मेरे लिए दुनिया का सबसे जटिल प्रश्न यह है कि मुझे खाने में क्या पसंद है ? जब छोटे थे तो बहुत तरह के पसंद और नापसंद होते थे यहाँ तक कि दाल में किस तरह का छौंक लगाया जाये इसकी भी चॉइस थी और ना मिले तो फिर खाना ही नहीं खाया जाता था… कोई कह सकता कि ये नख़रे हैं. हों ही शायद.
लेकिन बड़े हो जाने के बाद अब भी स्वाद और गंध के प्रति आसक्ति और अनासक्ति दोनों ही बनी हुई है. कुछ चीज़ों के लिए अभी भी एकदम पर्टिकुलर हूँ. ये बात भी ठीक है कि अब ये समझ आ गया है कि मैं हरकुछ खा सकता हूँ बस अच्छी बनी हो.. हाँ “अच्छी” को परिभाषित नहीं कर सकता.
साउथ इंडियन फ़ूड मुझे हमेशा से पसंद रहा है लेकिन इडली मैं सांभर के बिना नहीं खा सकता.. अभी कुछ समय पहले ज्ञान हुआ कि चटनी और सांभर दोनों के ही बिना नहीं खा सकता. मीठा पसंद है लेकिन जिसमें शक्कर कम हो और चॉकलेट से तो विरक्ति सी हो गई है..कोल्ड ड्रिंक का स्वाद मुझे नापसंद है. केक, पिज़्ज़ा, पास्ता, बर्गर आदि से अपनी पटरी नहीं बैठती.. चावल खाना कब का छोड़ चुका, श्रीमती जी की कृपा से मिलेट्स पर शिफ्ट हो गया हूँ.. रोटी एक से ज़्यादा नहीं खाई जाती… हाई प्रोटीन डाइट्स पसंद करता हूँ जिसमें छोले , पनीर , बीन्स, राजमा , सोया चंक्स, दालें बेहद पसंद हैं.. ट्राइबल फूड्स का दीवाना हूँ.. छत्तीसगढ़ में बनने वाले विभिन्न प्रकार के आमट (एक प्रकार की खट्टी सब्ज़ी) बेहद पसंद हैं.. छेने की मिठाइयाँ बेहद पसंद हैं लेकिन एकदम ताज़ी.
मेरे पास घर पर एक कटोरा है और ऑफिस में भी.. मैं थाली की जगह कटोरे में खाना पसंद करता हूँ. पता नहीं ये आदत कब से लगी.. कबीर और बुल्लेशाह को पढ़ते पढ़ते कब मैंने कासा (कटोरा) अपना लिया मुझे याद नहीं. एक बार हम ऑफिस में खाना खा रहे थे तो आदरणीय विमल छाजड़ साहब भी साथ में थे मैंने उनसे आग्रह किया कि घर से भोजन आया है आप भी साथ में करें. उनके लिए थाली परोसी और अपना कासा बैग से निकाल कर जो कुछ घर से आया था थोड़ा-थोड़ा सब उसमें मिला लिया छाजड़ साहब आश्चर्य से बोले अरे ! आप तो मुनि की तरह खाना खाते हैं. तो सहसा ध्यान आया कि पता नहीं कबसे ऐसी आदत लगी है. खाना खाते वक्त जूते उतार देता हूँ ,कटोरे( कासे) में खाना पसंद करता हूँ, एक बार खाना लेने के बाद दोबारा लेना पसंद नहीं करता… खाना खाते हुए बात करना बिलकुल भी पसंद नहीं. एक बार बैठ जाऊँ तो बीच में उठना नहीं पसंद करता…आदि आदि. लेकिन मैंने ऐसे कोई कड़े नियम या व्रत नहीं पाले हैं बस मैं ऐसा करने में सहज हूँ, ऐसा करना अच्छा लगता है.
खाने के बारे में बात करते हुए याद आया, मुझे किसी के घर खाने का न्योता स्वीकारने में बड़ी तकलीफ़ होती है क्यूँकि मैं अल्पाहारी हूँ. थोड़े में ही पेट भर जाता है और आप जिसके घर मेहमान हों वो आपको ठूँस-ठूँस कर खिलाना चाहता हैं, तो भोजन निमंत्रण आम तौर पर स्वीकार नहीं करता..
एक बार ऐसा हुआ मैं रायपुर किसी काम से गया हुआ था उस दौर में मेरी आदत थी कि मैं किस रोज़ कहाँ हूँ ये सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देता था.. एक स्टूडेंट जो नई-नई जज बनी थी, के घर से भोजन निमंत्रण आ गया मैंने विनम्रता से अस्वीकार किया लेकिन आग्रह बहुत स्नेहिल था उसके पिता ने और फिर जब माता जी ने भी कहा आना ही पड़ेगा तो मैं इनकार नहीं कर सका और ठीक उनके बुलाए समय पर चला गया.
शाम के साढ़े सात बज रहे हैं. यही मेरे खाने का समय भी होता है! पिता जी घर पर नहीं हैं.. विभिन्न प्रकार के नमकीन, पाव भाजी और छोले भटूरे परोसे गये हैं.. मुझे लगा शायद यही बना हो.. तो खा गया.. मेरा पेट तो एक छोले भटूरे से ही भर गया था लेकिन उसके बाद भी पाव भाजी और कुछ नमकीन खा ली. फिर मिठाई आ गई वो भी खा गया.
अब रात में पौने नौ बज रहे हैं मैंने हाथ मुँह धोकर विदा लेना चाहा तो वो बोलने लगे अरे सर अभी तो पापा आने वाले हैं और जो खाना बना है वो तो आपने खाया ही नहीं है . अरे बाबा रे ! मेरे पेट में तो जगह ही नहीं और मेरा भोजन तो हो चुका.. मैं स्टार्टर, मेन कोर्स और डेज़र्ट वाला इंसान नहीं हूँ. स्टार्टर में ही मेरा दी एंड हो जाता है. बहरहाल पिताजी आये और फिर 9:30 के आस पास हम भोजन पर बैठे. मेरा पेट गले तक भरा था लेकिन ज़बरदस्ती मैं कुछ ठूँसने का असफल प्रयास कर रहा था.. जिसको देख माता जी को लगा कि शायद सर को खाना ठीक नहीं लगा.. जैसे ही वहाँ से बाहर निकला कान पकड़े की अब किसी के यहाँ भोजन निमंत्रण पर नहीं जाना है.. मानो “मुहब्बत से, इनायत से वफ़ा से चोट लगती है..”
क्या खाना क्या ना खाना मुझे लगता है सबकी व्यक्तिगत चॉइस है. किसी ने क्या खूब कहा है -
“ कोई मांस कोई साग कहावे ,
पेट भरण को सब जग खावे,
दोनों में ही जीव समावे
जो जाने सो बुद्ध कहावे.”
✍️एमजे