Picture : Creation of the universe
"सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या कहाँ, किसने देखा था
उस पल तो अगम, अटल जल भी कहाँ था"
नब्बे के दशक में “भारत एक खोज” नाम का कार्यक्रम दूरदर्शन पर सप्ताह में एक बार आता था जो जवाहरलाल नेहरू जी कि किताब "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" पर आधारित था हम उसका इंतज़ार करते थे जिसमें ऋग्वेद का यह सृष्टि सृजन सूक्त सुनाई पड़ता था तब तो इसके बारे में बहुत कुछ नहीं पता था लेकिन सुनने में ये बड़ा अच्छा लगता था और न जाने कब याद भी हो गया.
दुनिया के सभी धर्मग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि मानव सहित सृष्टि के हर चर और अचर प्राणी की रचना ईश्वर ने अपनी इच्छा के अनुसार की... प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध वर्णन से भी स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल में मनुष्य लगभग उतना ही सुंदर व बुद्धिमान था जितना कि आज है.
पश्चिम की अवधारणा के अनुसार यह सृष्टि बस कुछ ही हज़ार साल पुरानी है. यह विधाता द्वारा एक बार में रची गई है और पूर्ण है.
अनादि माने जानेवाले सनातन धर्म, जिसे हिंदू धर्म के नाम से भी जाना जाता है, में कल्पना की गई है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की और मनु व श्रद्धा को पहले स्त्री और पुरुष के रूप में रचा. प्राचीन यहूदी धर्म, लगभग दो हजार वर्ष पुराने ईसाई धर्म और लगभग तेरह सौ वर्ष पुराने ईस्लाम धर्म में आदम एवं हव्वा को आदिपुरुष और आदिस्त्री माना जाता है.
कालक्रम की गणना में विभिन्न धर्मों में अंतर है. सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार, सृष्टि की रचना होती है, विकास होता है और फिर संहार (प्रलय) होता है. इसमें युगों की गणना का प्रावधान है और हर युग लाखों वर्ष का होता है, जैसे वर्तमान कलियुग की आयु चार लाख बत्तीस हजार वर्ष आँकी गई है. पश्चिमी धर्मों(अब्राहमिक धर्मो) की मान्यताओं के अनुसार ईश्वर ने सृष्टि की रचना एक बार में और एक बार के लिए की है.
लेकिन मनुष्य की जिज्ञासाएँ कभी शांत होने का नाम नहीं लेती हैं....सो सत्य की खोज जारी रही.... परिवर्तशील प्रकृति का अध्ययन उसने अपने साधनों के जरिए जारी रखा और उपर्युक्त मान्याताओं में खामियाँ शीघ्र ही नजर आने लगीं. भारत में धर्म सहिष्णु ही रहा है या कहें कि धर्म और विज्ञान हाथ में हाथ डाले चलते रहे हैं तो शायद ये बात सही होगी. समय-समय पर आर्यभट, वराह मिहिर, भारद्वाज तथा अश्विनी कुमार जैसे विद्वानों ने जो नवीन अनुसंधान किए उन पर गहन चर्चा हुई. लोगों ने पक्ष और विपक्ष में अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त किए. परंतु पश्चिम में धर्म अत्यंत शक्तिशाली था...वह रूढ़ियों से ग्रस्त भी था. जो व्यक्ति उसकी मान्यताओं पर चोट करता था उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती थी. कोपरनिकस ने धार्मिक मान्यता पर पहली चोट की. उनका सिद्धांत उनकी पुस्तक "मैग्नम ओपस" के रूप में जब आया तो वे मृत्यु-शय्या पर थे और जल्दी ही चल बसे. ब्रूनो एवं गैलीलियो जैसे वैज्ञानिकों को भारी कीमत चुकानी पड़ी... ब्रूनो को केवल इस कारण जिंदा जला दिया गया क्यूंकि उन्होंने ब्रहमांड के अनंतता का सिद्धांत दिया जो आमतौर पर प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के एक दम विपरीत थी..... गैलीलियो को अपने वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए लंबा कारावास भुगतना पड़ा...पर उनके ये बलिदान व्यर्थ नहीं गए....उन्होंने लोगों के ज्ञानचक्षु खोल दिए....अब लोग हर चीज को वैज्ञानिक नजरिए से देखने लगे थे..
धार्मिक रूढ़िवादिता से जकड़ी हुई दुनियाँ में किसी प्रकृति विज्ञानी द्वारा यह प्रमाणित करने का साहस करना कि यह सृष्टि लाखों करोड़ों वर्ष पुरानी है, अपूर्ण है और परिवर्तनीय है... सोचता हूँ उस समय ये कितनी बड़ी बात रही होगी ! ईश्वर की संतान या ईश्वर के अंश मानेजाने वाले मनुष्य के पूर्वज वानर और वनमानुष के पूर्वज समान ही रहे होंगे, यह प्रमाणित करनेवाले डार्विन को अवश्य यह अंदेशा रहा होगा कि उसका हश्र भी कहीं ब्रूनो या गैलिलिओ जैसा न हो जाए.
क्रमशः.....
-एमजे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें