कल
जब इंटरव्यू के कुछ स्टूडेंट्स के साथ “न्याय” शब्द पर चर्चा चल रही थी तो ध्यान आया कि
एलएलबी करने के दौरान जिस पहले अपराध को अपने प्रोफेसर से समझा था वो थी “चोरी”.
मुझे
वो दिन आज तक याद है - आईपीसी की धारा 378 को
उन्होंने एक समझाया और उदाहरण देते हुए कहा था कि मानलो तुम्हारी साइकिल कोई बिना
तुम्हारी सहमति के बेईमानी से उठा कर ले जाए तो हम कहेंगे चोरी हुई. फिर उन्होंने
ख़ुद ही पूछा बताओ चोरी के लिए क्या सज़ा होगी. मैंने खड़े होकर कहा सज़ा किसको ? बोले चोर को, देखो 379 में 3
साल की जेल हो सकती है मैंने 379
पढ़ा और लगभग चीखते हुए ही कहा और साइकिल का क्या होगा ? ये तो न्याय नहीं हुआ.. 379 में लिखा है चोरी करने वाले को 3 साल के लिए जेल में डाल दिया जायेगा और उससे
जुर्माना भी वसूल किया जा सकेगा. लेकिन साइकिल का क्या ?? मुझे लगता है वहाँ लिखा होना चाहिए था कि चोरी
गया सामान उसके मालिक को वापस दिलाया जायेगा या फिर चोर को कहा जाएगा उसे वैसा ही सामान ख़रीद कर दे.
मुझे
आईपीसी में दिये गए दण्ड बिलकुल न्याय संगत नहीं लगे तबसे अब तक न्याय की सही
परिभाषा तलाश कर रहा हूँ.. प्लेटो , सुकरात
और अरस्तू अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में न्याय की बात करते हैं.
मैं
न्याय को साध्य समझ रहा था लेकिन “अक्षपाद
गौतम” न्याय को साधन बता रहे हैं. लिखते हैं “ नीयते विवक्षितार्थः अनेन इति न्याय:”अर्थात् जिस साधन के द्वारा हम अपने विवक्षित
तत्त्व के पास पहुँच जाते हैं (निर्णय के पास पहुँच जाते हैं या जिसे जानना चाह
रहे हैं उस तक पहुँच जाते हैं) वही साधन न्याय है.
कुल
मिलाकर मुझे लगता है न्याय की कोई भी सटीक व्याख्या मौजूद नहीं है… मैं खोज रहा हूँ आप भी ढूँढिये..
✍️MJ
18-02-2024
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