद्धि उसकी प्रचंड शक्ति है. विज्ञान कौशल ही उसका मजबूत धनुष है. निर्मल
मन ही वह तरकश है जिसमें यम व नियम के
अनगिनत बाण संगृहीत होते हैं और गुरु की
वंदना अभेद कवच है. और इससे योग्य विजय हेतु कोई साधन नहीं.
श्री राम कहते हैं, “हे मित्र जिसके पास यह धर्ममयी रथ है,उसे इस संसार में कहीं भी व कोई भी शत्रु पराजित नहीं कर सकता।“
इस
अद्भुत प्रसंग को तुलसी ने बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है बाबा तुलसी के शब्दों
में:
"रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।बंदि चरन कह सहित सनेहा।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना।केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।जेहि जय होइ सो स्यंदन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे।छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना।बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।बर बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन समाना।सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा।एहि सम विजय उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।जीत न कहँ न कतहुँ रिपु ताके।
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।"
दशहरे
का सम्बन्ध जहां राम रावण युद्ध से है तो वहीं विजयादाशमी का संबंध सीधे महिषासुर
मर्दिनी माँ दुर्गा से जुड़ा है. पौराणिक वर्णन के अनुसार अश्विन शुक्ल दशमी को
माँ दुर्गा ने अत्याचारी महिषासुर का शिरोच्छेदन किया था. इसी कारण इस तिथि को
विजयादशमी उत्सव के रूप में लोक मान्यता प्राप्त हुई.
भारत के
विभिन्न राज्यों में मनाये जाने वाले दशहरे का सम्बन्ध श्री राम द्वारा किये गए
रावण वध से है लेकिन छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में मनाये जाने वाले दशहरा पर्व का
सम्बन्ध विशुद्ध रूप से माँ दुर्गा के ही एक रूप माई दंतेश्वरी से है. वहाँ रावण
दहन को मान्यता नहीं है.
बस्तर, छत्तीसगढ़ राज्य का एक जिला है. ख़ूबसूरत जंगलों और आदिवासी संस्कृति में रंगा जिला बस्तर,
प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर जाना जाता है. 39114 वर्ग
किलोमीटर में फैला ये जिला एक समय केरल जैसे राज्य और बेल्जियम, इज़राइल
जैसे देशॊ से बड़ा था. प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से 1998 में इसमें से दो अलग जिले कांकेर और
दंतेवाड़ा बनाए गए. बस्तर का जिला मुख्यालय जगदलपुर, राजधानी
रायपुर से 305 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. जिले की करीब 70 प्रतिषत आबादी गोंड, माडिया, मुरिया, हलबा आदि लोगों की है. उड़ीसा से शुरू होकर दंतेवाड़ा की भद्रकाली नदी में समाहित होने वाली
करीब 240 किलोमीटर लंबी इंद्रावती नदी बस्तर के लोगों के लिए आस्था और भक्ति की
प्रतीक है.
वैसे तो
जन्म स्थान होने के कारण बस्तर दशहरे को करीब से देखा है लेकिन पिछले वर्ष दशहरे
में शामिल होने विशेष रूप से जगदलपुर गया था. बस्तर अंचल में आयोजित होने वाले पारंपरिक
पर्वों में बस्तर दशहरा सर्वश्रेष्ठ है. बस्तर दशहरा की परंपरा और इसकी जन
स्वीकृति इतनी व्यापक है कि यह पर्व
लगातार 75 दिनों तक चलता है. यह अपने प्रारंभिक काल से ही जगदलपुर नगर में अत्यंत
गरिमा एवं सांस्कृतिक वैभव के साथ मनाया जाता रहा है.
मैंने कहीं
पढ़ा था कि बस्तर के चालुक्य नरेश भैराजदेव
के पुत्र पुरुषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथपुरी तक पदयात्रा कर मंदिर में एक
लाख स्वर्ण मुद्राएँ तथा स्वर्णाभूषण अर्पित की थी. इस पर पुजारी को भगवान् जगन्नाथ ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति
घोषित किया जाए. कहते हैं कि राजा पुरुषोत्तम देव जब पुरी
धाम से बस्तर लौटे तभी से गोंचा और दशहरा पर्वों में रथ चलाने की प्रथा शुरू हुई.
बस्तर दशहरा
की शुरुआत काछनगादी पूजन से होती है जिसका अर्थ है काछिन देवी को गद्दी देना.
काछिनदेवी की गद्दी काँटों की होती है. मेरे देखे काछिन देवी काँटों की गद्दी पर बैठकर जीवन
की समस्याओं को जीतने का संदेश देती हैं. काछिन देवी बस्तर के मिरगानो की कुलदेवी हैं. मान्यता के अनुसार काछिन देवी
धन-धान्य की वृद्धि एवं रक्षा करती हैं. एक परमभक्त सिरहा आवाहन करता है. देवी के
आगमन पर झूलेपर सुलाकर उसे झुलाते हैं. फिर देवी की पूजा अर्चना कर दशहरा मनाने की स्वीकृति प्राप्त की जाती है.
अश्विन शुक्ल प्रथमा से बस्तर दशहरे की शुरुआत दंतेश्वरी देवी की पूजा
कर की जाती है. इसी दिन सिरासार हॉल में जोगी बिठाई की प्रथा पूरी की जाती है.
कहा जाता है कि पहले कभी दशहरे के अवसर पर कोई वनवासी दशहरा निर्विघ्न संपन्न
होने की कामना लेकर अपने ढंग से योग साधना में बैठ गया था. तभी से बस्तर दशहरा के
अंतर्गत जोगी बिठाने की प्रथा चल पड़ी है.
अश्विन शुक्ल द्वितीया से लेकर
लगातार अश्विन शुक्ल सप्तमी तक तक चार
पहिए वाले रथ की परिक्रमा होती है. यह रथ पुष्प सज्जा प्रधान होने के कारण फूलरथ
कहलाता है. इस रथ पर केवल देवी दंतेश्वरी
का छत्र ही आरुढ़ रहता है. साथ में देवी के
पुजारी होते हैं. दुर्गाष्टमी के
अंतर्गत निशाजात्रा का कार्यक्रम होता है। निशाजात्रा का जलूस नगर के इतवारी
बाज़ार से लगे पूजा मंडप तक पहुँचता है.
अश्विन शुक्ल
नवमी की शाम, जोगी को समारोह पूर्वक उठाया जाता है. फिर जोगी को भेंट देकर सम्मानित करते
हैं. इसी दिन लगभग रात्रि नौ बजे मावली
परघाव कार्यक्रम होता है. इस कार्यक्रम के तहत दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक
दंतेश्वरी की डोली में लाई गई माता मावली की मूर्ति और छत्र का स्वागत किया जाता
है. मावली देवी दंतेश्वरी का ही रूप हैं.
दशहरे के
दिन जगदलपुर में भीड़ अपनी चरमावस्था पर पहुँच जाती है. विजयादशमी के दिन भीतर रैनी
तथा एकादशी के दिन बाहिर रैनी के कार्यक्रम होते हैं. दोनों दिन आठ पहियों वाला
विशाल रथ चलता है. कहा जाता है कि विजयदशमी की शाम को जब रथ वर्तमान नगर पालिका
कार्यालय के पास पहुँचता था तब रथ के समक्ष एक भैंस की बलि दी जाती थी. भैंसा
महिषासुर का प्रतीक बनकर काम आता था. तत्पश्चात हनुमान मंदिर के सामने जलूस में
उपस्थित नागरिकों को रुमाल और पान के बीड़े देकर सम्मानित किया जाता है.
विजयादशमी के रथ की परिक्रमा जब पूरी हो चुकती है तब आदिवासी आठ पहियों वाले इस रथ
को प्रथा के अनुसार चुराकर कुमढ़ाकोट ले जाते हैं. कुमढ़ाकोट में राजा द्वारा देवी को नया
अन्न अर्पित अर्पित किया जाता है, फिर सब प्रसाद ग्रहण करते हैं.
अश्विन
शुक्ल द्वादशी को को प्रातः निर्विघ्न
दशहरा संपन्न होने की खुशी में काछिन जात्रा के अंतर्गत काछिन देवी की पूजा
अर्चना की जाती है. शाम को सीरासार में एक आम सभा का आयोजन होता है जिसमें राजा और प्रजा के बीच विचारों का आदान प्रदान होता है.
इस सभा को मुरिया दरबार कहा जाता है. इसी के साथ गाँव-गाँव से आए देवी
देवताओं की विदाई होती है.
बस्तर दशहरा अपने आप में अद्भुत है. इसकी भव्यता की जितनी भी चर्चा की जाए कम ही है.
वर्तमान बस्तर, नक्सल समस्या और पिछड़ेपन के लिए जाना जाता है. जबकि इसकी पहचान होनी
चाहिए आदिवासी संस्कृति से,
भव्यतम झरनों से, खूबसूरत प्राकृतिक वातावरण से, कांगेर
घाटी नेशनल पार्क से,
चित्रकोट और तीरथगढ़ से, बारसूर से, विभिन्न
प्राकृतिक गुफाओं से और यहाँ मनाये जाने वाले अप्रतीम, अद्भुत, भव्यतम
दशहरे से.
-मनमोहन जोशी (MJ)
17 टिप्पणियां:
Happy dussahra sir
Hapee vijaydasmi sir
इतना सुन्दर चित्रण। मजा आगया पढ़ कर। वास्तविक रथ क्या है आज मालूम चला। छत्तीसगढ़ की परंपराओं से आज छोटा सा परिचय हुआ। छत्तीसगढ़ घूमने की इच्छा प्रबल हो गई।
विजय दशमी की शुभकामनाये गुरुदेव।
अति सुंदर गुरुदेव।
विजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाएं ����
बहुत ही सुन्दर सा चित्रण किया हैं आज तक जो बस्तर जिले को लेकर गलत धारणाये मंन मेने रहती थी आज वो सब निरर्थ साबित हो गयी हैं वास्तव मेंने बस्तर जिला नाना प्रकार की विशेषतावो से परिपूर्ण हैं #विजयदशमी की बहुत बहुत शूभकामंनाये गुरुदेव#
Happy dusshera sir...
Stay blessed dear Pawan..
To u too Ajeet...
Thanx Mayur... Keep reading.
Thanx Shibo... keep reading.
Thanx Ritesh.... Keep reading.
To you too....
अच्छी जानकारी
अशोका विजयादशमी के बारे मे भी बताइये सर। क्यु कि यह शब्द भी बहोत सुनने को आता है।
अगर आप इसे सच कहते हैं तो अशोक काल को क्यो दर्शाते जब कलिंग के लिए युध्द हुआ था ओर अशोक ने राजसिंहासन छोड कर बुद्ध की सरण मैं गये । आप की ताकत हैं तो इस बात को भी उजागर कीजिए वरना ढोंग छोड दिजिए
अगर आप इसे सच कहते हैं तो अशोक काल को क्यो दर्शाते जब कलिंग के लिए युध्द हुआ था ओर अशोक ने राजसिंहासन छोड कर बुद्ध की सरण मैं गये । आप की ताकत हैं तो इस बात को भी उजागर कीजिए वरना ढोंग छोड दिजिए
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